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प्रक्षेपण की नाकामी और इसरो की राह, नए सिरे से विचार करने की जरूरत

क्या ताजा नाकामी के बाद इसरो निजी एजेंसियों की मदद लेगा? दरअसल अब उसका ध्यान पूंजी जुटाने पर है। इसीलिए उसे निजी क्षेत्र से सहयोग लेने में भी गुरेज नहीं है।

By Lalit RaiEdited By: Published: Thu, 07 Sep 2017 11:20 AM (IST)Updated: Thu, 07 Sep 2017 11:20 AM (IST)
प्रक्षेपण की नाकामी और इसरो की राह, नए सिरे से विचार करने की जरूरत
प्रक्षेपण की नाकामी और इसरो की राह, नए सिरे से विचार करने की जरूरत

अभिषेक कुमार

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नेटवर्क पूरा करने के लिए भेजा जा रहा नवीनतम नैविगेशन उपग्रह भी अंतरिक्षीय कबाड़ बनने की तरफ बढ़ गया। एक के बाद एक सफल प्रक्षेपण की बदौलत जिस पोलर सैटेलाइट लॉन्च व्हीकल (पीएसएलवी) ने पूरी दुनिया में अपनी धाक जमा ली थी, उस पर सवाल उठ रहे हैं। खासतौर से इसलिए क्योंकि इसरो ने पहली बार किसी मिशन के लिए निजी भागीदारी को मौका दिया था। प्रक्षेपण की यह नाकामी दो अहम सवाल पैदा करती है। पहला तो यह कि क्या पीएसएलवी दुनिया के अंतरिक्ष बाजार में अपना मुकाम दोबारा हासिल कर पाएगा, जो उसने हाल में बना लिया था। और दूसरे, क्योंकि इसरो अंतरिक्ष के काम में निजी कंपनियों का सहयोग आगे भी लेगा। देसी जीपीएस के लिए नैविगेशन उपग्रह को छोड़ने के लिए निश्चय ही पीएसएलवी से बेहतरीन रॉकेट भारत के पास नहीं है। इसलिए इसरो के श्रीहरिकोटा स्थित सतीश धवन स्पेस सेंटर से हाल में जब संस्थान के मुखिया किरण कुमार ने प्रक्षेपण के कुछ ही समय बाद नवीनतम नैविगेशन उपग्रह के नाकाम होने की खबर दी, तो सवाल उठा कि यह असफलता आखिर किसकी है, उपग्रह की या रॉकेट की।

शुरुआती जांच में साबित हो गया कि 19 मिनट की उड़ान की योजना से दागे गए रॉकेट पीएसएलवी में उड़ान के तीसरे मिनट ही एक उल्लेखनीय त्रुटि पैदा हो गई, जिस कारण रॉकेट की हीट शील्ड उससे अलग नहीं हो पाई। यह शील्ड धातु की एक मोटी प्लेट के रूप में उपग्रह को वायुमंडल के घर्षण से पैदा होने वाले उच्च तापमान और घर्षण से बचाती है। वायुमंडल को पार कर निर्वात में पहुंचने में पर यह शील्ड योजना के अनुसार फट जाती है, जिससे उपग्रह रॉकेट से अलग होकर अपनी निर्धारित कक्षा की तरफ बढ़ जाता है। मगर ताजा प्रक्षेपण में यह हीट शील्ड उपग्रह के साथ चिपकी रही और अब यह अंतरिक्ष में घूमती रहेगी। स्पष्ट है कि यह इसरो के सबसे प्रतिष्ठित रॉकेट पीएसएलवी की नाकामी थी, जिस पर देश के भावी चंद्र मिशन से लेकर दुनिया के कई उपग्रहों के प्रक्षेपण का दारोमदार है और जिससे इसरो या कहें कि भारत भारी मात्र में विदेशी मुद्रा अर्जित कर रहा है।


आर्थिक पैमाने पर देखें, तो करीब 400-500 करोड़ रुपये के नुकसान के साथ पीएसएलवी की यह नाकामी एक दीर्घकालिक असर छोड़ते दिख रही है। हो सकता है कि अभी तक जो देश अपने उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए इसरो (पीएसएलवी) की सेवाएं लेने की योजना बना चुके हैं या इसका मन बना रहे हैं, वे अपनी योजना पर पुनर्विचार करें। निश्चय ही उन्हें इसका हक है पर सच्चाई यह है कि आज की तारीख में दुनिया के दूसरे मुल्कों के पास पीएसएलवी से बेहतर विकल्प है ही नहीं। गौरतलब है कि अब तक 41 उड़ानों में पीएसएलवी के सिर्फ दो मिशन नाकाम रहे हैं। इसका पहला प्रक्षेपण नाकाम रहा था और अब यह 41वां मिशन फेल हुआ है, लेकिन इसने अपनी कामयाब 39 उड़ानों से साबित किया है कि इसके जोड़ का दूसरा रॉकेट मिलना बेहद मुश्किल है।


