सेना की चुनौतियां और समाधानः रक्षा क्षेत्र में है अौर धन की अावश्यकता
चीन और पाकिस्तान से निपटने के खतरों और खासकर हाल के दिनों में चल रहे तनाव को देखते हुए रक्षा बजट में अच्छी-खासी वृद्धि पर जोर दिया जा रहा था
नई दिल्ली (जेएनएन)। चीन और पाकिस्तान से निपटने के खतरों और खासकर हाल के दिनों में चल रहे तनाव को देखते हुए रक्षा बजट में अच्छी-खासी वृद्धि पर जोर दिया जा रहा था, लेकिन पिछले सप्ताह लोकसभा में वित्त मंत्री अरुण जेटली की ओर से पेश किए गए आम बजट में रक्षा क्षेत्र में आवंटन केवल 7.1 प्रतिशत बढ़ सका है। रक्षा के लिए कुल आवंटन 2.95 लाख करोड़ रुपये का किया गया है।
विशेषज्ञों के मुताबिक वृद्धि दस प्रतिशत से अधिक अपेक्षित थी, बावजूद इसके वे मानते हैं कि कुछ अन्य उपाय अपनाकर भारत रक्षा के मामले में अपनी स्थिति दुरुस्त कर सकता है। इसके लिए मैन पॉवर यानी सैन्य कर्मियों की संख्या में कटौती से लेकर हथियारों और उपकरणों से आधुनिकीकरण और सेनाओं के लिए एक एकीकृत ढांचा अपनाने जैसे उपाय किए जा सकते हैं। आइए एक नजर डालते हैं भारतीय सैन्य परिदृश्य पर।
तीनों सेनाओं के लिए है चुनौती
- थल सेना को बंदूकों से लेकर दूसरे हथियारों और हल्के हेलीकाप्टरों की कमी का सामना करना पड़ रहा है। उसे रात में लड़ाई लायक क्षमता उत्पन्न करने के मामले में भी कई अभावों से गुजरना पड़ रहा है।
- वायु सेना के पास पर्याप्त लड़ाकू विमान नहीं हैं। हवा में ही ईंधन भरने वाले विमानों के मामले में भी अभी स्थिति संतोषजनक नहीं है। यही हाल अवाक्स और ड्रोन के मामले में भी है।
- नौ सेना की दिक्कत यह है कि वह सक्षम-पर्याप्त पनडुब्बियों को लेकर निश्चिंत नहीं हो पा रही है। मल्टी रोल हेलीकाप्टर और माइन स्वीपर आदि के संदर्भ में भी समस्याओं से घिरी है।
चिंता की बातें
- 2018-19 के लिए आम बजट में रक्षा क्षेत्र के लिए जो आवंटन किया गया है वह कुल जीडीपी का महज 1.58 प्रतिशत है। यह 1962 में चीन के साथ हुए युद्ध के बाद से सबसे कम प्रतिशत है।
- दूसरा पहलू यह है कि रक्षा बजट कुल सरकारी खर्च में 12.10 प्रतिशत तक जा पहुंचा है।
- भारत को अपने सैन्य उपकरणों में से 65 प्रतिशत का आयात करना पड़ता है और इसका एक प्रमुख कारण अपने देश में रक्षा उत्पादन का ढांचा अभी अपेक्षाओं के अनुरूप विकसित नहीं हो सका है
- एक समस्या यह भी है कि हथियारों की खरीद एक प्रकार के तदर्थ तरीके से की जाती है यानी तात्कालिक तौर पर। इसमें ऐसी दीर्घकालिक सोच का अभाव दिखता है जिससे रणनीतिक जरूरतों को लंबे समय के लिए पूरा किया जा सके।