उच्च विकास दर की चिंता में सरकारें, हकीकत बयां करता भुखमरी सूचकांक
सरकारें नागरिकों को तमाम कानूनों के तहत भोजन मुहैया कराने के कार्यक्रमों को सही से लागू करने में विफल रही हैं...
सुधीर कुमार। झारखंड में भूख के कारण हुई एक ग्यारह वर्षीय बच्ची की मौत का मामला इन दिनों सुर्खियों में है। इस मौत ने राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम, सरकारी कार्यशैली और मानवता को कठघरे में ला खड़ा किया है। लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था में भूख से किसी नागरिक की मौत होना सामान्य बात नहीं है। इसे शासन की विफलता के प्रतिबिंब के रूप में देखा जाना चाहिए। विडंबना यह है कि गरीबों के सामाजिक और आर्थिक कल्याण के लिए शुरू की गई जन-वितरण प्रणाली, अंत्योदय अन्न योजना, एकीकृत बाल विकास सेवाएं, समेकित बाल विकास परियोजना व राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 जैसी तमाम सरकारी व्यवस्थाएं भी बच्ची को मौत के मुंह में जाने से रोक नहीं सकीं!
सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत, गरीबी रेखा से नीचे परिवारों को जहां रियायती दर पर खाद्यान्न उपलब्ध कराया जा रहा है, वहीं खाद्य सुरक्षा अधिनियम-2013 के माध्यम से सभी राज्य सरकारों ने नागरिकों को भोजन का अधिकार दे रखा है। भुखमरी से निपटने के नाम पर देश में अनेक योजनाएं बनी हैं, लेकिन कहीं न कहीं उसके क्रियान्वयन में लापरवाही बरती जा रही है। एक तरफ, हम देश को महाशक्ति बनाने की बात करते हैं, लेकिन भूख व कुपोषण जैसी समस्याओं की वजह से हमें शर्मिदा होना पड़ता है। क्या इन समस्याओं से भारतीय समाज कभी उबर भी पाएगा? घटना 28 सितंबर की है, लेकिन उसे खबर बनने में बीस दिन लग गए।
जानकारी के मुताबिक, पीड़ित परिवार को जन-वितरण प्रणाली के तहत पिछले 8 महीनों से सिर्फ इस वजह से राशन नहीं दिया गया, क्योंकि उसका राशन कार्ड आधार से जोड़ा नहीं जा सका था। ऐसा करना इसलिए जरूरी था, क्योंकि राज्य की मुख्य सचिव ने इस मामले में सख्त आदेश दिए थे जबकि, रांची हाईकोर्ट ने अपने एक आदेश में कहा भी था कि जिनके राशन कार्ड आधार से नहीं जोड़े गए हैं, उन्हें भी राशन दिया जाए। राशन के अभाव में, पीड़ित परिवार के घर पर कई दिनों तक चूल्हा नहीं जला। हाईकोर्ट के आदेश की अवहेलना क्यों की गई, राशन कार्ड को आधार से लिंक नहीं किया गया था, तो इसकी पहल क्यों नहीं की गई, जैसे सवाल अनुत्तरित हैं। लगभग 8 महीने से राशन का न मिलना हमारी जन-वितरण प्रणाली की पारदर्शिता पर भी सवाल खड़े करती है। साथ ही, बच्ची की मौत से कहीं न कहीं मानवता भी शर्मसार हुई है।
वर्ष 2011 में जब अर्जुन मुंडा झारखंड के मुख्यमंत्री थे, तब उन्होंने जरूरतमंदों को सस्ते दर पर भोजन उपलब्ध कराने के लिए, राज्य में ‘मुख्यमंत्री दाल-भात योजना’ की शुरुआत की थी। योजना काफी चर्चित रही और सफल भी। राज्य के करीब 22 लाख से अधिक लोगों के प्रतिदिन भूख मिटाने का वह महत्वपूर्ण जरिया बन गई। राज्य के सभी 24 जिलों में 400 से अधिक केंद्र खोलकर वंचितों व जरूरतमंदों को मात्र पांच रुपये में एक वक्त का खाना सुनिश्चित कराने की पहल की गई थी, लेकिन 2014 में फंड की कमी बताकर सरकार ने इस योजना पर ब्रेक लगा दिया और इस तरह आश्रित बाइस लाख लोगों के प्रतिदिन का निवाला छिन लिया गया। उसके बाद, मुख्यमंत्री बनने वाले हेमंत सोरेन और वर्तमान मुख्यमंत्री रघुवर दास ने वैसी कल्याणकारी योजनाओं पर दोबारा ध्यान नहीं दिया। इस साल अगस्त में कुपोषण की वजह से राज्य के तीन जिलों रांची, जमशेदपुर व धनबाद के नामी अस्पतालों में सैकड़ों बच्चों की मौत हो गई थी। मगर उस घटना से भी सबक लेने की कोशिश नहीं की गई!
संयुक्त राष्ट्र संघ ने 2030 तक समस्त विश्व को भुखमरी से मुक्त करने का आह्वान किया है, लेकिन भुखमरी से जंग के मामले में हम कितने पीछे हैं, इसे वैश्विक भुखमरी सूचकांक की ताजा रिपोर्ट से स्पष्ट है। जाहिर है देश में सरकारें केवल उच्च विकास दर बरकरार रखने के दावे करती हैं, लेकिन भूखमरी व कुपोषण के मामलों में किसी तरह की कमी आती नहीं दिख रही है।
(लेखक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में अध्ययनरत हैं)