अन्नदाता की अंतहीन व्यथा, आखिर क्या है उपाय
सरकारें किसानों के कल्याण के लिए सार्थक पहल करने के बजाय उनके नाम पर राजनीति करने में बेवजह उलझी रहती हैं।
नई दिल्ली [ देवाशीष उपाध्याय] । भारत की लगभग साठ से सत्तर प्रतिशत आबादी कृषि अथवा उस पर आधारित काम-धंधा से जुड़ी हुई है। इसके बावजूद जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान मात्र सोलह से सत्रह प्रतिशत ही है। सदियों से अन्नदाता कठोर परिश्रम कर देश का तो पेट पाल रहा है, लेकिन स्वयं कई रातें उसे भूखा सोना पड़ता है। इतना ही नहीं, उसकी आर्थिक स्थिति इतनी दयनीय है कि उसके पास न तो तन ढंकने के लिए पर्याप्त वस्त्र है और न ही सिर ढंकने के लिए छत। वह न ही बच्चों की शिक्षा का समुचित प्रबंध कर पाता है और न ही परिवार के किसी बीमार सदस्य का समय पर इलाज करा पाता है। इस आर्थिक युग में तो उसकी स्थिति और बद से बदतर होती जा रही है।
आधुनिक वैज्ञानिक तकनीकी के तीव्र विकास के बावजूद भारतीय कृषि व्यवस्था मौसम आधारित जुआ है। जिस वर्ष प्रकृति मेहरबान होती है उस वर्ष फसल का उत्पादन तो अच्छा होता है, लेकिन जिस वर्ष ऐसा नहीं हुआ उस वर्ष तो दो जून की रोटी के भी लाले पड़ जाते हैं। जिस वर्ष फसल की अच्छी पैदावार हो जाती है उस वर्ष भी किसान बहुत अधिक खुश नहीं हो पाता है। क्योंकि बाजार में खरीदारों का अभाव होने के कारण उसे उत्पाद की समुचित कीमत नहीं मिल पाती है। कई बार तो उसे बीज, उर्वरक, पारिश्रमिक आदि का लागत मूल्य भी नहीं मिल पाता है। किसान फसल के उत्पादन सहित अनेक व्यक्तिगत कार्यो के लिए कर्ज लिए रहता है तथा उसकी तमाम जरूरतों को पूर्ति फसल उत्पाद की बिक्री पर निर्भर करती है। वह फसल उत्पाद को लंबे समय तक संरक्षित करने में असमर्थ होता है। इसलिए किसान अपने फसल उत्पाद को औने-पौने दाम पर बेचने के लिए मजबूर होता है, जबकि वही उत्पाद कुछ समय बाद जमाखोर व्यापारियों द्वारा मोटा मुनाफा कमा कर बहुत ही ऊंचे दामों पर बेचा जाता है। यानी किसान दोनों ही स्थितियों में मारा जाता है। कई जगह तो कृषि उत्पाद विपणन की पर्याप्त व्यवस्था का अभाव है।
कृषि राज्य का विषय है। राज्य सरकारें अपने राजनीतिक लाभ-हानि के दृष्टिकोण से कृषि की नीतियां बनाती हैं। किसानों के कल्याण के लिए सार्थक पहल करने के बजाय उनके नाम पर राजनीति करती रहती हैं। इससे किसानों की दशा दिन-प्रतिदिन दयनीय होती जा रही है। केंद्र सरकार किसानों के उन्नयन और अनाज उत्पादन में आत्मर्निभरता के लिए साठ के दशक में हरित क्रांति की शुरुआत की थी। इससे कुछ हद तक सकारात्मक परिणाम अवश्य मिला। फसल उत्पादन में आनुपातिक वृद्धि हुई तथा देश खाद्यान्न के लिहाज से आत्मनिर्भर हो गया। हरित क्रांति में उन्नत किस्म के बीजों का प्रयोग तथा रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों का बड़े पैमाने पर प्रयोग किया गया। इससे उत्पादन में कुछ हद तक तात्कालिक वृद्धि तो हुई, लेकिन अब धीरे-धीरे उत्पादन स्थिर होता जा रहा है। महंगे उन्नत बीज, रासायनिक उर्वरक एवं कीटनाशक के प्रयोग के कारण कृषि उत्पादन लागत बहुत अधिक बढ़ गई है। इसके दुष्प्रभाव से भूमि की उर्वरा शक्ति भी धीरे-धीरे क्षीण हो रही है।
