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तीन तलाक: कांग्रेस की 32 साल पुरानी भूल को भाजपा ने किया ओवर-रूल

तीन तलाक पर लोकसभा ने गुरुवार को बहुमत से बिल पारित कर दिया। कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने इसे ऐतिहासिक बताया।

By Lalit RaiEdited By: Published: Fri, 29 Dec 2017 05:42 PM (IST)Updated: Fri, 29 Dec 2017 06:13 PM (IST)
तीन तलाक: कांग्रेस की 32 साल पुरानी भूल को भाजपा ने किया ओवर-रूल
तीन तलाक: कांग्रेस की 32 साल पुरानी भूल को भाजपा ने किया ओवर-रूल

नई दिल्ली [ स्पेशल डेस्क ] । लोकसभा में तीन तलाक पर बिल पेश करते हुए कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद ने कहा कि ये एक ऐतिहासिक कदम है। इस बिल को किसी मजहब के खिलाफ नहीं माना जाना चाहिए। ये बिल उन पीड़ित महिलाओं को संरक्षण देगी जो वर्षों तक तलाक-ए-बिद्दत यानि एक ही बार में तीन तलाक की शिकार थीं। कानून मंत्री के इस संबोधन के बाद चर्चा में शामिल सांसदों के सुर अलग थे। एआइएमआइएम नेता असदुद्दीन ओवैसी ने इस बिल को खामियों से भरा बताया तो बीजू जनता दल के सांसद भर्तृहरि महताब ने इस बिल को उत्पीड़क बताते हुए कहा कि इसका बेजा दुरुपयोग होगा। लेकिन कांग्रेस की तरफ से जो प्रतिक्रिया आई उसमें विरोध-सहमति के दोनों बोल थे।

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लोकसभा में एक झटके में दिए जाने वाले तीन तलाक के खिलाफ प्रस्तावित कानून से संबंधित विधेयक पर बहस के दौरान विपक्षी दलों ने अपने रवैये से न केवल सत्तापक्ष, बल्कि आम लोगों को भी हैरान किया। कांग्रेस, वामदलों के साथ सपा, बीजद, अन्नाद्रमुक और राजद के सांसदों ने इस प्रस्तावित कानून के खिलाफ तरह-तरह की दलीलें पेश कीं, लेकिन जब संशोधन प्रस्तावों पर वोटिंग की नौबत आई तो वे विरोध दर्ज कराने से कन्नी काट गए। यही कारण रहा कि एआइएमआइएम के असदुद्दीन ओवैसी और माकपा के ए संपत के संशोधन प्रस्ताव के पक्ष में मुश्किल से दो-चार वोट ही पड़े। ओवैसी के एक संशोधन प्रस्ताव के पक्ष में तो सिर्फ एक वोट पड़ा यानी केवल उनका अपना वोट। सपा, राजद के साथ मुस्लिम लीग के सांसद ने भी उनका साथ देना जरूरी नहीं समझा। यह भी उल्लेखनीय है कि संशोधन प्रस्ताव कई सांसदों ने पेश किए, लेकिन मत विभाजन की मांग केवल संपत और औवैसी ने ही की। सबसे हैरानी भरा रवैया तृणमूल कांग्रेस के सांसदों का रहा। वे इस बिल पर कुछ बोले ही नहीं।

बताया जा रहा है कि ममता बनर्जी ने इस तथ्य से अवगत होने के बाद लोकसभा में अपने सांसदों को चुप रहने का निर्देश दिया कि अधिकांश मुस्लिम महिलाएं इस कानून के पक्ष में हैं। इसी तथ्य के चलते कांग्रेस ने भी इस कानून के कुछ प्रावधानों पर दिखावटी विरोध दर्ज कराने में ही अपनी भलाई समझी। माना जा रहा कि सपा और राजद ने भी इसी कारण इस कानून का विरोध करने में एक सीमा तक ही उत्साह दिखाया। दरअसल ये सभी दल इससे आशंकित थे कि अगर वे इस बिल के विरोध में खड़े होते तो जहां मुस्लिम महिलाओं की नजर में खलनायक बनते वहीं हिंदू समाज की नजर में कट्टरपंथी मुसलमानों का साथ देते दिखते। 

विरोध-समर्थन के दोनों बोल

कांग्रेस के कद्दावर नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि इसमें शक नहीं कि मुस्लिम महिलाओं को तलाक के खिलाफ संरक्षण मिलना चाहिए। लेकिन जिस तरह एक बार में तीन तलाक को अपराध की श्रेणी में डाला जा रहा है, वो तमाम लोगों के नैसर्गिक अधिकार पर हमला करेगा। कांग्रेस का यह तर्क बिल पर मतदान से पहले था। लेकिन लोकसभा में मतदान का नजारा अलग था। तलाक-ए बिद्दत के खिलाफ को लोकसभा ने बहुमत के साथ पारित कर दिया। अब ऐसे में सवाल है कि कांग्रेस के विरोध के सुर बनावटी थे या उनके रणनीतिकार इस हकीकत को समझते हैं कि अब जमाना बदल चुका है। 2017 में कांग्रेस उस तरह का कदम नहीं उठा सकती है जो 1986 में शाहबानो मामले में की थी। आइए सबसे पहले आप को बताते हैं कि शाहबानो मामला और कांग्रेस का प्रभाव संसद में कितना था।


