परिनिर्वाण दिवस: बाबा साहब ने कर दिखाया असंभव को संभव
बाबा साहब डॉ. भीमराव अंबडेकर के चलते ही दलित समाज को भारत में सम्मान के साथ जीने का अधिकार मिल सका वरना पहले उनके साथ अमानवीय व्यवहार ही किया जाता था।
नई दिल्ली [एच एल दुसाध]। आज 6 दिसंबर है। 1956 में इसी दिन समय ठहर सा गया था, जब सदियों से कमजोर रहे समाज के अधिकारों के लिए संघर्ष करने वाले बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर ने अंतिम सांस ली थी। इस समय उनके परिनिर्वाण के बाद असंख्य शोकसभाएं आयोजित हुई थीं। तब उनमें देश और विशेषकर दलितों के लिए की गई उनकी सेवाओं को याद करते हुए उनके उस श्रेष्ठ मिशन को पूरा करने का संकल्प लिया था, जिसके लिए वह आजीवन संघर्ष करते रहे। बाबा साहब के अवदानों से जन्मगत शोषण का शिकार बनी पूरी दुनिया की आबादी ही उपकृत हुई है, लेकिन दलितों के लिए उनका अवदान मानव जाति के इतिहास की महानतम घटना है। क्यों और कैसे, इसे जानने के लिए दलित समुदाय के दर्दनाक इतिहास पर एक नजर डालनी होगी।
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों की तरह ही दलित, जिन्हें भारत में सामाजिक क्रांति के प्रणोता ज्योतिबा फुले अतिशूद्र कहा करते थे एवं संविधान में अनुसूचित जाति के रूप चिन्हित किया गया है, हिंदू-धर्म की वर्ण-व्यवस्था की उपज हैं। इसमें दलितों के लिए अध्ययन-अध्यापन, शासन-प्रशासन, भूस्वामित्व, व्यवसाय और आध्यात्मानुशीलन इत्यादि का कोई अधिकार नहीं रहा। हिंदू समाज द्वारा अस्पृश्य, बहिष्कृत दलितों को अच्छा नाम रखने या देवालयों में पूजा करने तक से वंचित रखा गया। विगत साढ़े तीन हजार वर्षो में बौद्ध काल को छोड़कर दलितों के लिए शिक्षक, पुरोहित, भू-स्वामी, राजा, व्यवसायी इत्यादि बनने के सारे रास्ते पूरी तरह बंद रहे।
भारत में वर्ण-व्यवस्था को सर्वप्रथम चुनौती गौतम बुद्ध की तरफ से मिली। उनके प्रयासों से वर्ण-व्यवस्था में शिथिलता आई। यानी शक्ति के जिन स्नोतों से दलितों को वंचित किया गया था, उनमें उन्हें अवसर मिलने लगा। मगर यह स्थिति चिरस्थाई न बन सकी। अंतिम बौद्ध सम्राट बृहद्रथ की पुष्यमित्र शुंग द्वारा हत्या के बाद के वर्ण-व्यवस्था नए सिरे से मजबूत हो गई। इसकी वजह से दलितों को आगामी दो हजार सालों तक उत्पादन के साधनों और शक्ति के स्नोतों से पूरी तरह बहिष्कृत कर दिया गया। पुष्यमित्र शुंग द्वारा प्राचीन काल में हिंदूराज की स्थापना किए जाने के बाद वर्ण/जाति व्यवस्था में मानवेतर बने दलितों को थोड़ी राहत मध्यकाल में ही मिल पाई। उक्त काल में सवर्णो और शूद्र व अति शूद्रों में कई ऐसे संतों का उदय हुआ जिन्होंने अपनी भक्तिमूलक रचनाओं के जरिए जातिभेद का विरोध किया।
इनमें उत्तर भारत में रामानंद, रैदास, कबीर, नानकदेव; पूर्व में चैतन्य और चंडीदास; पश्चिम में चोखामेला, नामदेव, तुकाराम और दक्षिण में निबारका और बसव का नाम प्रमुख है, लेकिन इन संतों के प्रयासों से दलितों को भावनात्मक रूप से राहत भले ही मिली, शक्ति के स्नोतों में कोई हिस्सेदारी नहीं मिली। इन संतों के प्रयासों पर निराशा व्यक्त करते हुए डॉ. अंबेडकर ने ठीक ही लिखा है-‘किसी भी संत ने जाति-प्रथा पर चोट नहीं की, बल्कि इसके विपरीत वे जाति-प्रथा में विश्वास रखते थे। उनमें से अधिकांश उसी जाति के सदस्य के रूप में मृत्यु को प्राप्त हुए जिसमें वे पैदा हुए। ज्ञानदेव को ब्राह्मणों ने बहिष्कृत कर दिया था, फिर भी उन्होंने अपने ब्राह्मणत्व को ब्राह्मण समाज द्वारा स्वीकार किए जाने के लिए जमीन-आसमान एक कर दिया।
