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ब्रिटेन का सूरज हुआ अस्त, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भारत के हाथों करारी हार

ऐसा पहली बार हुआ है जब आइसीजे में सुरक्षा परिषद के किसी एक स्थाई सदस्य का कोई न्यायाधीश वहां नहीं होगा

By Lalit RaiEdited By: Published: Tue, 28 Nov 2017 10:22 AM (IST)Updated: Tue, 28 Nov 2017 11:14 AM (IST)
ब्रिटेन का सूरज हुआ अस्त, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भारत के हाथों करारी हार
ब्रिटेन का सूरज हुआ अस्त, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में भारत के हाथों करारी हार

नई दिल्ली [अवधेश कुमार] । भारत के न्यायमूर्ति दलवीर भंडारी का अंतरराष्ट्रीय न्यायालय यानी आइसीजे में न्यायाधीश के तौर पर दोबारा चुना जाना कोई सामान्य घटना नहीं है। भारत के लोगों की नजर इस चुनाव पर इसलिए भी टिकी थी कि उन्हें लगता था कि अगर हमारे देश का कोई न्यायाधीश होगा तो कुलभूषण जाधव के मामले में सहायता मिल सकती है। इस नाते हर भारतीय दलवीर भंडारी को उनकी जगह पर दोबारा देखना चाहता था। जिस तरह से ब्रिटेन अपने उम्मीदवार क्रिस्टोफर ग्रीनवुड के पक्ष में हरसंभव कूटनीतिक दांव चल रहा था और सुरक्षा परिषद के शेष चार स्थाई सदस्य उसके साथ थे उसमें यह असंभव लग रहा था। इस नाते देखा जाए तो यह भारत की बड़ी कूटनीतिक जीत है। यह भारत की सघन कूटनीतिक सक्रियता का ही परिणाम था कि ब्रिटेन को आखिरी क्षणों में अपने उम्मीदवार को चुनाव से हटाने को विवश होना पड़ा। हालांकि ब्रिटेन ने बयान में कहा है कि भारत उसका मित्र देश है, इसलिए उसके उम्मीदवार के दोबारा न्यायाधीश बनने पर उसे खुशी है, पर उसने अंत-अंत तक अपने उम्मीदवार को विजीत कराने के लिए सारे दांव आजमाए। जब उसे यह अहसास हो गया कि भारत के पक्ष को कमजोर करना उसके वश में नहीं तो उसके पास पीछे हटने के अलावा कोई चारा नहीं था। ऐसा नहीं होता तो संयुक्त राष्ट्र में इस मुद्दे पर अजीबोगरीब स्थिति पैदा हो जाती। महासभा बनाम सुरक्षा परिषद का यह टकराव भविष्य के लिए खतरनाक हो सकता था। इसलिए सुरक्षा परिषद के स्थाई सदस्यों ने भी संभव है ब्रिटेन को अंत में यह सुझाव दिया होगा कि वह अपने उम्मीदवार को हटा ले ताकि टकराव की स्थिति समाप्त हो जाए।

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71 साल बाद ब्रिटेन की हार

अंतरराष्ट्रीय न्यायालय ने 1946 में कार्य करना आरंभ किया था तब से आज तक ऐसा कभी नहीं हुआ जब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में उसका कोई न्यायाधीश न रहा हो। इस तरह 1946 के बाद ऐसा पहली बार हुआ है जब अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में ब्रिटेन की सीट नहीं होगी। यही नहीं यह भी पहली बार है जब सुरक्षा परिषद के किसी एक स्थाई सदस्य का कोई न्यायाधीश वहां नहीं होगा। इससे इस घटना का महत्व समझा जा सकता है। भारत ने अपने उम्मीदवार के पक्ष में जोरदार प्रचार आरंभ किया था। इसी का परिणाम था कि पहले 11 दौर के चुनाव में भंडारी को महासभा के करीब दो तिहाई सदस्यों का समर्थन मिला था, लेकिन सुरक्षा परिषद में वह ग्रीनवुड के मुकाबले 4 मतों से पीछे थे। अंतिम परिणाम में संयुक्त राष्ट्र के मुख्यालय में हुए चुनाव में भंडारी को महासभा में 193 में से 183 वोट मिले, जबकि सुरक्षा परिषद के सभी 15 सदस्यों का मत मिला। ऐसा यूं ही नहीं हुआ। संयुक्त राष्ट्र में ब्रिटेन के स्थाई प्रतिनिधि प्रतिनिधि मैथ्यू रेकॉफ ने 12वें चरण के मतदान से पहले संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद दोनों सदनों के अध्यक्षों को संबोधित करते हुए एकसमान पत्र लिखा। दोनों के अध्यक्षों के सामने पढ़े गए पत्र में रेकॉफ ने कहा कि उनके प्रत्याशी न्यायाधीश क्रिस्टोफर ग्रीनवुड ने अपना नाम वापस लेने का फैसला किया है। आखिर जो व्यक्ति अंत-अंत तक उम्मीदवारी में डटा था उसने अचानक यह फैसला क्यों किया? इसलिए कि महासभा में वह भारत के समर्थन को कम करने में कामयाब नहीं हुआ और भारत किसी तरह दलवीर भंडारी का नाम वापस लेने को तैयार नहीं था। रेकॉफ की ओर से लिखी गई चिट्ठी में कहा गया था कि ब्रिटेन इस निष्कर्ष पर पहुंचा है कि अगले दौर के चुनाव के साथ सुरक्षा परिषद और संयुक्त राष्ट्र महासभा का कीमती समय बर्बाद करना सही नहीं है। यानी उसे आभास हो गया था कि भारत की कूटनीति के सामने वह कमजोर पड़ गया है।

