फिल्मी सितारों की जीवनी और आत्मकथाओं के अलावा साल 2017 में ये किताबें रहीं चर्चित
किताबों के प्रकाशन के लिहाज से बीत रहे इस पूरे एक वर्ष का जायजा लें तो फिल्मी सितारों की जीवनियों और आत्मकथाओं के अलावा भी अंग्रेजी में प्रकाशित कुछ किताबें खासी चर्चा में रहीं।
अनंत विजय। आज खत्म हो रहे वर्ष पर अगर नजर डालें तो यह बात साफ तौर पर उभर कर आती है कि फिल्मी सितारों की जीवनियों और आत्मकथाओं के अलावा भी अंग्रेजी में प्रकाशित कुछ किताबें रहीं जो खासी चर्चित रहीं। कोई अपने लेखन शैली की वजह से तो कोई शोध-प्रविधि की वजह से तो कोई विषयगत नवीनता की वजह से। हम वैसी पांच चुनिंदा पुस्तकों की चर्चा करेंगे जो जरा अलग हटकर रहीं।
‘द रिंग ऑफ ट्रूथ, मिथ ऑफ सेक्स एंड जूलरी’
जिस एक पुस्तक ने वैश्विक पटल पर खासी चर्चा बटोरी वह है मशहूर अमेरिकी लेखिका वेंडि डोनिगर की किताब ‘द रिंग ऑफ ट्रूथ, मिथ ऑफ सेक्स एंड जूलरी’। अपनी इस कृति में वेंडि इस सवाल का जवाब तलाशती हैं कि अंगूठियों का स्त्री पुरुष संबंधों में इतनी महत्ता क्यों रही है। क्यों पति-पत्नी से लेकर प्रेमी-प्रेमिका और विवाहेत्तर संबंधों में अंगूठी इतनी महत्वपूर्ण हो जाती है। अंगूठी प्यार का प्रतीक तो है, लेकिन इससे वशीकरण की कहानी भी जुड़ती है। बहुधा यह ताकत के प्रतीक के अलावा पहचान के तौर पर भी देखी जाती रही है। अंगूठी और संबंधों के बारे में मिथकों में क्या कहा गया है, आदि आदि।
इस पुस्तक में वेंडि डोनिगर ने बताया है कि किस तरह से सोलहवीं शताब्दी में इटली में पुरुष जो अंगूठियां पहनते थे उसमें लगे पत्थरों में स्त्रियों के नग्न चित्र उकेरे जाते थे। माना जाता था कि इस तरह की अंगूठी को पहनने वालों में स्त्रियों को अपने वश में कर लेने की कला होती थी। वेंडि डोनिगर के मुताबिक करीब हजारों साल पहले कविताओं में गहनों का जिक्र मिलता है। उनमें स्त्री के अंगों की तुलना बेशकीमती पत्थरों से की गई थी। वेंडि डोनिगर इस क्रम में जब भारत के मिथकीय और ऐतिहासिक चरित्रों की ओर आती हैं। सीता के अलावा वह दुष्यंत का भी उदाहरण देती हैं कि कैसे उसको अंगूठी को देखकर अपनी पत्नी शकुंतला की याद आती है। डोनिगर ने मेसोपोटामिया की सभ्यता से लेकर हिंदी, जैन, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम धर्म के लेखन से तथ्यों को उठाया है और उसको व्याख्यायित किया है वह अद्धभुत है।
‘इंदिरा गांधी, अ लाइफ इन नेचर’
दूसरी जिस पुस्तक की इस वर्ष खासी चर्चा रही वह थी कांग्रेस के नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश की इंदिरा गांधी पर लिखी-‘इंदिरा गांधी, अ लाइफ इन नेचर’। इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व पर कई पुस्तकें आ चुकी हैं। इस वर्ष भी पत्रकार सागरिका घोष की पुस्तक-‘इंदिरा, इंडियाज मोस्ट पॉवरफुल प्राइम मिनिस्टर’ प्रकाशित हुई। जयराम की किताब में पर्यावरण प्रेमी के तौर पर इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व को सामने रखा गया है। इस किताब पर जयराम रमेश ने गहन शोध के साथ तथ्यों को जुटाया है और उसको रोचक तरीके से पिरोते हुए पाठकों के सामने पेश किया है।
