देश को गुमराह की कोशिश कर रही हैं पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी
ममता द्वारा राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को निशाने पर लिया जाना उनके अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक आचरण को रेखांकित करता है।
अरविंद जयतिलक
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी अनावश्यक वितंडा खड़ाकर देश को गुमराह की कोशिश कर रही हैं। जिस तरह उन्होंने राज्य के उत्तरी चौबीस परगना में फेसबुक से फैले तनाव के लिए जिम्मेदार गुनाहगारों पर कार्रवाई करने से बचने की कोशिश करते हुए राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी को निशाने पर लिया है वह न सिर्फ उनके अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक आचरण को रेखांकित करता है बल्कि यह भी बताता है कि राज्य में कानून-व्यवस्था पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी है। जिस ममता बनर्जी को अपनी शानदार छवि गढ़ने में दशकों का वक्त लगा वह झूठ और तमाशा का बवंडर खड़ाकर अपनी सरकार की नाकामी छिपाने के लिए राज्यपाल का आड़ क्यों ले रही हैं?
बेशक उन्हें हक है कि वह अपने सियासी प्रतिद्वंदियों की आलोचना करें लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं कि वह संवैधानिक पद की गरिमा को ही ध्वस्त करे दें। राज्य के चौबीस परगना में दो समुदायों के बीच सांप्रदायिक दंगा भड़कने के बाद राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने राज्य की कानून-व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी से बातचीत की। राज्य में राज्यपाल का पद केंद्र में राष्ट्रपति के समान सम्मान का पद होता है। ऐसे में राज्य सरकार का कर्तव्य होता है कि वह राज्यपाल का सम्मान करे। राज्य में राज्यपाल की जिम्मेदारी होती है कि वह ध्यान रखे कि राज्य में संविधान के अनुसार शासन चल रहा है अथवा नहीं।
अगर उसे लगता है कि राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति नाजुक है तो उसका संवैधानिक कर्तव्य है कि वह राज्य के मुख्यमंत्री से बात करे और जरूरत पड़ने पर केंद्र को भी अवगत कराए। राज्यपाल केसरी नाथ त्रिपाठी ने ऐसा ही किया। मगर ममता कहती सुनी गईं कि टेलीफोन पर बातचीत के दौरान राज्यपाल ऐसे बर्ताव कर रहे थे मानों वे भाजपा के ब्लॉक प्रमुख हों। उनके एक अन्य नेता डेरेक ओ ब्रायन ने तो यहां तक कहा कि पश्चिम बंगाल में राजभवन आरएसएस शाखा में बदल चुका है। इस तरह का असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक बयान सिर्फ यहीं रेखांकित करता है कि राज्य में एक निर्वाचित लोकतांत्रिक सरकार नहीं बल्कि तानाशाह सरकार है जो संविधान, राज्यपाल और केंद्र सरकार को ठेंगा पर रखती है।
यह पहली बार नहीं है जब मुख्यमंत्री अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए इस तरह का वितंडा खड़ा कर रहीं हों। याद होगा गत वर्ष सेना के रुटीन अभ्यास को लेकर उन्होंने देश को गुमराह करने की कोशिश की। यह अच्छा हुआ कि सेना ने बिना देर किए ही स्पष्ट कर दिया कि यह उसका रुटीन अभ्यास है। ध्यान दें तो ममता बनर्जी द्वारा जिस तरह राज्यपाल की आड़ लेते हुए केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी उसके कई राजनीतिक मायने हैं। एक, नोटबंदी के खिलाफ अभियान की हवा निकलने के बाद ममता बनर्जी बौखला चुकी है। दूसरा, देश भर में संदेश जा चुका है कि वह कालेधन के कुबेरों के साथ हैं।
तीसरा, तुष्टिकरण के कारण अब राज्य की कानून-व्यवस्था संभालना उनके लिए कठिन हो गया है। ऐसे में उचित होगा कि ममता बनर्जी धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता जैसे मसले पर केंद्र सरकार को उपदेश देने के बजाय स्वयं आईने के सामने खड़े हों और विचार करें कि उनसे कहां चूक हो रही है? क्या कारण है कि राज्य में सांप्रदायिक दंगे थमने का नाम नहीं ले रहा? कहना गलत नहीं होगा कि वामपंथी विचारधारा के समर्थक अराजक तत्वों का रूपांतरण तृणमूल कार्यकर्ताओं में हो चुका है जो सांप्रदायिकता की आग से राज्य को झुलसा रहे हैं।
राज्य प्रशासन उन पर कार्रवाई करने के बजाय उल्टे उन्हें संरक्षण दे रहा है। पिछले कुछ वर्षो में जिस अंदाज में सांप्रदायिक दंगे हुए हैं उसमें राज्य सरकार की तुष्टिकरण नीति का महत्वपूर्ण योगदान है। गत वर्ष मालदा में लाखों लोगों ने सड़क पर उतरकर अराजकता फैलाया लेकिन सरकार हाथ पर हाथ धरी बैठी रही। दोषियों के विरुद्ध कार्रवाई के बजाय उनका बचाव करती रही।1लोकतंत्र की बात करने वाली ममता को नहीं भूलना चाहिए कि उनकी सरकार ने अनुदान प्राप्त पुस्तकालयों में सभी राष्ट्रीय अखबारों की खरीद पर रोक लगा दी जिससे प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी को तक कहना पड़ा था कि जब राजतंत्र नहीं रहा, तो इस सरकार की क्या हैसियत है।
(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)