Move to Jagran APP

तीन तलाक: महिला और पुरुष बराबरी की पहल पर कुछ संगठनों को है ऐतराज

यदि मुस्लिम समाज महिला अधिकारों को लेकर जागरूक रहता तो आज इतने सख्त कानून की दरकार नहीं होती

By Lalit RaiEdited By: Published: Sat, 30 Dec 2017 11:13 AM (IST)Updated: Sat, 30 Dec 2017 11:40 AM (IST)
तीन तलाक: महिला और पुरुष बराबरी की पहल पर कुछ संगठनों को है ऐतराज
तीन तलाक: महिला और पुरुष बराबरी की पहल पर कुछ संगठनों को है ऐतराज

नई दिल्ली [अयाज अहमद] । उच्चतम न्यायालय ने कुछ महीना पहले तीन तलाक को अवैध घोषित कर मुस्लिम पर्सनल लॉ में सुधारों पर एक सार्थक बहस की शुरुआत की थी। अब लोकसभा में मुस्लिम महिला विवाह अधिकार संरक्षण विधेयक 2017 पारित हो गया है। इससे एक साथ तीन तलाक (तलाक-ए-बिद्दत) पर रोक लग सकेगी। पितृसत्तावादी कट्टरपंथी शुरू से ही शीर्ष कोर्ट के फैसले को नाकाम करने पर तुले हुए हैं। जमीयत उलमा-ए-हिंद के जनरल सेक्रेटरी मौलाना महमूद मदनी ने तो सीधे तौर पर न्यायालय के उक्त फैसले को मानने से इन्कार कर दिया था। 2002 में इसी मुद्दे पर शीर्ष कोर्ट के ऐसे ही एक निर्णय को कट्टरपंथी ताकतें बेअसर कर चुकी हैं। शायद इसीलिए सरकार तीन तलाक को अपराध घोषित करने की कवायद कर रही है। प्रस्तावित कानून में तीन साल सजा का प्रावधान है।

loksabha election banner

सजा के प्रावधान पर ऐतराज

बहरहाल सवाल है कि आखिर बुनियादी महिला अधिकारों की सुरक्षा के लिए इतने सख्त कानून की दरकार क्यों है? ऐसे सुधार तो सामाजिक आंदोलन के जरिये भी किए जा सकते थे, लेकिन क्या वजह है कि मुस्लिम समाज महिला अधिकारों को लेकर इतना उदासीन है? सवाल यह भी है कि वह कौन सी शक्तियां हैं, जो महमूद मदनी जैसे लोगों को सामाजिक सुधार रोकने को प्रोत्साहित करती हैं। वास्तव में, मुस्लिम पर्सनल लॉ में कई गंभीर पहलू हैं जिन्हें सुधारने की जरूरत है। इनमें संरक्षण के बिना तलाक, हलाला, बहुविवाह और उत्तराधिकार कानून में लिंग के आधार पर भेदभाव आदि मुख्य हैं। वे कौन से कारण हैं जिसकी वजह से समतामूलक समाज की पैरवी करने वाला संविधान होने के बावजूद समाज के एक हिस्से में महिला विरोधी रुख कायम है? मुस्लिमों का एक बुद्धिजीवी वर्ग, जो ज्यादातर सवर्ण (अशराफ) मुसलमान हैं, का मानना है कि महिला विरोधी कानून में सुधार आना चाहिए, लेकिन मौजूदा सरकार में नहीं। क्योंकि मौजूदा सरकार को मुसलमानों का विश्वास प्राप्त नही है, लेकिन सवाल है कि पिछली सरकारों के दौरान सुधार के कदम क्यों नहीं उठाए गए जबकि पिछली सरकारों को तो कथित रूप से मुसलमानों का विश्वास हासिल था? ये सभी सवाल इस मुद्दे को नए सिरे से देखने को मजबूर करते हैं।