इंदिरा गांधी की इस गैरपारंपरिक जीवनी में अन्य कई रोचक और दिलचस्प प्रसंग है जिससे इंदिरा गांधी की पर्यावरण प्रेमी के तौर पर एक नई छवि का निर्माण होता है। सरकारी पत्रों, फाइल नोटिंग्स और व्यक्ति प्रसंगों के आधार पर श्रमपूर्वक जयराम रमेश ने इंदिरा गांधी के व्यक्तित्व के इस अनछुए पहलू को सामने लाया है। लेखक ने इस पुस्तक के शुरुआती अध्यायों में इस बात की कोशिश की है कि पाठकों को इंदिरा गांधी के पर्यावरण प्रेमी होने की प्रामाणिक जानकारी हो सके। कांग्रेस में होने के बावजूद जयराम रमेश ने कई मसलों पर इंदिरा गांधी के फैसलों से अपनी असहमति भी प्रकट की है। जैसे मथुरा में रिफाइनरी लगाने के इंदिरा गांधी के फैसले को वह गलत ठहराते हैं। इस पुस्तक में पाठकों को इंदिरा गांधी से जुड़े कुछ दिलचस्प व्यक्तिगत प्रसंग भी पढ़ने को मिलते हैं।
जयराम कहते हैं कि अपने पिता से दूर रहने और बीमार मां की देखभाल करने की वजह से जो एकाकीपन उनकी जिंदगी में आया उसको उन्होंने प्रकृति और पर्यावरण से दोस्ती करके भरने की कोशिश की। पर्यावरण को लेकर उनका अपने ही मुख्यमंत्रियों अजरुन सिंह, जे बी पटनायक और श्यामाचरण शुक्ला के साथ गहरे मतभेद हुए थे और उन्होंने उनको पत्र लिखकर अपनी चिंताओं से अवगत कराया था। अपनी इस पुस्तक में जयराम रमेश इस बात को जोर देकर कहते हैं कि भारत में पर्यावरण को लेकर इंदिर गांधी की पहल से ही जागरूकता आई थी। इस तरह की और किताबों की आवश्यकता है ताकि अन्य नेताओं के भी व्यक्तित्व के अनछुए पहलू सामने आ सकें।
‘द कोलीशन इयर्स 1996-2012’
तीसरी चर्चिच कृति आई पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की राजनीतिक आत्मकथा का तीसरा खंड ‘द कोलीशन इयर्स 1996-2012’। प्रणब मुखर्जी की इस किताब से देश के लंबे संसदीय इतिहास की झलक मिलती है। इसमे उनसे जुड़े कई दिलचस्प प्रसंग भी हैं। जैसे 2004 के लोकसभा चुनाव के पहले बंगाल के कांग्रेस नेता अधीर रंजन चौधरी ने उनपर जांजीपुर से लोकसभा चुनाव लड़ने का दबाव बनाया। उन्हें इस बात का भरोसा नहीं था कि वो लोकसभा चुनाव जीत सकेंगे क्योंकि इसके पहले के प्रयासों में उनको असफलता हाथ लगी थी। प्रणब मुखर्जी जब चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो गए तो सोनिया गांधी ने उनके कशमकश को समझते हुए कहा था कि आप चिंता ना करें, हम आपको किसी अन्य राज्य से राज्यसभा में ले आएंगे, अगर बंगाल में हमारे पास पर्याप्त वोट नहीं होते हैं। पार्टी अध्यक्ष का ये आश्वासन उनके आत्मविश्वास को बढ़ा गया। जिस गुस्से का जिक्र ऊपर किया गया है वैसे ही गुस्से का एक वाकया है।
