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'कृष्णा दौर' में कृष्ण बने रहना आसान नहीं, सियासत के फ्रेम में आडवाणी की तस्वीर

2009 के बाद भारतीय राजनीति को देखने वालों से निवेदन है कि विचार-आदर्श के लिए समर्पित इस महानतम नेता (लालकृष्ण आडवाणी) का चित्र मजाकिया मत बनाइए।

By Lalit RaiEdited By: Published: Sat, 22 Jul 2017 12:53 PM (IST)Updated: Sat, 22 Jul 2017 04:57 PM (IST)
'कृष्णा दौर' में कृष्ण बने रहना आसान नहीं, सियासत के फ्रेम में आडवाणी की तस्वीर
'कृष्णा दौर' में कृष्ण बने रहना आसान नहीं, सियासत के फ्रेम में आडवाणी की तस्वीर

हर्षवर्धन त्रिपाठी

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रामनाथ कोविंद देश के 14वें राष्ट्रपति हो गए। आज ‘राम’नाथ की ही चर्चा का समय है, लेकिन इस समय मैं ‘कृष्ण’ की बात कर रहा हूं। हालांकि कृष्ण भगवान की चर्चा मैं कतई नहीं करने जा रहा हूं कि कैसे कृष्ण इस्कॉन और अग्रेजों की संगत में पहुंचकर कृष्णा हो गए हैं। भारत में अभी हाल तक बहुतायत नाम में राम और कृष्ण जरूर लगता था। हालांकि, अब शायद ही कोई बच्चों का नाम राम, कृष्ण के नाम पर रखता हो, लेकिन भाजपा के दिग्गज नेता, बुनियाद की सबसे मजबूत ईंटों में से एक लालकृष्ण आडवाणी की पैदाइश उसी दौर की है, जब राम, कृष्ण लगभग हिंदुस्तानी के नाम में लगा रहता था। संयोगवश हमारे पिताजी का नाम भी कृष्ण चन्द्र है। खैर, इस संयोग का अभी मेरे लिखने से कोई वास्ता नहीं है, सिवाय इसके कि उस दौर की पैदाइश वाले तो लगभग सारे ही लोगों के नाम राम, कृष्ण के नाम पर ही होते थे। आज लालकृष्ण आडवाणी की कुछ तस्वीरें भेजी, देखी जा रही हैं, जिसे लेकर सोशल मीडिया में खूब मजाक चल रहा है।

ताजा तस्वीर है राष्ट्रपति चुनाव में मत डालते लालकृष्ण आडवाणी की। इस तस्वीर को लेकर सोशल मीडिया में चुटकुला चल रहा है कि अपनी गर्लफ्रेंड की शादी में 101 रुपये का लिफाफा देते लालकृष्ण आडवाणी। एक और तस्वीर है, जिसमें लालकृष्ण आडवाणी और फारुख अब्दुल्ला का हाथ पकड़े सुषमा स्वराज संसद के गलियारे में दिख रही हैं। ज्यादातर अखबारों ने भी इन दोनों तस्वीरों को छापा है। चूंकि, लालकृष्ण आडवाणी और सुषमा स्वराज दोनों ही राष्ट्रपति और उप राष्ट्रपति के दावेदार दिख रहे थे। और फारुख अब्दुल्ला भी विपक्ष के उम्मीदवार हो सकते थे। इसलिए संसद गलियारे में तीनों की एक साथ मिली तस्वीर सोशल मीडिया में चुटकी लेने की पक्की वजह देती है। 2009 के आसपास से भारतीय जनता पार्टी से जुड़े कार्यकर्ताओं को तो लालकृष्ण आडवाणी वैसे ही एक सत्तालोलुप नेता की तरह दिखते हैं।

उन कार्यकर्ताओं के पास एक पक्का तर्क भी मौजूद है कि आखिर 2009 में तो पार्टी ने आडवाणी को ही चेहरा बनाया था। और वो मनमोहन सिंह से हार गए। मनमोहन सिंह जैसी गैरराजनीतिक शख्सियत के सामने सीधी लड़ाई में हारने से लालकृष्ण आडवाणी के राजनीतिक कद का कितना क्षरण हुआ, इस पर एक स्वतंत्र शोध होने की जरूरत है, लेकिन इस क्षरण का खतरा खुद आडवाणी का तैयार किया हुआ था। उन्होंने मनमोहन को आमने सामने बहस की चुनौती दे दी थी। लालकृष्ण आडवाणी उस समय अमेरिकी राष्ट्रपति शैली में भारतीय प्रधानमंत्री का चुनाव कराने के पक्षधर हो चले थे। 2004 का चुनाव हारने से भाजपा कार्यकर्ताओं के मनोबल में कोई कमी नहीं आई थी, लेकिन 2009 में अपने सबसे मजबूत नेता का ऐसे गैरराजनीतिक और कमजोर माने जाने वाले मनमोहन सिंह के सामन हारने से भाजपा कार्यकर्ताओं का मनोबल टूटा। वह मनोबल इस कदर टूटा कि फिर आडवाणी से लेकर देश के किसी भाजपा नेता में उनका भरोसा नहीं बन पा रहा था।

गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर अकेले नरेंद्र मोदी ही थे जो, भाजपा कार्यकर्ताओं के लिए उम्मीद की आखिरी किरण थे। इसलिए जब 2013 की सितंबर में नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनावों के लिए उम्मीदवार बने, तो कार्यकर्ताओं को लगा कि संजीवनी मिल गई। हालांकि, उस समय आडवाणी ने उसका जमकर विरोध किया। इतना कि लगा पार्टी दोफाड़ हो जाएगी, लेकिन अब ये बात अच्छे से समझी जा सकती है कि आडवाणी कभी भाजपा को दो हिस्से में करने के बारे में सोच भी नहीं सकते।

भारतीय राजनीति में सफलता के चरण पर स्थापित हो चुकी आज की मोदी-शाह वाली भाजपा में आडवाणी का चित्र एक सत्तालोलुप नेता या फिर सहानुभूति वाले नेता के तौर पर ही बनता है, लेकिन बस 2009 से पहले की भारतीय राजनीति, उस समय की भारतीय जनता पार्टी और उसमें लालकृष्ण आडवाणी के बारे में पता करने पर चित्र बदल जाता है। तब आडवाणी का चित्र भारतीय राजनीति के उस महान नेता के तौर पर बनता है, जिसने अटल बिहारी वाजपेयी के साथ मिलकर श्यामा प्रसाद मुखर्जी और दीनदयाल उपाध्याय की कांग्रेस के विकल्प पर रखी गई बुनियाद पर शानदार इमारत तैयार की। वह नेता जिसने इस देश में राष्ट्रीयता, धर्म को परदे के पीछे की राजनीति से पारदर्शी तरीके से करना शुरू किया।


लालकृष्ण आडवाणी को उस नेता के तौर पर याद किया जाना चाहिए, जिसने आगे बढ़कर अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री की कुर्सी सौंपी। अगर आडवाणी को सत्ता का ऐसा मोह रहा होता, तो उस समय आडवाणी भाजपा के सबसे ताकतवर नेता था। दिल्ली से लेकर हर राज्य तक उन्हीं की तैयार की पौध, पेड़ बन चुकी थी। उसी समय आडवाणी ने पार्टी तोड़ दी होती, लेकिन आडवाणी अपने राजनीतिक विचार, मूल्य और आदर्शो की राजनीति करने वाले नेता हैं। इसीलिए हर लड़ाई के बाद आडवाणी ने कभी अपने विचार, मूल्य, आदर्श को धूल धूसरित नहीं किया। जाने कितनों को सांसद, विधायक बनाने वाले आडवाणी ने अपने परिवार, बच्चों के लिए कभी कुछ नहीं किया।


यह वही लालकृष्ण आडवाणी हैं, जिन्होंने 1996 में जैन डायरी में नाम आने के बाद हवाला का आरोप लगने भर की वजह से इस्तीफा दे दिया था। वह लालकृष्ण आडवाणी आज के दौर में भी ‘कृष्ण’ बने हुए हैं। यह कहा जा सकता है कि इस उम्र में अब जाएंगे भी कहां और पार्टी ने उन्हें सब कुछ तो दिया है। इस तरह से सोचने वालों के लिए लालकृष्ण आडवाणी की 89 साल की उम्र सबसे बड़ा आधार बनती है। उनके लिए एक तथ्य यह है कि कांग्रेस के शासन में लगभग सब कुछ हासिल कर चुके एस.एम. कृष्णा 85 साल के होने के बाद भारतीय जनता पार्टी में शामिल हो गए। एस.एम. कृष्णा विदेश मंत्री, राज्यपाल, उप मुख्यमंत्री, मुख्यमंत्री सब रह चुके हैं। ऐसे ढेरों उदाहरण हैं, जिनका जिक्र किया जा सकता है, लेकिन उसकी शायद जरूरत नहीं है। सब कुछ हासिल करने का अर्थ किन संदर्भो में सामने आता है यह देखने वाली बात होती है। बहरहाल, वर्ष 2009 के बाद से भारतीय जनता पार्टी और भारतीय राजनीति देखने वालों से विनम्र निवेदन है कि विचार, मूल्य और आदर्श के लिए समर्पित भारतीय राजनीति के इस महानतम नेता का चित्र मजाकिया मत बनाइए। मौजूदा राजनीति के ‘कृष्णा’ दौर में ‘कृष्ण’ बने रहना कोई आसान काम नहीं है।

(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)
 


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