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सोशल मीडिया पर लोगों को समझनी होगी अपनी जिम्मेदारी, वरना...

सोशल मीडिया की आक्रामकता स्वाभाविक है, परंतु उसे अपनी जिम्मेदारियों को समझना होगा जनता और सरकार-प्रशासन, सभी सोशल मीडिया के इस्तेमाल को लेकर दुविधा में हैं।

By Digpal SinghEdited By: Published: Wed, 18 Oct 2017 09:08 AM (IST)Updated: Wed, 18 Oct 2017 09:45 AM (IST)
सोशल मीडिया पर लोगों को समझनी होगी अपनी जिम्मेदारी, वरना...
सोशल मीडिया पर लोगों को समझनी होगी अपनी जिम्मेदारी, वरना...

अभिषेक कुमार। देश में इंटरनेट के तेज प्रचार-प्रसार का एक पहलू यह है कि इसने सोशल मीडिया पर असहमतियों को प्रकट करने का एक मंच दिया है। संविधान द्वारा प्रदत्त अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार को देखें तो थोड़े-बहुत विचलन और असावधानी की घटनाओं को छोड़कर फेसबुक-ट्विटर आदि के जरिये व्यक्त की गई असहमतियों में ऐसी कोई विशेष बात नहीं रही है कि उन्हें बेहद आपत्तिजनक माना जाए और ऐसा कुछ कहने-सुनने वालों को बिना सुनवाई पकड़कर जेल में डाल दिया जाए। पर अफसोस कि इस बीच ऐसा बहुत कुछ हुआ है।

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आइटी एक्ट 2000 और आइटी अधिनियम की धारा 66-ए के तहत विशेषत: राजनेताओं के खिलाफ टीका-टिप्पणी करने वालों को पकड़कर जेल में डाला गया और अन्य सजाएं दी गईं। हालांकि इनके खिलाफ उठी आवाजों के मद्देनजर दो साल पहले सुप्रीम कोर्ट ने विभिन्न याचिकाओं की सुनवाई के बाद आइटी अधिनियम की धारा 66-ए को रद करने का फैसला किया था। इसे बड़ी राहत माना गया, लेकिन अब एक बार फिर सोशल मीडिया पर सरकारी पहरा लगने की बात कही जा रही है।

तीन साल की सजा हो सकती है

यदि सोशल मीडिया के किसी भी लोकप्रिय मंच से किसी व्यक्ति के लिखे बयान या सामग्री से किसी सम्मानित व्यक्ति की भावना आहत होगी या उसके सम्मान को ठेस पहुंचेगी, दंगा-अफवाह या प्रतिकूल हालात की आशंका होगी तो फिर उस कमेंट या सामग्री लिखने वाले को अधिकतम तीन साल की जेल हो सकती है। यही सजा इस किस्म के ऑनलाइन कमेंट और कमेंट को शेयर, फॉरवर्ड या रीट्वीट करने वालों को भी मिलेगी। दावा है कि केंद्र सरकार ने सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक सामग्री की बाढ़ आने के मामलों को देखते हुए यह फैसला लिया है।

चूंकि सुप्रीम कोर्ट वर्ष 2015 में धारा 66-ए रद कर चुका है, लेकिन अब इसके लिए अलग से कानून तो नहीं बनाया जाएगा, पर इसके स्थान पर मौजूदा भारतीय दंड संहिता (आइपीसी) और आइटी एक्ट की धारा में बदलाव किया जाएगा। कानून में किए जाने वाले संभावित बदलावों की एक रिपोर्ट 10 विशेषज्ञों ने तैयार कर सरकार को सौंपी है, जिससे सरकार सहमत है और कहा जा रहा है कि इसे कैबिनेट की मंजूरी दिलाने के प्रयास किया जा रहा है।

2008 में हुआ IT एक्ट में बदलाव

गौरतलब है कि देश में इंटरनेट के फैलाव और उसके दुरुपयोग की आशंकाओं की रोकथाम के मद्देनजर वर्ष 2000 में आइटी अधिनियम लाया गया था। वक्त के साथ और जरूरतों के मुताबिक इसमें संशोधन किए जाते रहे। इसमें एक बड़ा बदलाव 2008 में हुआ, जब एक्ट के साथ धारा 66-ए जोड़ी गई। इस धारा में किए गए प्रावधान के मुताबिक यदि सोशल मीडिया के किसी भी मंच से कोई व्यक्ति ऐसी टिप्पणी करता है या उसे पसंद (लाइक) करता है जिससे देश की संप्रभुता, व्यवस्था व सांप्रदायिक माहौल को ठेस लगती है तो ऐसे व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है।