क्या है अंतरराष्ट्रीय न्यायालय

नीदरलैंड के हेग स्थित संयुक्त राष्ट्र की सबसे बड़ी न्यायिक संस्था अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में 15 न्यायाधीश होते हैं। हर तीन साल बाद आइसीजे में पांच न्यायाधीशों का 9 वर्ष के कार्यकाल के लिए चुनाव होता है। आरंभ के चार चक्रों के मतदान के बाद फ्रांस के रूनी अब्राहम, सोमालिया के अब्दुलकावी अहमद युसूफ, ब्राजील के एंटोनियो अगुस्टो कैंकाडो, लेबनान के नवाफ सलाम का आसानी से चुनाव हो गया। इन चारों को संयुक्त राष्ट्र महासभा और सुरक्षा परिषद में आसानी से बहुमत मिल गया था। इसके बाद आखिरी बची सीट पर भारत और ब्रिटेन के बीच कड़ा मुकाबला था।

ब्रिटेन के लिए बना बड़ा मुद्दा

यह चुनाव कितना बड़ा मुद्दा बन गया था इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि अमेरिकी मीडिया में भारत को महासभा में मिल रहे समर्थन को न केवल ब्रिटेन, बल्कि सुरक्षा परिषद में शामिल विश्व की महाशक्तियों के लिए खतरे की घंटी तक कह दिया गया। कहा गया कि इससे कोई ऐसी परिपाटी विकसित न हो जाए जो भविष्य के लिए खतरनाक साबित हो। वास्तव में भारत जिस तरह से ब्रिटेन को आमसभा में पीछे धकेलने में कामयाब हो रहा था वह अनेक पर्यवेक्षकों के लिए अप्रत्याशित था। एक समय ब्रिटेन ने संयुक्त सम्मेलन व्यवस्था का सहारा लेने पर भी विचार किया। इसमें महासभा एवं सुरक्षा परिषद की बैठक एक साथ बुलाई जाती है तथा सदस्यों से खुलकर समर्थन और विरोध करने को कहा जाता है। इसमें समस्या हो सकती थी। संभव था कई देश जो भारत को चुपचाप समर्थन कर रहे थे वे खुलकर ऐसा न कर पाते। माना जा रहा था कि चारों स्थाई सदस्यों से मशविरा करने के बाद ही ब्रिटेन ने संयुक्त अधिवेशन के विकल्प पर विचार किया था। रूस, अमेरिका, चीन व फांस को भी यह चिंता थी कि आज ब्रिटेन जहां फंस रहा है कल वहां वह खुद भी हो सकते हैं। इसलिए वे ब्रिटेन के साथ खड़े थे।

सच यही है कि संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में भारत के मजबूत आधार को देख ब्रिटेन परेशान था। भारत ने अपने उम्मीदवार दलवीर भंडारी के सम्मान में जो भोज दिया उसमें दुनिया के 160 देशों के प्रतिनिधियों की मौजूदगी ने उसे चौंका दिया। इसके बाद उसने औपचारिक चुनाव प्रक्रिया रोकने तक की कोशिश की। इसके लिए उसने सुरक्षा परिषद के सदस्यों से अनौपचारिक बातचीत शुरू की। इस तरह देखें तो यह हर दृष्टि से भारत की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बड़ी कूटनीतिक जीत दिखाई देगी। पहली बार सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों में टूट हुई एवं उन्हें मन के विपरीत मतदान करना पड़ा।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)
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