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कोई मंत्र नहीं सुशासन, सिर्फ माला जपने से नहीं बनेगा काम

देश समस्याओं से भरा है और इन्हें हल करने की तरकीब सुशासन में है, लेकिन यह भी सच है कि मात्र इसकी माला जपने से ही काम नहीं होगा।

By Digpal SinghEdited By: Published: Tue, 02 Jan 2018 11:57 AM (IST)Updated: Tue, 02 Jan 2018 12:02 PM (IST)
कोई मंत्र नहीं सुशासन, सिर्फ माला जपने से नहीं बनेगा काम
कोई मंत्र नहीं सुशासन, सिर्फ माला जपने से नहीं बनेगा काम

सुशील कुमार सिंह। दिसबर 2017 की 25 तारीख को सुशासन दिवस के दिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब यह कहा कि सुशासन तब तक संभव नहीं जब तक लोगों की सोच है- 'मेरा क्या और मुझे क्या'। उक्त वक्तव्य से साफ है कि विकास के सहभागी मापदंड को अब देर तक न तो दरकिनार किया जा सकता है और न ही राष्ट्र निर्माण की दिशा में स्वयं को पहल से अछूता रखा जा सकता है। जिस सुशासन को सरकार सभी समस्या की समाप्ति के संयंत्र के रूप में देख रही है वह तभी पूर्णता को प्राप्त करेगा जब इसमें निहित लोकप्रवर्धित अवधारणा को मजबूती मिलेगी। जाहिर है इसके केंद्र में जनता है, जिसकी तादाद करोड़ों में है और समस्याएं बेशुमार तथा अपेक्षाएं अनंत हैं।

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देश में जनहित को लेकर सरकार द्वारा उठाए जाने वाले कदम बीते साढ़े तीन सालों में कितने खरे रहे इस पर एक विमर्ष हो सकता है, पर आज देश के सामने जो प्रमुख निर्णायक प्रश्न खड़ा है उसमें सुशासन सबसे महत्वपूर्ण है। देश के लोकतांत्रिक संविधान के अंतर्गत यह प्रतिबद्धता है कि भारत के प्रत्येक नागरिक को गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने की व्यवस्था हो और ऐसा सुशासन के जरिए ही संभव माना जा रहा है। इस बात में तनिक मात्र भी संदेह नहीं कि सुशासन सामाजिक न्याय, आर्थिक विकास तथा लोक विकास की परिपाटी को उच्चस्थ बनाने का एक बड़ा औजार है।

मौजूदा समय में सरकार की प्रक्रियाएं नागरिकों पर केंद्रित होते हुए एक नए डिजाइन और सिंगल विंडो संस्कृति में तब्दील हो रही है। सुशासन में निहित ई-गवर्नेंस अभी पूरी तरह सफल नहीं है। स्वतंत्रता दिवस के दिन अगस्त, 2015 में प्रधानमंत्री मोदी ने सुशासन के लिए आइटी के व्यापक इस्तेमाल पर जोर दिया था, तब उन्होंने कहा था कि ई-गवर्नेंस आसान, प्रभावी और आर्थिक गवर्नेंस भी है और इससे सुशासन का मार्ग प्रशस्त होता है। यद्यपि सुशासन को लेकर आम लोगों में विभिन्न विचार हो सकते हैं, पर सुशासन एक लोक प्रवर्धित अवधारणा है जो शासन को अधिक खुला, पारदर्शी तथा उत्तरदायी बनाता है। ऐसा इसलिए ताकि सामाजिक-आर्थिक उन्नयन में सरकारें खुली किताब की तरह रहें और देश की जनता को दिल खोलकर विकास दें।

मानवाधिकार, सहभागी विकास और लोकतांत्रीकरण का महत्व सुशासन की सीमाओं में आते हैं। गौरतलब है कि 1991 में उदारीकरण के दौर में जो आर्थिक मापदंड विकसित किए गए वे मौजूदा समय के अपरिहार्य सत्य थे, जिसमें सुशासन की अवधारणा भी पुलकित होती है। विश्व बैंक ने भी इसी दौर में इसकी एक आर्थिक परिभाषा गढ़ी थी। लगभग तीन दशक के बाद यह कहा जा सकता है कि सूचना का अधिकार, नागरिक घोषणापत्र, ई-गवर्नेंस, सिटीजन चार्टर, ई-याचिका तथा ई-सुविधा समेत लोकहित से जुड़े तमाम संदर्भ सुशासन की दिशा में उठे कदम ही हैं। इसमें कोई दुविधा नहीं कि सुशासन के कोर में सरकार की जिम्मेदारी कहीं अधिक है और बारंबार एक बेहतरीन सरकार का निरूपण इसमें निहित है। भारत के परिप्रेक्ष्य में सुशासन और इसके समक्ष खड़ी चुनौतियां दूसरे देशों की तुलना में भिन्न हैं। जाहिर है जब तक समाज के प्रत्येक तबके को गरीबी, बीमारी, अशिक्षा आदि बुनियादी समस्याओं से निजात नहीं मिल जाती तब तक सुशासन की परिभाषा अधूरी रहेगी।

