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ट्रंप के पेरिस मसझौते से पीछे हटने के बाद भारत के पास है ये सुनहरा अवसर

भारत बिजली के लिए मुख्यत: कोयले पर निर्भर है जबकि पूरी दुनिया में सौर ऊर्जा को किफायती बनाने की कोशिश हो रही है। करीब 30 से ज्यादा देशों में सौर ऊर्जा कोयले से ज्यादा सस्ती हो चुकी है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 05 Jun 2017 01:23 PM (IST)Updated: Mon, 05 Jun 2017 01:40 PM (IST)
ट्रंप के पेरिस मसझौते से पीछे हटने के बाद भारत के पास है ये सुनहरा अवसर
ट्रंप के पेरिस मसझौते से पीछे हटने के बाद भारत के पास है ये सुनहरा अवसर

अविनाश चंचल

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पर्यावरण की वैश्विक राजनीति में भारत आज अहम भूमिका निभाने की स्थिति में आ गया है। बतौर दुनिया का अगुआ अमेरिका डोनाल्ड ट्रंप के नेतृत्व में कई मोर्चो पर पीछे जा रहा है। ट्रंप ने चुनाव से पहले ही जलवायु परिवर्तन की समस्या को नकार कर पर्यावरण के मसले पर पीछे जाने का संकेत दिया था। अब ट्रंप ने पेरिस समझौते से बाहर निकलने की घोषणा कर दी है। अपने भाषण में ट्रंप ने भारत पर निशाना साधा है। पेरिस समझौते को नकार ट्रंप ने वैश्विक राजनीति में अमेरिका को पीछे धकेल दिया है लेकिन भारत के पास यह एक सुनहरा अवसर है। वह अब जलवायु मुद्दे पर विश्व का नेतृत्व करे। कई देशों ने पहले से ही कोयले के कम उपयोग करने को लेकर कई महत्वपूर्ण कदम उठाए हैं और अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में ठोस कदम उठाया है।

हाल ही में संपन्न हुए जी-7 शिखर सम्मेलन में, यूरोपीय राष्ट्रों के नेतृत्व में जी-6 के द्वारा ट्रंप को अलग-थलग कर किया गया था, सब ने पेरिस समझौते के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दोहराई थी। पेरिस समझौते में भारत की तरफ से सबसे महत्वाकांक्षी आइएनडीसी लक्ष्यों को रखा गया था, भारत ने अंतरराष्ट्रीय सोलर गठबंधन की स्थापना में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी थी और अभी वह इसका संयोजक है। पेरिस समझौते के वक्त साफ हो गया था कि भारत दुनिया भर में चल रहे जलवायु परिवर्तन की बहस में नेतृत्वकारी भूमिका निभाने की क्षमता रखता है। अब जब ट्रंप पेरिस समझौते से पीछे हटना चाह रहे हैं तो भारत के पास एक बेहतरीन मौका है जब वह जलवायु परिवर्तन के बहसों का नेतृत्व अपने हाथों में ले।

भारत ने 2030 तक 40 फीसदी गैर-जीवाश्म ईंधन और 33-35 फीसद तक उत्सर्जन में कमी लाने का लक्ष्य रखा है। भारत अमेरिका से 50 प्रतिशत ज्यादा सौर और वायु ऊर्जा का संयंत्र लगा रहा है। एलईडी लगाने के लिए भी भारत सरकार ने योजनाएं शुरू की हैं। घरों और गलियों में लगे 770 मिलियन लाइट को एलईडी में बदला जा रहा है जो ऊर्जा खपत को कम करता है। 2019 तक सभी लाइट को बदलने का भी लक्ष्य रखा गया है। इनके बदलने से भारत की 20 हजार मेगावाट बिजली मांग में कमी आएगी, जिससे 80 मिलियन टन कार्बन उत्सर्जन कम होने की संभावना है। आगे चलकर इससे नए थर्मल पावर प्लांट लगाने की जरूरत भी कम होगी।

अभी मई में वियना एनर्जी फोरम में केंद्रीय ऊर्जा मंत्री पीयूष गोयल ने उम्मीद जताई कि 2022 तक भारत को कोयला आधारित बिजली की जरूरत नहीं रह जाएगी। जब एक तरफ ट्रंप अपने देश में कोयला उद्योग को फिर से गति देने की कोशिश कर रहे हैं, ठीक उसी समय भारत अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में अपनी योजनाओं के माध्यम से दुनिया को नई दिशा देने का काम कर रहा है। अब वैश्विक स्तर पर यह स्वीकार कर लिया गया है कि भारत जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर नेतृत्व की भूमिका में है। जर्मनी में हुए संयुक्त राष्ट्र जलवायु बैठक में भी इस बात को स्वीकार किया गया और ‘चाइना एंड इंडिया मेक बिग स्ट्राइस ऑन क्लाईमेट चेंज’ नाम से एक रिसर्च रिपोर्ट भी प्रकाशित की गई।

