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तीस साल के सफर में इसरो ने पार किया हर अहम मुकाम

दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी की मांग तेजी से बढ़ने से अब भारत को अधिक भार वाले उपग्रहों का बाजार आसानी से हासिल हो जाएगा।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 07 Jun 2017 09:41 AM (IST)Updated: Wed, 07 Jun 2017 09:41 AM (IST)
तीस साल के सफर में इसरो ने पार किया हर अहम मुकाम
तीस साल के सफर में इसरो ने पार किया हर अहम मुकाम

प्रमोद भार्गव

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अंतरिक्ष असीम है और उसमें जिज्ञासा व खोज की अनंत संभावनाएं हैं। करीब 30 साल पहले इसरो ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में भविष्य की सुखद संभावनाओं को तलाशने की पहल की थी। आज वह के क्षेत्र में अहम मुकाम हासिल कर चुका है। एक साथ अंतरिक्ष में 104 उपग्रह प्रक्षेपित करने के बाद अब देश के सबसे बड़े, ताकतवर और वजनी स्वदेशी प्रक्षेपण यान यानी जीएसएलवी मार्क-3 के जरिये जीसैट-19 नामक उपग्रह को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने में सफल हो गया है। इसका भविष्य में सबसे बड़ा लाभ यह होगा कि अंतरिक्ष यात्रियों को भी अंतरिक्ष में भेजने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। इंटरनेट की गति बढ़ जाएगी। इससे अन्य देशों के चार टन वजनी उपग्रहों को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित करने का महंगा बाजार भी भारत के लिए खुल जाएगा। हल्के उपग्रह भेजने में भारत ने पहले ही दुनिया में व्यापारिक साख बना ली है।

दूरसंचार और सूचना प्रौद्योगिकी की मांग तेजी से बढ़ने से अब भारत को अधिक भार वाले उपग्रहों का बाजार आसानी से हासिल हो जाएगा। जाहिर है इसरो ने पिछले कुछ सालों में उपलब्धियों के जो झंडे गाड़े हैं उससे पता चलता है कि अगर काम करने का खुला परिवेश और स्वायत्तता मिले तो हमारे संस्थान वैश्विक प्रतिस्पर्धा में पीछे रहने वाले नहीं है, लेकिन इसरो की सफलता एक अपवाद भर प्रतीत होती है, क्योंकि भारत के बाकी वैज्ञानिक संस्थान उल्लेखनीय प्रदर्शन करने में पिछड़ रहे हैं। भारत अंतरिक्ष यान और उपग्रह प्रक्षेपण में तो अमेरिका, रूस और चीन को टक्कर दे रहा है, लेकिन परमाणु ऊर्जा से लेकर सैनिकों के लिए सुरक्षा कवच और उच्च कोटी के हथियारों के निर्माण में आज भी पिछड़ा हुआ है।

साफ है कि आज भारत के सामने सबसे अहम चुनौतियां रक्षा क्षेत्र में ही हैं। वास्तव में इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर होने के लिए में हम मजबूत प्रयास ही नहीं कर पा रहे हैं। जरूरत के साधारण हथियारों का निर्माण भी यहां नहीं हो पा रहा है। हर छोटे-बड़े हथियार आयात करने पड़ रहे हैं। इस बदहाली में हम भरोसेमंद लड़ाकू विमान, टैंक, विमानवाहक पोत और पनडुब्बियों के निर्माण की कल्पना कैसे कर सकते हैं? हमें विमानवाहक पोत आइएनएस विक्रमादित्य रूस से खरीदना पड़ा है, जबकि रक्षा संबंधी हथियारों के निर्माण के लिए हमारे यहां रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान (डीआरडीओ) मौजूद है, पर इसकी उपलब्धियां गौण हैं।

इसे अब इसरो से प्रेरणा लेकर अपनी सक्रियता बढ़ानी चाहिए। भारत यदि दुनिया की महाशक्ति बनना चाहता है तो उसे रक्षा-उपकरणों और हथियारों के निर्माण की दिशा में स्वावलंबी बनना होगा। अन्यथा क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक के बाबत रूस व अमेरिका ने एक समय में जिस तरह से भारत को धोखा दिया था उसी तरह जरूरत पड़ने पर मारक हथियार प्राप्त करने के संबंध में भी कभी मुंह की खानी पड़ सकती है। सवाल है कि इसके लिए उपाय क्या हो सकता है? दरअसल अकादमिक संस्थान दो तरह की लक्ष्यपूर्ति से जुड़े होते हैं, अध्यापन और अनुसंधान। वहीं विश्वविद्यालयों का मकसद ज्ञान का प्रसार और नए व मौलिक ज्ञान की रचनात्मकता को बढ़ावा देना होता है, लेकिन समय में आए बदलाव के साथ विश्वविद्यालयों में अकादमिक माहौल लगभग समाप्त हो गया है।

इसकी एक वजह स्वतंत्र अनुसंधान संस्थानों की स्थापना भी रही है। इसरो की ताजा उपलब्धियों से साफ है कि अकादमिक समुदाय, सरकार और उद्यमिता में एकरूपता संभव है। इस गठजोड़ के बूते शैक्षिक व स्वतंत्र शोध संस्थानों को आत्मनिर्भर बनाया जा सकता है। बशर्ते इसरो की तरह अन्य संस्थाओं को भी अपने आविष्कारों से वाणिज्यिक लाभ उठाने की अनुमति दे दी जाए। ऐसा होने पर विज्ञान के क्षेत्र में नवोन्मेषी छात्र आगे आएंगे और आविष्कारों के नायाब सिलसिले की शुरुआत संभव होगी। तमाम ऐसे युवा हैं जो जंग लगी शिक्षा प्रणाली को चुनौती देते हुए अपनी मेधा के बूते लीक से हटकर कुछ अनूठा करना चाहते हैं। इस मेधा को पर्याप्त स्वायत्तता के साथ आविष्कार के अनुकूल वातावरण देने की भी जरूत है। ऐसे उपाय यदि अमल में आते हैं तो अन्य क्षेत्रों में भी हम स्वावलंबी बनने के साथ ही विदेशी मुद्रा कमाने में भी सक्षम हो जाएंगे।

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
 


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