सुशासन की क्षमताओं को लेकर ढेर सारी आशाएं हैं। शायद उन्हीं आशाओं को ध्यान में रखते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सत्ता में आते ही काफी सक्रिय दिखाई दिए। हालांकि सुशासन के मामले में जैसा पहले कहा गया है आमतौर पर परिभाषाओं का घोर आभाव है और यह अपनी सुविधा पर जांची-परखी जाती रही है। पिछले कुछ वर्षों से देश में आर्थिक समस्याएं उस तरह से हल नहीं प्राप्त कर पाईं जैसा होना चाहिए। इससे सुशासन की संवेदनशीलता प्रभावित हुई है। नोटबंदी के बाद विकास दर का प्रभावित होना इसका पुख्ता प्रमाण है। वैसे देखा जाय तो सुशासन की कसौटी पर राजकोषीय और बजटीय घाटा अब भी समुचित नहीं है।

प्रधानमंत्री मोदी न्यू इंडिया की बात कर रहे हैं। जाहिर है पुराने भारत की तस्वीर बदलेगी, पर कैसे इस पर शक इसलिए गहराता है, क्योंकि ग्रामीण क्षेत्र अब भी मुसीबत में है। बावजूद इसके सरकार ग्रामीण एवं कृषि सुशासन पर बड़ा जोखिम नहीं लिया है। हालांकि कुछ मामलों में वह राहत दे रही है। इस क्षेत्र का मानव संसाधन अब भी भूखा-प्यासा और शोषित महसूस कर रहा है। सुशासन के लिए महत्वपूर्ण कदम सरकार की प्रक्रियाओं को सरल बनाना भी है और ऐसा पारदर्शी और ईमानदार प्रणाली से ही होगा। पुरानी पड़ चुकी नौकरशाही में नई जान फूंकी जा रही है पर यह न पहले आसान था और न अब। सुशासन किसी भी देश की प्रगति की कुंजी मानी जाती है और यह समस्याओं के निदान में सर्वाधिक प्रभावशाली भी होती है, पर जब तक जवाबदेही में कोताही बरती जाएगी यह कुंजी ताले को नहीं खोल पाएगी।

यह कहना सही है कि डिजिटल गवर्नेंस का दौर बढ़ा है। नवीन लोक प्रबंधन की प्रणाली के रूप में यह प्रासंगिक हुआ है। आर्थिक विकास के मार्ग को समतल बनाना, शिक्षा, ऊर्जा, स्वास्थ और मानव विकास को प्राथमिकता देना इसमें शुमार है। ई-लोकतंत्र, पारदर्शिता, दायित्वशीलता और सहभागिता सब इसके ही अनोखे गुण हैं। सुशासन को आर्थिक गणना में रखकर और मजबूती से समझा जा सकता है। लोक कल्याण आर्थिक मुनाफे पर केंद्रित नहीं होता। सरकार को भी यह भली-भांति समझना चाहिए कि सुशासन के जरिए जीवटता बनाए रखना है तो रोटी, कपड़ा और मकान किसी के लिए भी दूर की कौड़ी नहीं होनी चाहिए।

गौरतलब है कि 2022 तक सरकार सभी को मकान देने की बात कह रही है, पर युवाओं की बेरोजगारी वाली लंबी कतार यह संदेह पैदा कर रही है कि रोजगार के बगैर किचन में भोजन कैसे पकेगा। देश समस्याओं से भरा है और हल करने की तरकीब सुशासन में है, पर मात्र इसकी माला जपने से काम नहीं होगा। सुशासन कोई मंत्र नहीं है, पर यदि इसके निर्धारित साक्ष्यों, साधनों और संदर्भों को उकेरा जाय तो यह जनता की ही नहीं सरकार की भी सेहत सुधारती है।

(लेखक वाईएस रिसर्च फाउंडेशन ऑफ पब्लिक एडमिनिस्ट्रेशन के निदेशक हैं)


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