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ये है सरदार सरोवर बांध की 56 साल की अद्भुत विकास यात्रा

इस बांध की वजह से देश को बिजली मिलेगी। मध्य प्रदेश, गुजरात और राजस्थान को सिंचाई के लिए पानी मिलेगा। बांध का विरोध उचित नहीं है

By Digpal SinghEdited By: Published: Wed, 27 Sep 2017 10:00 AM (IST)Updated: Wed, 27 Sep 2017 12:04 PM (IST)
ये है सरदार सरोवर बांध की 56 साल की अद्भुत विकास यात्रा
ये है सरदार सरोवर बांध की 56 साल की अद्भुत विकास यात्रा

अवधेश कुमार

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सरदार सरोवर बांध का नाम सुनते ही 1990 का दशक याद आता है। उस समय इसे लेकर देशभर में सामाजिक कार्यकर्ताओं ने संघर्ष खड़ा कर दिया था। नर्मदा बचाओ आंदोलन इस बांध परियोजना के विरोध में ही पैदा हुआ था। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपने 67वें जन्म दिवस पर नर्मदा जिले के केवड़िया स्थित सरदार सरोवर नर्मदा बांध का लोकार्पण किया तो वे सारी यादें ताजा हो गईं। वास्तव में विरोध का इतना प्रभाव हुआ कि मामला इसके लिए धन देने वाले विश्व बैंक तक गया और 1993 में उसने इसका धन रोक दिया। 1995 में विश्व बैंक ने भी मान लिया कि इस परियोजना में पर्यावरण का ध्यान नहीं रखा गया है। मामला न्यायालय तक भी गया।

अक्टूबर, 2000 में उच्चतम न्यायालय की हरी झंडी के बाद सरदार सरोवर बांध का रुका हुआ काम एक बार फिर से शुरू हुआ। यानी इसे रोकने की जितनी कोशिश संभव थी, की गई। बावजूद इसके यह अपने पूर्व योजना के अनुरूप पूरा हुआ है तो इसे सामान्य नहीं माना जा सकता है। हालांकि इसका शिलान्यास 15 अप्रैल 1961 को हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने किया था। वे नए बांधों को आधुनिक युग का मंदिर कहते थे। भाखड़ा बांध को उन्होंने अपने जीवन में ही साकार कर दिया। गुजरात, महाराष्ट्र के जल संकट को देखते हुए सरदार वल्लभभाई पटेल ने इसका सपना 1946 में देखा था। मुंबई के इंजीनियर जमदेशजी वाच्छा ने इसकी पूरी योजना बनाई।

जिस योजना के पीछे ऐसे महान लोगों का सपना रहा हो, वह जनता और देश के लिए अहितकर हो सकता है, इसकी कल्पना तक करनी कठिन है। हालांकि नदियों पर बड़े बांधों को लेकर दुनिया में दो राय रहे हैं। एक इसे भविष्य के लिए खतरनाक मानते हैं। नदियों के बहाव में अविरलता के प्रभावित होने तथा उसके जल के अपवित्र होने की बात की जाती है तथा भविष्य में भूकंप से लेकर भयावह बाढ़ों तक की आशंकाएं व्यक्त की जाती हैं। किंतु इसका दूसरा पक्ष भी है। वह यह है कि आप करोड़ों लोगों को पानी के लिए छटपटाते देखते रहेंगे, लोगों को पीने के लिए कई-कई किलोमीटर से पानी लाने के लिए मजबूर होते देखते रहेंगे। जाहिर है, आम आदमी इसमें दूसरे विकल्प का समर्थन करेगा। 

महाराष्ट्र से लेकर राजस्थान तक पानी का संकट देखा जा सकता है। गुजरात भी पहले ऐसे ही संकट से जूझता था। मगर उसे काफी हद तक दूर किया गया। इस बांध से मध्य प्रदेश सहित इन राज्यों का जल संकट काफी हद तक दूर होगा। लाखों हेक्टेयर जमीन की सिंचाई होगी। बांध का मौजूदा जल स्तर 128.44 मीटर है। इससे 6000 मेगावॉट बिजली पैदा होगी। वैसे इस बांध का भी सबसे ज्यादा लाभ गुजरात को मिलेगा। इससे यहां के 15 जिलों के 3,137 गांव की 18.45 लाख हेक्टेयर जमीन की सिंचाई की जा सकेगी। किंतु महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश एवं राजस्थान भी इससे काफी हद तक लाभान्वित होंगे। बिजली का सबसे अधिक 57 प्रतिशत हिस्सा मध्य प्रदेश को मिलेगा। महाराष्ट्र को 27 और गुजरात को 16 प्रतिशत बिजली मिलेगी। राजस्थान को सिर्फ पानी मिलेगा।

