Opinion: 'आप' तो ऐसे न थे, टूट रही 'विश्वास' की कड़ी
अन्ना आंदोलन से उपजी सहानुभूति की लहरों पर सवार आम आदमी पार्टी (आप) ने जिस वैकल्पिक राजनीति का बढ़-चढ़कर दावा पेश किया था, आज उसका शीजा बिखरता नजर आ रहा है।
मनोज झा। राजनीति में प्रचार, प्रपंच और प्रलाप की उम्र लंबी नहीं होती। जर्मनी में हिटलर के प्रचार मंत्री गोएबेल्स के तौर-तरीकों की पोल-पट्टी खुलने में भी ज्यादा वक्त जाया नहीं हुआ था। हां, इतना जरूर है कि इसके चलते जर्मनी को द्वितीय विश्वयुद्ध के दावानल में बुरी तरह झुलसना पड़ा। जर्मनी से दिल्ली की तुलना बेशक नहीं की जा सकती, लेकिन हैरतनाक यह है कि देश की राजधानी में इन दिनों सियासत का जिस तरह तिया-पाचा हो रहा है, वह भविष्य के लिए अच्छा नहीं है। अन्ना आंदोलन से उपजी सहानुभूति की लहरों पर सवार आम आदमी पार्टी (आप) ने जिस वैकल्पिक राजनीति का बढ़-चढ़कर दावा पेश किया था, आज उसका शीजा बिखरता नजर आ रहा है।
पार्टी की नींव रखते समय अरविंद केजरीवाल ने यह प्रलाप किया था कि लोग भाजपा और कांग्रेस के सियासी तरीकों से ऊब चुके हैं और कोई सक्षम विकल्प चाहते हैं। एक ऐसा विकल्प, जो भ्रष्टाचार, पूंजीवाद और वंशवाद जैसी विकृतियों से सर्वथा मुक्त हो। उन्होंने तब दावा किया था कि आप को वह ऐसा ही मजबूत विकल्प बनाएंगे। दुखद यह है कि महज पांच साल में ही यह विकल्प हीन होने लगा है, कसमे-वादे टूटने लगे हैं, कलई उतरने लगी है और आम आदमी की बात करते-करते यह नया विकल्प भी थैलीशाहों के हितों को साधता दिखाई देने लगा है।
कोई पार्टी चुनाव में किसे टिकट देती है और किसका काटती है, यह सब कुछ अब नेतृत्व या उसके इर्द-गिर्द मंडने वाली ताकतवर मंडली का फैसला होता है। वर्तमान में इन फैसलों में आदर्श और नैतिकता जैसे शब्दों की तलाश बेमानी है, लेकिन यदि नेता केजरीवाल हों और पार्टी आप हो तो फिर यह बात बेमानी कैसे मान लें। केजरीवाल ने तो सियासत का पू चेह और चोला बदलने का खम ठोका था। वह अंबानी-अडानी को कोसते थे और पूंजीपतियों के चंगुल में राजनीति के जकड़ने का प्रलाप करते थे। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि महीना भर पहले उनकी पार्टी के खिलाफ मोर्चाबंदी करने वाले विरोधी दल के एक नेता को उन्होंने राज्यसभा का प्रत्याशी घोषित कर दिया।
प्रथमदृष्टया यह कोई सवाल नहीं बनता कि आप ने कुमार विश्वास या आशुतोष जैसे खांटी नेताओं को दरकिनार कर आखिर सुशील गुप्ता या नायणदास गुप्ता जैसे उद्यमियों को प्रत्याशी क्यों बनाया, लेकिन यदि नेता केजरीवाल हों और पार्टी आप हो तो यह सवाल बनता है। स्थिति यह है कि आप नेतृत्व इन दोनों को प्रत्याशी बनाने के पीछे भले हजार गुण गिना रहा हो, लेकिन सियासतदां और आम लोग इसे सीधे टिकट बेचने का मामला बता रहे हैं। कभी केजरीवाल से तमाम उम्मीदें पालने वाले उनके संगी-साथी भी इसे सौदा बता रहे हैं। बाकी सोशल मीडिया पर आम लोग तो पता नहीं किन-किन शब्दों में सिर धुन रहे हैं।
बहरहाल, प्रत्याशी चयन आप का निजी मामला है, लेकिन आज पार्टी के समक्ष जिस तरह पहचान, प्रांसगिकता और उसके भविष्य की दिशा पर सवाल खड़े हो रहे हैं, वह समाज और सियासत के भरोसे के दरकने का एक नया अध्याय ही नजर आता है। केजरीवाल ने जिस जोश और एलान के साथ अपना सफर शुरू किया था, उसका इतनी जल्दी ठंडा पड़ जाना यह बताता है कि सियासत में कुर्सी पर बैठकर अधिनायकवादी प्रवृत्ति और लोभ-मोह का संवरण कोई हंसी खेल नहीं है। केजरीवाल के साथी आज एक-एक कर उनका साथ छोड़ रहे हैं। ये वे लोग हैं, जिन्होंने उनके तौर-तरीकों पर आवाज उठाने की जुर्रत की। कुमार विश्वास भी आज यह जुर्रत कर रहे हैं। शायद वह भी अपने हश्र को प्राप्त हों, लेकिन इतना तय है कि पार्टी के अंदर इन दिनों जिस तरह अविश्वास का माहौल खदबदा रहा है, वह आप के साथ-साथ केजरीवाल का भी तिलिस्म तोड़ सकता है।
दिक्कत यह है कि आज केजरीवाल की बातों और दावों पर खुद उनकी पार्टी के नेताओं, कार्यकर्ताओं व शुभचिंतकों को ही भरोसा नहीं रह गया है। क्या इसके जिम्मेदार खुद केजरीवाल हैं? गोएबेल्स का मानना था कि एक झूठ को सौ बार कहो तो वह सच लगने लगता है। मुश्किल यह है कि इन दिनों दिल्ली के सियासी गलियारे में सौ तो क्या, हजार बार कही गई बातों को भी संशय की नजर से देखा जा रहा है। दिल्ली का मन-मिजाज बदल रहा है, आप नेतृत्व को इस बदलाव को भांपने-समझने की जरूरत है।
लेखक दैनिक जागरण में वरिष्ठ पत्रकार हैं