शाहबानो और कांग्रेस की राजनीति

1985 में सुप्रीम कोर्ट ने शाहबानो की याचिका पर ऐतिहासिक फैसला दिया। कोर्ट ने आदेश दिया कि अगर कोई मुस्लिम पुरुष अपनी पत्नी को तलाक देगा तो उसे गुजारा भत्ता देना होगा। कोर्ट के इस फैसले का कई मुस्लिम संगठनों ने जबरदस्त अंदाज में विरोध किया। मुस्लिम संगठनों के दबाव में राजीव गांधी सरकार ने 1986 में फैसला बदला जिसमें मुस्लिम पुरुषों को गुजारा भत्ता न देने पर मुहर लग गई। राजनीतिक रूप से भाजपा ने जमकर विरोध करते हुए राजीव गांधी के फैसले को मुस्लिम तुष्टीकरण करारा दिया। कांग्रेस के रणनीतिकारों ने भाजपा के विरोध को कुंद करने के साथ साथ हिंदू समुदाय को खुश करने के लिए अयोध्या में विवादित ढांचे का ताला खुलवाया। ये बात अलग है कि बोफोर्स का मामला इस कदर भारतीय जनमानस में पैंठ बना लिया कि राजीव गांधी सरकार को 1989 के आम चुनाव में मुंह की खानी पड़ी।

1985 से 2017 और कांग्रेस
1985 से लेकर आज तक गंगा में न जाने कितना पानी बह चुका है। देश की सत्ता पर काबिज होने के लिए कांग्रेस की तरफ से तमाम तरह की रणनीति पर काम किया गया जिसमें यूपीए-1 सरकार द्वारा  मनरेगा जैसी स्कीम लाई गई जिसका फायदा 2009 में कांग्रेस को मिला भी लेकिन यूपीए-2 के कार्यकाल में भ्रष्टाचार का मामला इस कदर हावी रहा कि 2014 में कांग्रेस को बुरी तरह चुनाव हार गई।

2014 के आम चुनाव में मिली करारी हार के बाद कांग्रेस के चिंतन शिविर मे जो मंथन हुआ उसका नतीजा ये आया कि देश की बहुसंख्यक आबादी को लगने लगा था कि कांग्रेस कहीं न कहीं उनका ध्यान नहीं दे रही है। ठीक उसी समय मोदी सरकार ने साफ कर दिया कि उनकी मंशा है कि मुस्लिम समुदाय की बहनों को उस पीड़ा ( तीन तलाक) से आजादी दिलाई जाए जिसकी वजह से उनकी जिंदगी बर्बादी के मुहाने पर खड़ी है। तीन तलाक का मुद्दा सुप्रीम कोर्ट में पहुंचा और फैसला ऐतिहासिक आया। अदालत की बेंच ने कहा कि महिलाओं के लिए तीन तलाक का मुद्दा पीड़ादायक है और उसके खिलाफ रोक होनी चाहिए। सुप्रीम कोर्ट की मंशा के अनुरूप केंद्र सरकार ने फैसला किया कि वो इस मुद्दे पर बिल लाएगी जिससे मुस्लिम समुदाय की बहनों को सम्मान के साथ जीने का मौका मिले।


यहां पर इस बात का भी जिक्र करना जरूरी है कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले कांग्रेस के तत्कालीन उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने स्वागत किया और उन मुस्लिम महिलाओं का बधाई दी जिन्होंने तलाक-ए-बिद्दत के खिलाफ आवाज उठाई। इस पृष्ठभुमि में कांग्रेस का विरोध करना उनके स्टैंड के खिलाफ होता। इसके साथ ही 1985 से अबतक जमाना बदल चुका है। आज से करीब 32 साल पहले मुस्लिम समाज की महिलाएं सामान्य तौर पर अपने असंतोष को सार्वजनिक तौर पर जाहिर नहीं कर पाती थीं। लेकिन 21वीं सदी में शायरा बानो, इशरत जहां, जाकिया सोमन, आफरीन रहमान और गुलशन परवीन उन शख्सियत के तौर पर उभरीं जिनके चेहरों पर करीब आठ करोड़ महिलाओं का दर्द झलक रहा था। कांग्रेस इस तथ्य को कैसे नकार सकती थी। कांग्रेस ने इस बिल का समर्थन करके एक तरह से 32 साल पुरानी अपनी भूल सुधारी, लेकिन वह ऐसा कहने का साहस नहीं जुटा सकी कि 1986 में शाहबानो मामले में उससे गलती हुई थी।
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