इसमें कहा गया है कि 2015 में पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर करने वाले देशों में चीन और भारत ही ऐसे देश हैं जो अपनी प्रतिबद्धताओं से अधिक लक्ष्य हासिल कर सकते हैं। हाल ही में न्यूयार्क टाइम्स ने इस बात को स्वीकार करते हुए इस विषय पर संपादकीय लिखा है। उसमें स्वच्छ और अक्षय ऊर्जा के लिए भारत के प्रयासों की सराहना करते हुए अमेरिकी राष्ट्रपति की पर्यावरण को लेकर लापहवाह नजरीये की आलोचना की गई है। यह सच भी है कि आज भारत के पास सोलर लगाने का सबसे प्रभावी और महत्वाकांक्षी योजना है, लेकिन इसके लिए जैसा भारत दोहराता आया है उसे विकसित देशों से वित्तीय और तकनीकी मदद की जरूरत है।

हालांकि ट्रंप ने जो संकेत दिए हैं उससे इस मदद पर संकट गहराता नजर आ रहा है। फिर भी भारत के कई राज्य सोलर नीति ला रहे हैं, केंद्र सरकार भी सौर नीति को प्रोत्साहित करने के लिए कई योजनाएं चला रही है। मगर इन प्रयासों को अंतरराष्ट्रीय मदद के बिना अमलीजामा पहनना मुश्किल है। हालांकि सौर ऊर्जा की कई योजनाओं के होते हुए भी आम लोग सौर क्रांति का हिस्सा नहीं बन पा रहे हैं। पर्यावरण संस्था ग्रीनपीस इंडिया के एक विश्लेषण में यह तथ्य सामने आया है कि बहुत सारे राज्यों में सोलर नीतियों, नेट मीटर मानदंड और अक्षय ऊर्जा मंत्रलय द्वारा 30 प्रतिशत सब्सिडी देने के बावजूद मुंबई, चेन्नई और दिल्ली जैसे देश के कई प्रमुख शहर छत पर सोलर लगाने में काफी पीछे हैं।

दिल्ली जहां पिछले साल ही सोलर नीति लायी गई है और नेट मीटर कनेक्शन भी उपलब्ध हैं वहां भी आवासीय क्षेत्र में छत पर सोलर लगाने की संख्या में कोई वृद्धि नहीं हुई है। दिल्ली की कुल सोलर क्षमता 2,500 मेगावाट है जिसमें 1,250 मेगावाट आवासीय क्षमता शामिल है। आधिकारिक रूप से दिल्ली की 2020 तक 1,000 मेगावाट सोलर लगाने का लक्ष्य है, वहीं 2025 तक इसे बढ़ा कर 2,000 किया जाना है। दिंसबर 2016 तक सिर्फ 35.9 मेगावाट ही दिल्ली में सोलर लगाया जा सका है, इसमें भी मार्च 2016 में सिर्फ 3 मेगावाट आवासीय क्षेत्र में सोलर लगा है। मुंबई जिसकी 1,720 मेगावाट की क्षमता है वहां भी सिर्फ 5 मेगावाट ही लगाया जा सका है।

पूरे तमिलनाडु में सिर्फ दो मेगावाट लगा है जबकि उसका लक्ष्य 350 मेगावाट का है। अक्षय ऊर्जा मंत्रलय ने 2022 तक 40 गिगावाट सोलर छत पर लगाने का लक्ष्य रखा है। दिसंबर 2016 तक, यह सिर्फ 1 गिगावाट तक पहुंच पाया है। सोलर लगाने की गति धीरे होने की एक वजह यह भी है कि लोगों को यह पूरी प्रक्रिया जटिल लग रही है और वे अफसरशाही में फंस रहे हैं। इसके अलावा नेट मीटरिंग वैसे तो बहुत सारे राज्यों में है लेकिन उसको ठीक से कम ही जगह लागू किया जा रहा है। मगर स्वच्छ ऊर्जा की चुनौतियों से निपटने के साथ-साथ भारत के लिए जीवाश्म ईंधन में कटौती करना भी बड़ी चुनौती है।

भारत अब भी बिजली के लिए मुख्यत: कोयले पर आधारित है और फिलहाल सरकार ने कुछ ऐसे फैसले लिए हैं जो कोयले पर आधारित बिजली को बढ़ावा देगी। जब एक तरफ पूरी दुनिया में सौर ऊर्जा को किफायती बनाने की कोशिश की जा रही है, करीब 30 से ज्यादा देश में सौर ऊर्जा कोयले से ज्यादा सस्ती हो चुकी है, अमेरिका में भी जिवाश्म ईंधन की बजाय सौर ऊर्जा क्षेत्र में ज्यादा रोजगार मिल रहा है। 1भारत के आम नागरिकों को भी यह समझना होगा कि कोयला से पैदा होने वाली बिजली न सिर्फ जीविका, साफ हवा, पानी और जंगलों के लिए खतरनाक है बल्कि निवेश के लिहाज से भी यह एक खराब सौदा साबित हो रहा है। अक्षय ऊर्जा को अपनाना ही एक मात्र विकल्प है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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