उल्लेखनीय है कि कभी साइकिल से रॉकेट के पुर्जे ढोने वाले इसरो ने जिस तरह पीएसएलवी की बदौलत दुनिया भर के दर्जनों उपग्रह अंतरिक्ष में पहुंचाए हैं, वैसी सफलता किसी दूसरे विकासशील देशों की किस्मत में नहीं बदा है। इसमें भी ज्यादा रेखांकित करने वाली बात यह है कि जितना धन अमेरिकी स्पेस सेंटर- नासा अपने स्पेस मिशन पर एक साल में खर्च करता है, उतने पैसों में इसरो 40 साल तक काम करता रह सकता है। यही नहीं, पीएसएलवी की मदद से हमारा देश उपग्रहों की व्यावसायिक लॉन्चिंग दुनिया में सबसे कम कीमत पर कर रहा है। आम तौर पर एक सामान्य आकार की पीएसएलवी से लॉन्चिंग 100 करोड़ रुपयो की पड़ती है, जबकि अमेरिका के ऐटलस-5 से इसकी कीमत 6692 करोड़ रुपये होती है। हालांकि अभी भी सैटेलाइट लॉन्चिंग के अंतरिक्ष बाजार में अमेरिका की हिस्सेदारी 41 फीसद तक है, जबकि इसरो की हिस्सेदारी सिर्फ चार प्रतिशत। इसकी बड़ी वजह यह है कि नासा के पास एक खाली ट्रक के बराबर वजन वाले उपग्रह को स्पेस में छोड़ने की क्षमता है, जबकि इसरो अभी एक मध्यम आकार की कार के बराबर वजन वाले सैटेलाइट छोड़ पा रहा है। फिर दुनिया को ही नहीं अब तो अमेरिका को भी यही लग रहा है कि क्यों न वह भी कम कीमत में इसरो से ही अपने उपग्रह स्पेस में पहुंचा ले।

गौरतलब है कि इसरो ने इस तरह की लॉन्चिंग के कारोबार का जिम्मा अपने सहयोगी संगठन एंटिक्स कॉरपोरेशन को दे रखा है और इस संगठन ने पीएसएलवी की पहली लॉन्चिंग से बाद से 2014 तक साढ़े चार अरब रुपये कमाकर दिए हैं। 2016 में इकोनॉमिक फोरम की ओर से जारी रिपोर्ट के अनुसार 2013 में अमेरिका का स्पेस बजट सबसे अधिक 39.3 अरब डॉलर था, चीन 6.1 अरब डॉलर के साथ दूसरे, रूस, 5.3 अरब डॉलर के साथ तीसरे और जापान 3.6 अरब डॉलर के स्पेस बजट के साथ चौथे स्थान पर था। इन सभी देशों के मुकाबले भारत का बजट महज 1.2 अरब डॉलर था। बहरहाल, यह स्पष्ट है कि पीएसएलवी के ताजा असफल प्रक्षेपण का जो कुछ असर होगा, वह बहुत क्षीण होगा और इससे इसरो की प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आएगी। पूरी दुनिया समझती है कि अंतरिक्ष में उपग्रह छोड़ना अत्यधिक जोखिम वाला काम है, जिसमें बेहद दक्ष माने जाने वाले अमेरिका, रूस और यहां तक प्राइवेट स्पेस एजेंसी चला रहे एलन मस्क के दमदार रॉकेट- फॉल्कन 9 को कई असफलताओं का सामना करना पड़ा है।

सवाल उठता है कि क्या ताजा नाकामी के बाद इसरो निजी एजेंसियों की मदद लेगा? दरअसल अब इसरो का ध्यान अंतरिक्ष से देश के लिए पूंजी जुटाने पर है। इसीलिए उसे निजी क्षेत्र से सहयोग लेने में भी कोई गुरेज नहीं है। असल में, अब उसकी कोशिश है कि निजी क्षेत्र की मदद से वह उपग्रहों और रॉकेट के निर्माण में तेजी लाए और उनके जरिए विभिन्न देशों के सैटेलाइट बेहद प्रतिस्पर्धी कीमतों पर अंतरिक्ष में छोड़े और इससे राजस्व हासिल करे। उम्मीद करें कि निजी सहभागिता इसरो के कामकाज में तेजी लाएगी और इससे होने वाली कमाई से भारत अंतरिक्ष संबंधी वे कामयाबियां हासिल करने की तरफ बढ़ सकेगा, जिनका सपना अभी विकसित देश भी देख रहे हैं।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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