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'महिला आरक्षण विधेयक पास कराने के लिए चाहिए मोदी जैसा संकल्प'

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इसी तरह महिला आरक्षण विधेयक को लेकर कृतसंकल्प बने रहें तो निश्चित तौर पर एक नई शुरुआत होगी और महिलाएं शासन में अहम भूमिका निभा पाएंगी

By Digpal SinghEdited By: Published: Wed, 27 Sep 2017 10:41 AM (IST)Updated: Wed, 27 Sep 2017 12:05 PM (IST)
'महिला आरक्षण विधेयक पास कराने के लिए चाहिए मोदी जैसा संकल्प'
'महिला आरक्षण विधेयक पास कराने के लिए चाहिए मोदी जैसा संकल्प'

कुलदीप नैयर

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दूसरी कई वजहों और खासकर पुरुष-सत्तावाद के चलते महिला आरक्षण विधेयक को संसद में पारित नहीं किया जा सका है। इसे पहली बार 1996 में लोकसभा में पेश किया गया था। उस समय देवेगौड़ा प्रधानमंत्री पद पर थे। 2010 में एक ऐतिहासिक कदम के जरिये कानून बनने के रास्ते में इसकी पहली बाधा दूर होने तक संसद की हर यात्रा में इस विधेयक को बाधा और ड्रामेबाजी का सामना करना पड़ा है। यह विधेयक लोकसभा और विधानसभाओं की 33 प्रतिशत सीटों पर महिलाओं को आरक्षण देने का प्रावधान करता है।

विधेयक के मसविदे के मुताबिक लॉटरी निकाल कर सीटों को बारी-बारी से इस तरह आरक्षित किया जाएगा कि कोई भी सीट लगातार आने वाले तीन आम चुनावों के दौरान सिर्फ एक बार आरक्षित हो। मसविदे के मुताबिक महिलाओं के लिए सीटों का आरक्षण संशोधन विधेयक लागू होने के 15 साल बाद खत्म हो जाएगा। वास्तव में, 108वां संशोधन विधेयक जो महिला आरक्षण विधेयक के नाम से लोकप्रिय है, ने पिछले सप्ताह 12 सितंबर को अपनी मौजूदगी के 21 साल पूरे किए। इतने सालों में इसे सिर्फ राज्यसभा की सहमति मिली है। पिछले दो दशकों में विधेयक ने संसद के दोनों सदनों में काफी नाटक देखा है।

इस नाटक का साफ उद्देश्य इस विधेयक को कानून बनने से रोकना रहा। कुछ सदस्यों ने विधेयक को पेश होने से रोकने के लिए राज्यसभा के तत्कालीन सभापति हमीद अंसारी पर शारीरिक रूप से हमले की कोशिश भी की। इसके पहले ऐसी ही कोशिश लोकसभा में भी देखने को मिली। विभिन्न सरकारें इस विधेयक को पारित कराने के लिए सदन में लाती रहीं, लेकिन उन्हें विफलता ही हाथ लगी, क्योंकि गुस्सा दिखाने की सांसदों की मानसिकता और उनका आपसी वाकयुद्ध आड़े आता रहा। यह वाकयुद्ध कभी-कभी छीना-झपटी में भी बदलता दिखा। इस सबके कारण ही विधानमंडलों में महिलाओं को अधिक प्रतिनिधित्व दिलाने की लड़ाई पर लगातार विराम लगता रहा। 

जब शुरुआत में विधेयक को सदन की स्वीकृति नहीं मिली तो उसे संयुक्त संसदीय समिति में भेज दिया गया। समिति ने जल्द ही अपनी रिपोर्ट दे दी और 1998 में अटल बिहारी वाजपेयी, जो पहली राजग सरकार के मुखिया थे, ने विधेयक को लोकसभा में फिर से पेश किया। कानून मंत्री थंबीदुरई ने विधेयक को पेश किया तो राष्ट्रीय जनता दल के एक सदस्य ने लोकसभा अध्यक्ष से इसे छीनकर टुकड़े-टुकड़े कर दिए। इसके बाद 1999, 2002 तथा 2003 में हर बार लोकसभा का सत्र खत्म होने के साथ ही विधेयक सदन के सामने से हट गया और इसे दोबारा पेश करना पड़ा।