पर्सनल लॉ की राजनीति और मुस्लिम समाज
अतीत में देखा जाए तो पर्सनल लॉ की राजनीति ने समाज को हिंदू-मुस्लिम में बांटने का ही काम किया है। सांप्रदायिक राजनीति ने दोनों समुदायों में महिला अधिकारों और सामाजिक न्याय के मसलों को दरकिनार करने का काम किया है। सभी धर्मो के अभिजात्य तबकों द्वारा सांप्रदायिक ताकतों को बल प्रदान करने में पर्सनल लॉ की राजनीति के अलावा और भी कई रणनीतिक प्रतीक चिन्हों का प्रयोग किया जाता रहा है। इन सांस्कृतिक और धार्मिक प्रतीकों के परस्पर टकराव से समाज जाति और धर्म के खेमों में बंट जाता है। अच्छी बात यह है कि दलित और पसमांदा समुदायों में संवाद ने इन सभी परस्पर विरोधी प्रतीकों को बेअसर करने का प्रयास किया है। इससे विघटनकारी तत्वों को हाशिये पर डालने की एक उम्मीद जगी है। वहीं इस समस्या को अगर अंबेडकरवादी नजरिये से देखें तो साफ हो जाता है कि अब तक पर्सनल लॉ से संबंधित विवादों का प्रयोग हर धर्म के सवर्णो और अशराफों ने सांप्रदायिक पहचान को मजबूत बनाने एवं जाति के सवाल को दरकिनार करने के लिए किया है। सांप्रदायिक राजनीति की सवारी करने वाले लोग स्वयं को धार्मिक समूहों का स्वाभाविक नेता मानते हैं। इससे साफ है कि पर्सनल लॉ सांप्रदायिक राजनीति को जिंदा रखने और पितृसत्तात्मक वर्चस्व को संरक्षित करने में मदद करता है,जिससे समतावादी संवैधानिक विचारों को नुकसान होता है। इस बहस को एक सांप्रदायिक मुद्दा बनाकर समाज में लैंगिक न्याय की संभावनाएं दबा दी गई हैं।

अंबेडकर और भारतीय समाज

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अंबेडकर पितृसत्ता को जाति का मूल रूप मानते थे। ध्रुवीकृत धार्मिक संरचनाएं जातिवाद की लक्षण मात्र हैं, ये जातीय व्यवस्था का मूल कारण नहीं है। इसके उलट पितृसत्ता ही जातीय संरचना का केंद्र बिंदु है। इसीलिए पर्सनल लॉ के जिन विवादों को धार्मिक रंग दिया जाता है उसमें पीड़ित हमेशा महिला होती है। पुरुषों की वजह से पर्सनल लॉ की व्याख्या ऐसी कर दी गई है कि महिलाएं हाशिये पर चली गईं। इसलिए अकसर अंतरजातीय और अंतर-धार्मिक विवाह करना महिलाओं के लिए खतरे से खाली नहीं होता। पर्सनल लॉ के सुधार का सवाल सांप्रदायिक पहचान की राजनीति में कहीं खो गया है जो कि समाज में पितृसत्ता को ही बढ़ावा देता है। इस संदर्भ में नैंसी फ्रेजर के विचार कि सांस्कृतिक विशेषताओं के मुद्दों को लैंगिक न्याय से अलग किया जाना चाहिए, मददगार हो सकते हैं।

इसके लिए संविधान में प्रस्तावित समान नागरिक संहिता यानी यूनिफार्म सिविल कोड जो लैंगिक न्याय के लिए प्रतिबद्ध है, को लाया जा सकता है। इससे सांस्कृतिक संवेदनाओं को ठेस पहुंचाए बिना समानता, स्वतंत्रता और भाईचारे को स्थापित किया जा सकता है। मसलन पर्सनल लॉ में सबसे अहम सांस्कृतिक प्रतीक वैवाहिक रस्मों-रिवाज से संबंधित है। शादी को सफलता से संपन्न करने के लिए विवाह की रस्म पूरी करनी पड़ती है।

यूनिफार्म सिविल कोड और रीति रिवाज

यूनिफार्म सिविल कोड इस तरह के सभी रिवाजों को मान्यता दे सकता है। इसके बाद पर्सनल लॉ धार्मिक संवेदनाओं से अलग होकर अंतर-व्यक्तिगत पारिवारिक विवादों के उचित रूप से निपटारे का साधन मात्र रह जाता है। ऐसे सभी विवादों में अहम सिद्धांत परिवार कल्याण है। यहां पर कठिनाई पर्सनल लॉ की भिन्नता में नहीं बल्कि कठिनाई परिवार कल्याण के मतलब को समझने में आती है। ऐसे समय में जब परिवार का विचार खुद संकट के दौर से गुजर रहा है तब इस प्रकार के पारिवारिक विवादों का समाधान करने के लिए एक लचीले कानूनी ढांचे की आवश्यकता है। यहीं पर यूनिफार्म सिविल कोड धार्मिक द्वंद्व से अलग हट कर पर्सनल लॉ में सुधार करने का कानूनी ढांचा बन सकता है। जब तक हम धर्म और जाति से ऊपर उठ कर सामाजिक व वैवाहिक संबंध नहीं बनाएंगे तब तक हम भारत के संविधान की उद्देशिका में उद्घोषित ‘भारत के लोग’ नहीं बन सकते।

(लेखक ग्लोकल यूनिवर्सिटी में लॉ स्कूल के प्रमुख हैं)

यह भी पढ़ें: तीन तलाक: कांग्रेस की 32 साल पुरानी भूल को भाजपा ने किया ओवर-रूल 


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.