यह बांध हमारे पूर्वजों की महान कल्पना और इंजीनियरों की श्रेष्ठतम कुशलता का नमूना है। वस्तुत: यह भारत की सबसे बड़ी जल संसाधन परियोजना बन गई है। इसमें 4.73 मिलियन क्यूबिक पानी जमा करने की क्षमता है। इतना ही नहीं यह भारत का तीसरा सबसे ऊंचा बांध भी है। इस बांध के 30 दरवाजे हैं। हर दरवाजे का वजन 450 टन है। इसको बंद करने में लगभग एक घंटे का समय लगता है। इस बांध को बनाने में 86.20 लाख क्यूबिक मीटर कंक्रीट लगा है। कंक्रीट के इस्तेमाल के लिहाज से यह दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा बांध है। अमेरिका का ग्रांट कुली पहले स्थान पर आता है। वास्तव में, यह बांध बेहतरीन इंजीनियरिंग का नमूना है। 1.2 किमी लंबा ये बांध अब तक 4141 करोड़ यूनिट बिजली का उत्पादन अपने दो बिजलीघरों से कर चुका है। सरकार के मुताबिक इस बांध ने 16 हजार करोड़ रुपये कमा भी लिए हैं। इस बांध से 6000 मेगावॉट बिजली पैदा होगी। जिन लोगों ने इसका निर्माण होते नहीं देखा है या जो वहां तक नहीं गए हैं वे आसानी से समझ सकते हैं कि इसमें कितनी बुद्धि लगी होगी, कितने संसाधन खर्च हुए होंगे।

आंदोलनों के कारण इसका काम बाधित होता गया और इसका खर्च भी बढ़ता गया। लंबे अंतराल के बाद 1986-87 में जब राजीव गांधी प्रधानमंत्री थे, इसे हर हाल में मूर्त रूप देने का निर्णय किया गया। उस समय इसकी लागत आंकी गई थी, 6400 करोड़ रुपया। किंतु समय के साथ इसकी लागत बढ़ती गई और यह पूरा होते-होते 65 हजार करोड़ रुपये तक पहुंच गया। अगर समय पर काम शुरू होकर पूरा हुआ होता तो यह काफी कम खर्च में पूरा हो जाता। बांध की उंचाई को लेकर भी लंबी लड़ाई हुई। इसकी आरंभिक 122 मीटर उंचाई को सिंचाई, बिजली एवं पेयजल उपलब्ध कराने के लक्ष्य के अनुरूप नहीं माना गया। इसके लिए मोदी जब मुख्यमंत्री थे लगातार केंद्र से ऊंचाई बढ़ाने की मांग करते रहे। 17 जून 2017 को एनसीए ने बांध की ऊंचाई बढ़ाने की अनुमति दे दी। इसके अनुसार बांध पर 16 मीटर ऊंचे दरवाजे लगाकर इसकी ऊंचाई को 138.68 मीटर करना है। माना गया कि इसकी संग्रह क्षमता 1,565 मीलियन क्यूबिक मीटर (एमसीएम) से बढ़कर 5,740 एमसीएम हो जाएगी। केवल ऊंचाई बढ़ाने से जहां आठ लाख हेक्टेयर भूमि को सिंचाई के लिए जल उपलब्ध कराने में मदद मिलेगी, वहीं एक लाख लोगों को पीने का पानी भी उपलब्ध कराया जा सकेगा। बांध की क्षमता बढ़ने से 150 मेगावाट अधिक पनबिजली तैयार हो सकेगी।

किंतु, परियोजना से प्रभावित लोगों के पुनर्वास की लड़ाई लड़ रहे लोगों ने एनसीए के कदम को गैरकानूनी करार दिया। मेधा पाटेकर ने कहा कि यह फैसला अलोकतांत्रिक है, क्योंकि सरकार ने इस तथ्य पर गौर नहीं किया कि उस इलाके में रह रहे 2.5 लाख लोग बांध की ऊंचाई बढ़ाने से पूरी तरह जलमग्न हो जाएंगे। सरकार का कहना था और आज भी उसका यही मत है कि नर्मदा नियंत्रण प्राधिकार ने पुनर्वास के वे सभी काम कर दिए हैं।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)


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