दुर्भाग्य से, इन सालों में कई पुरुष सांसदों ने विधेयक के पारित होने का विरोध किया है जिस कारण यह मौजूदा स्थिति में ही पड़ा है। इसके बावजूद कि कांग्रेस, वामपंथी पार्टियां तथा भाजपा इसे खुला समर्थन व्यक्त करती रही हैं, लेकिन इसके बावजूद, यह लोकसभा में पारित नहीं हो पाई, बेशक, जैसा कि राजनीतिक जानकारों का अक्सर मानना है कि 1998 में वाजपेयी सरकार टिके रहने के लिए कई पार्टियों के समर्थन पर निर्भर थी और इसी वजह से वह जोर लगाने की स्थिति में नहीं थी। हालांकि 1999 के मध्यावधि चुनाव के बाद राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन 544 में से 303 सीटें लेकर बहुमत पा गया और वाजपेयी सत्ता में आ गए। इस बार वे ऐसी परिस्थिति में धकेल दिए गए थे कि उन्हें सभी पार्टियों को इकट्ठा रखना था, लेकिन कांग्रेस तथा वामपंथी पार्टियों के समर्थन से सदन में इसे पारित कराया जा सकता था, अगर विधेयक पर औपचारिक रूप से वोट कराया जाता, लेकिन ऐसा नहीं होना था।

2004 के लोकसभा चुनावों के ठीक पहले, वाजपेयी ने कांग्रेस पर विधेयक को रोकने का आरोप लगाया और कहा कि अगर चुनावों में भाजपा तथा उसकी सहयोगी पार्टियों को जनमत मिल गया तो वे इसे पारित कर देंगी। 2004 में, संप्रग सरकार ने इस साझा न्यूनतम कार्यक्रम में शामिल कर लिया, जिसमें कहा गया, विधान सभाओं तथा लोकसभा में औरतों को एक तिहाई आरक्षण देने के लिए विधेयक पेश करने में संप्रग सरकार अगुआई करेगी। 2005 में, भाजपा ने विधेयक को पूर्ण समर्थन देने की घोषणा की। 2008 में, मनमोहन सिंह सरकार ने राज्यसभा में विधेयक पेश किया। दो साल बाद, 9 मार्च 2010 को उस समय एक बड़ी राजनीतिक बाधा दूर हो गई, जब काफी नाटक और सदस्यों के बीच झगड़े के बावजूद सदन ने इसे पारित कर दिया। भाजपा, वामपंथी पार्टियां और कुछ अन्य पार्टियां ऊपरी सदन में विधेयक को पास करने के लिए सत्ताधारी कांग्रेस के साथ आ गई।

उस क्षण के सात साल बीत गए जब तीन प्रमुख राजनीतिक पार्टियों की शीर्ष महिला नेताओं-सोनिया गांधी, सुषमा स्वराज तथा वृंदा करात ने इस ऐतिहासिक क्षण पर स्वत: स्फूर्त जश्न मनाने के लिए एक-दूसरे के हाथ में हाथ डालकर मीडिया फोटोग्राफरों को एक दुर्लभ अवसर प्रदान किया, लेकिन, 2017 में, यह अभी तक अस्तित्व में नहीं आ पाया है, सिर्फ इसलिए कि इसे कानून बनाने के लिए नीचे के सदन में राजनीतिक इच्छा शक्ति नहीं है। संप्रग-दो सरकार लोकसभा में 262 सीटों के बावजूद इसे संभव नहीं कर पाई और उसने गठबंधन में होने का वही बहाना बनाया। सौभाग्य से, भाजपा के पास यह लाचारी नहीं है। पार्टी के पास विधेयक पारित करने की ताकत है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी संकल्प कर रखा है कि विधेयक उनके पास पहुंचे, लेकिन अगर विधेयक कानून बना जाता है तो मुझे अचरज ही होगा। किसी भी पार्टी के पुरुष सांसद औरतों के साथ सत्ता साझा नहीं करना चाहते हैं। जब वे घर में ही उनके साथ सम्मानजनक व्यवहार नहीं करते तो वे यही मानते हैं कि औरतों को एक सीमा से ज्यादा ताकत नहीं मिलनी चाहिए।

मेरी एक ही उम्मीद है कि विधेयक को संसद में पास कराने के लिए मोदी वैसा ही संकल्पवान बने रहेंगे जैसा वह आज हैं। कुछ लोग कहते हैं कि यह कदम 2019 के आम चुनावों में सिर्फ महिलाओं को वोट लेने के लिए है। कोई भी कारण हो, अगर लोकसभा में वे पर्याप्त संख्या में होती हैं तो वे भारत के प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका निभा पाएंगी।

(लेखक जाने माने स्तंभकार हैं)


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