भारतीय कृषि मौसम आधारित होने के कारण जिस वर्ष मानसून साथ नहीं देता है, उस वर्ष फसल का उत्पादन नहीं हो पाता है। कई बार तो असमय बारिश होने या सूखा के चलते खेत में खड़ी फसल बर्बाद हो जाती है। केंद्र सरकार के सहयोग से राज्य सरकारें कृषि बीमा योजना का कार्यान्वयन तो कर रही हैं परंतु बीमा कंपनियां किसानों को सहायता पहुंचाने के बजाय कागजी खानापूर्ति में ऐसा उलझा देती हैं। सरकारें भी राजनीतिक लाभ के लिहाज से कृषि आपदा राहत की बड़ी-बड़ी घोषणाएं तो करती हैं, लेकिन उसका लाभ कुछ ही किसानों को मिल पाता है। आधुनिक वैज्ञानिक संयंत्रों द्वारा खेती किए जाने से ग्रामीण स्तर पर कृषि क्षेत्र में संलग्न मानवीय श्रम बड़े पैमाने पर बेरोजगार हो रहा है। वैज्ञानिक संयंत्रों द्वारा खेती होने से फसल अपशिष्ट, पराली और भूसे इत्यादि खेत में ही नष्ट कर दिए जाते हैं। इसकी वजह से पशु चारे का अभाव हो रहा है और इससे पशुपालन का संकट उत्पन्न हो रहा है। ग्रामीण अर्थव्यवस्था में पशुपालन का महत्वपूर्ण स्थान है। ग्रामीण स्तर पर कृषि और पशुपालन के क्षेत्र में रोजगार के अवसर धीरे-धीरे सीमित होते जा रहे हैं। जिसके कारण ग्रामीण किसान रोजगार की तलाश में शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं। शहरों में एक निश्चित मजदूरी दर निर्धारित होती है और पारिश्रमिक की गारंटी होती है। जबकि कृषि उत्पाद आधारित आय में पूंजी और परिश्रम के निवेश के बावजूद अनिश्चितता बनी रहती है जिसके कारण किसान अन्नदाता से मजदूर बनता जा रहा है।
पिछले दस वर्षो में देश के तीन लाख किसानों ने जिंदगी से तंग आकर विभिन्न कारणों सें मौत को गले लगा कर समस्याओं से तो नहीं बल्कि अपनी जिंदगी से छुटकारा पा लिया, जो कि आधुनिक मानवीय सभ्यता के लिए दुर्भाग्यपूर्ण है। कृषि मजबूरी का व्यवसाय बनता जा रहा है। इस कारण युवा वर्ग का कृषि के प्रति नकारात्मक दृष्टिकोण होता जा रहा है। किसान अपने बच्चों को खेती की बजाय किसी भी हालत में सेवा क्षेत्र अथवा किसी अन्य क्षेत्र में भेजना चाहता है। शिक्षा के तीव्र प्रसार होने से साक्षरता दर में वृद्धि हुई है। शिक्षित युवा वर्ग खेती के बजाय नौकरी करने के लिए उत्सुक है। यदि कृषि प्रणाली से अन्नदाता का इसी प्रकार पलायन होता रहा तो वह दिन दूर नहीं जब देश में अनाज उत्पादन का संकट उत्पन्न हो जाएगा जो कि भयावह स्थिति होगी इसलिए कृषि की दुर्दशा को सुधारने के लिए राज्य और केंद्र सरकारों को समन्वित और परिणामदायी प्रयास करना पड़ेगा।
हालांकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 2022 तक किसानों की आय दोगुना करने का लक्ष्य तय कर चुके हैं लेकिन लक्ष्य रखने से कुछ नहीं होता है। इसके लिए ईमानदारीपूर्वक, दृढ़ता से पहल करनी होगी व उसका नियमित रूप से मूल्यांकन करना होगा। इस मसले पर आने वाली चुनौतियों के समाधान के लिए भी पर्याप्त प्रबंध करना होगा ताकि अन्नदाता की आर्थिक स्थिति में सुधार करने के साथ आम आदमी को समुचित मूल्य पर पौष्टिक भोजन संबंधित आवश्यकताओं की पूर्ति की जा सके।
(लेखक खाद्य सुरक्षा एवं औषधि विभाग में अधिकारी हैं)
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