इस धारा में साफ किया गया था कि यदि कोई व्यक्ति कंप्यूटरजनित किसी भी संसाधन का इस्तेमाल करते हुए कोई ऐसी बात कहता है, जिसकी प्रकृति धमकी भरी हो या जिसके बारे में उसे मालूम हो कि वह गलत साबित होगी, लेकिन दूसरों को खिझाने के लिए, उन्हें असुविधाजनक स्थिति में पहुंचाने या उन्हें खतरे में डालने, उनके कामकाज में बाधा डालने या अपमानित करने की कोई बात बात कहता है तो उसे तीन साल तक की कैद और जुर्माने की सजा हो सकती है। पिछली सरकारों ने यह कहते हुए धारा 66-ए का बचाव किया था कि प्रावधान का उद्देश्य संविधान के अनुच्छेद-19 के तहत मिली अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश लगाना नहीं, बल्कि विशाल साइबर संसार को कुछ हद तक नियंत्रित करना है। लेकिन साइबर दुनिया को नियंत्रित करने के नाम पर बीते वर्षों में लोगों को बेवजह प्रताड़ित करने की इतनी घटनाएं हुईं कि लोग यह सोचकर भयाक्रांत हो गए कि यदि उन्होंने सोशल मीडिया पर असावधानीवश कोई ऐसी बात लिख दी या दूसरों की कही बात को पसंद कर लिया तो उन्हें भी जेल में डाल दिया जाएगा। अफसोस कि अब वह दौर एक बार फिर लौटने को है!

धौंस जमाने के लिए कानून का इस्तेमाल

सोशल मीडिया पर कुछ कहने, लिखने, किसी कमेंट को पसंद करने या उसे आगे बढ़ाने पर पिछले कुछ वर्षों में कई लोगों के खिलाफ इतनी कार्रवाइयां हुईं, जिससे कि संबंधित कानूनी प्रावधान में रह गए नुक्स साफ-साफ नजर आए। संदेह नहीं कि ऐसे कानून बनाते वक्त देश के कई संवेदनशील मसलों को ध्यान में रखा जाता है, लेकिन अमल में आने पर कानूनी प्रावधानों का जैसा दुरुपयोग होता है, उससे स्पष्ट है कि ज्यादातर राजनेता, रसूखदार लोग और सरकारें भी उनका इस्तेमाल अपनी धौंस जमाए रखने के लिए करते हैं। कई राजनीतिक दल भी ऐसे कानूनों के पक्ष में रहते हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि यदि आम लोगों को सोशल मीडिया के मंच पर अपनी बात रखने की आजादी मिल जाएगी तो इससे उनकी कथनी-करनी के फर्क को छिपाए रखना मुश्किल होगा और जनता को बरगलाने के काम में उन्हें मुश्किलें पेश आएंगी। विडंबना यह है कि हमारे देश में राजनेता और उनके दल किसी भी कानून और उसके फायदे-नुकसान को व्यापक हित-अहित के नजरिये से न देखकर निजी लाभ-हानि के पैमाने से देखते हैं!

नि:संदेह सोशल मीडिया पर कहे-सुने की संजीदगी को तय करने वाले मानक हमारे देश में अभी शुरुआती हैं। जनता और सरकार-प्रशासन, सभी इसके इस्तेमाल को लेकर दुविधा में हैं। धीरे-धीरे जब इसमें परिपक्वता आएगी और जनता के साथ हमारे राजनेता भी कटाक्ष, स्वस्थ आलोचना और मानहानि आदि पहलुओं को समझना शुरू करेंगे तो संवाद का यह आधुनिक मंच (सोशल मीडिया) अपने सही स्वरूप में सामने आ सकेगा। इसलिए स्वस्थ असहमतियों को व्यक्त करने की जो आजादी फिलहाल हासिल है, कोशिश हो कि वह कायम रहे और लोग उसका सजग व सतर्क इस्तेमाल करें। यह भी ध्यान रखना होगा कि जिस आइटी एक्ट 66ए को सुप्रीम कोर्ट असंवैधानिक करार दे चुका है, उसके प्रावधानों को सीधे या पिछले दरवाजे से वापस लाना गलत होगा। अच्छा होगा कि इसके बारे में कोई कदम उठाने से पहले जनता की राय ली जाए।

(लेखक एफआइएस ग्लोबल से संबद्ध हैं)


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