जब नवंबर 2014 में कांची के शंकराचार्य जयेंद्र सरस्वती को गिरफ्तार किया गया था तब भी प्रणब मुखर्जी का गुस्सा फूट पड़ा था। पूरा देश दीवाली मना रहा था और शंकराचार्य गिरफ्तार कर लिए गए थे। प्रणब मुखर्जी का दावा है कि उन्होंने कैबिनेट में साफ गिरफ्तारी के समय को लेकर सवाल खड़ा किया था और कहा था कि क्या धर्मनिरपेक्षता सिर्फ हिंदू संतों को लेकर ही होती है। उन्होंने ये सवाल भी खड़ा किया था कि क्या सरकार ईद के दौरान किसी मौलाना को गिरफ्तार करने की हिम्मत कर सकती है। प्रणब मुखर्जी को पढ़ना हमेशा अच्छा लगता है, लेकिन ये बात भी समझ में आती है कि वह बहुत ज्यादा खुलते नहीं हैं।
‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस
चौथी एक और पुस्तक आई जिसे लेकर बहुत शोर मचाया गया, वह था बुकर पुरस्कार से सम्मानित मशहूर लेखिका अरुंधति राय का उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस। ‘गॉड ऑफ स्माल थिंग्स’ के प्रकाशन के बीस साल बाद अरुंधति का दूसरा उपन्यास आया। अरुंधति का उपन्यास ‘द मिनिस्ट्री ऑफ अटमोस्ट हैप्पीनेस’ की शुरुआत एक लड़के की कहानी से होती है जो किन्नरों के समूह में शामिल हो जाता है। किन्नरों के बीच के संवाद में, दंगे हमारे अंदर हैं, जंग हमारे अंदर है, भारत-पाकिस्तान हमारे अंदर है आदि आदि को देखकर ये लगता है कि अरुंधति का एक्टिविस्ट उनके लेखक पर हावी दिखता है। इस उपन्यास में वो बहुधा फिक्शन की परिधि को लांघते हुए अपने सिद्धांतों को सामने रखती हैं। पाठकों पर जब इस तरह के विचार लादने की कोशिश होती है तो उपन्यास बोङिाल होने लगता है। वैचारिकी अरुंधति की ताकत है और इस उपन्यास में वह इसको मौका मिलते ही उड़ेलने लगती हैं। इससे फिक्शन पढ़ने वालों को निराशा हाथ लगी।
‘पॉलिटिकल वॉयलेंस इन एनसिएंट इंडिया’
पांचवीं और महत्वपूर्ण पुस्तक जो इस वर्ष के उत्तरार्ध में प्रकाशित हुई वह है उपिंदर सिंह की ‘पॉलिटिकल वॉयलेंस इन एनसिएंट इंडिया।’ इस पुस्तक में लेखिका ने पौराणिक ग्रंथों, कविताओं, धर्मिक ग्रंथों, शिलालेखों, राजनीतिक संधियों के उपलब्ध दस्तावेजों, नाटकों आदि के आधार पर 600 बीसीई लेकर 600 सीई तक के दौर के को रेखांकित किया है। इस पुस्तक में राजनीतित हिंसा के कई रूपों को लेखिका ने पाठकों के सामने रखा है। पूरी तरह से अहिंसा को अपनाना संभव नहीं है, इससे उस दौर के कई राजा, संत और विचारक भी इत्तफाक रखते थे।
जिस तरह से इस बात को प्रचारित किया गया कि भारत में शांति प्रियता और अहिंसा एक सिद्धांत के तौर पर पौराणिक काल से रहा है, वो दरअसल थी नहीं। इस तरह से यह किताब इस तरह की अवधारणा को खारिज भी करती है। उस दौर में भी राजनीतिक हिंसा को लेकर काफी बहसें हुआ करती थीं और सदियों बाद अब भी राजनीतिक हिंसा को लेकर बहस जारी है। उपिंदर ने अपनी इस पुस्तक में पाठकों को प्राचीन भारतीय इतिहास की अवधारणाओं के बारे में नए तरीके से सोचने की जमीन मुहैया कराई है। उन्होंने श्रमपूर्व शोधकार्य किया है और साथ ही अपनी अवधारणाओं को स्थापित करती चलती हैं। वेंडि डोनिगर और उपिंदर सिंह की पुस्तक शोध होने के बावजूद पाठनीय हैं और यही किसी शोध की ताकत भी होती है।
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