संत एकनाथ ने अछूतों को छूने, उनके साथ भोजन करने का साहस इसलिए नहीं कर पाए क्योंकि वह जाति और अस्पृश्यता विरोधी थे, बल्कि एकनाथ भागवत (अध्याय 28) के अनुसार यह सोचकर साहस किया था कि इससे उन्हें जो पाप लगेगा, वह गंगा में स्नान करने से धुल जाएगा। संत मनुष्यों के आपसी संघर्ष के प्रति उदासीन रहे। उन्होंने यही उपदेश दिया कि ईश्वर की दृष्टि में सभी मनुष्य समान हैं। यह एक बेमानी कथन है। उन्होंने मानव समानता के उपदेश नहीं दिए। इसके विपरीत उन्होंने शास्त्रों में विश्वास करना सिखाया।’ अंग्रेजों की वजह से 19वीं सदी के अंत में भारत में भी नवजागरण की शुरुआत हुई। मगर इस दौरान महान कहे जाने वाले सामाजिक कार्यकर्ता ‘अछूत-प्रथा ‘ पर लगभग चुप रहे। अस्पृश्यता के खिलाफ सीधा संघर्ष फुले ने ही शुरू किया। उन्होंने जहां अपनी पत्नी सावित्री बाई फुले के साथ मिलकर दलितों को शिक्षित करने का कार्य किया, वही सत्यशोधक समाज के माध्यम से उन्हें अंधविश्वास से मुक्त कराने में ऐतिहासिक योगदान दिया।
उनके अतिरिक्त नारायण गुरु, अयांकाली, संत गाडगे, सयाजी राव गायकवाड, शाहूजी महाराज, पेरियार जैसे और कई लोगों ने दलितों की दशा में बदलाव लाने का अहम कार्य किया। मगर इनके प्रयासों के बावजूद अस्पृश्यों की स्थित यथावत बनी रही। उन्हें सवर्णो को अपनी छाया के स्पर्श तक से बचाते हुए गांव से अलग-थलग रहना पड़ता था। वे न तो धन-संपत्ति का संचय कर सकते थे और न ही अच्छे वस्त्र धारण कर सकते थे। हिंदुओं के समक्ष खाट पर बैठने, दलित दूल्हे घोड़ी पर चढ़ने की हिमाकत नहीं कर सकते थे। मंदिरों में प्रवेश निषिद्ध था ही, शिक्षा का कागजों पर अधिकार होने के बावजूद व्यवहारिक जीवन में उसका उपयोग दु:साहस समझा जाता था। सरकारी नौकरियों और राजनीति में उनकी कोई भागीदारी नहीं थी। ऐसी विषम परिस्थितियों में डॉ. अंबेडकर का उदय हुआ।
अंबेडकर के समक्ष दलितों को वर्ण-व्यवस्था के उस अभिशाप से मुक्ति दिलाने की चुनौती थी जिसके तहत वे हजारों साल से शक्ति के सभी स्नोतों से वंचित थे। कहना न होगा अंबेडकर ने दलितों को शक्ति से लैस करने का असंभव काम कर दिखाया। यह उनके ऐतिहासिक प्रयासों का परिणाम है कि आज दलित शक्ति के सभी स्नोतों में तो नहीं, पर आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में अपनी कुछ उपस्थिति दर्ज कराने में सफल हुए हैं। बाबा साहब के प्रयासों से मानवता के इतिहास में कई सुनहरे अध्याय जुड़ने के बावजूद उनका मिशन तभी पूरा माना जाएगा जब दलितों सहित वर्ण-व्यवस्था के बाकी वंचित समुदायों को सरकारी और निजी क्षेत्र की सभी प्रकार की नौकरियों, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, पार्किग, परिवहन, फिल्म-मीडिया इत्यादि सहित शक्ति के समस्त स्नोतों में उनका लोकतांत्रिक अधिकार मिल जाए।
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के अध्यक्ष हैं)