जगन्नाथपुरी में नहीं होता है जाति-धर्म, ऊंच-नीच के आधार पर भेद
जब विग्रह रूपी बलभद्र, सुभद्रा और स्वयं जगन्नाथ रथों पर सवार होकर निकलते हैं तो भक्तों के बीच रथों को खींचने और अपने आराध्य की एक झलक पाने के लिए होड़ लग जाती है।
नई दिल्ली, [जागरण स्पेशल]। रथयात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र, तीनों भाई-बहन स्वयं चलकर भक्तों के बीच आते हैं और समानता व सद्भाव का संदेश देते हैं। तभी तो इनके विग्रहों के हैं विशेष अर्थ...
डिशा के समुद्र तट पर जगन्नाथ मंदिर में बहन सुभद्रा तथा भाई बलभद्र के साथ विराजते हैं विग्रह- रूप में भगवान जगन्नाथ। आषाढ़ शुक्ल पक्ष द्वितीया के दिन पूजा-अर्चना के बाद ये तीनों भाई-बहन मंदिर से निकलकर विराट रथों पर सवार होते हैं और जाते हैं आम लोगों के बीच। इसके माध्यम से वे भक्तों को संदेश देते हैं कि ईश्वर की नजर में न तो कोई छोटा है न बड़ा, न कोई अमीर है और न गरीब, उनकी नजर में सभी बराबर हैं। इसलिए वे भी सभी के प्रति एकसमान भाव रखें। जगन्नाथ मंदिर से गुंडीचा मंदिर और फिर जगन्नाथ मंदिर की यह यात्रा नौ दिनों तक चलती है। इस यात्रा को गुंडीचा महोत्सव भी कहते हैं।
मुक्तिदायिनी है धाम
चारों धामों में सबसे प्रसिद्ध धाम है जगन्नाथपुरी। ब्रह्मपुराण में इसे नीलांचल तथा पुरुषोत्तम तीर्थ कहा गया है। यहां की भूमि पापनाशिनी, मुक्तिदायिनी एवं परम पवित्र मानी जाती है। मान्यता है कि यहां भगवान श्रीकृष्ण अपनी बहन सुभद्रा तथा बड़े भाई बलराम के साथ दारु (काष्ठ) विग्रह के रूप में विराजते हैं। संपूर्ण सृष्टि के स्वामी माने जाने के कारण श्रीकृष्ण जगन्नाथ कहलाते हैं। स्कंद पुराण के वैष्णव खंड, ब्रह्मपुराण, बृहद्नारदीय पुराण तथा देवी भागवत में भी इस क्षेत्र की महिमा बताई गई है।
मिट जाते हैं भेद
तीनों देवताओं के विग्रह को रथ में स्थापित कर उत्सव मनाते हुए रथ का प्रस्थान ही रथ-यात्रा के नाम से जाना जाता है। जब विग्रह रूपी बलभद्र, सुभद्रा और स्वयं जगन्नाथ रथों पर सवार होकर निकलते हैं तो भक्तों के बीच रथों को खींचने और अपने आराध्य की एक झलक पाने के लिए होड़ लग जाती है। उस समय अमीर-गरीब, निर्धन-धनी, निर्बल-सबल सभी का भेद मिट जाता है। दरअसल, भक्तगण मानते हैं कि रथ पर सवार श्रीकृष्ण, सुभद्रा एवं बलराम जी का जो दर्शन करता है, उस पर कभी-भी विपत्ति नहीं आती। पुरी मंदिर से निकलकर भगवान गुंडीचा मंदिर पहुंचते हैं। गुंडीचा मंदिर में एक सप्ताह विश्राम कर जब रथ लौटकर मंदिर की ओर आता है, तो इसे उल्टी रथ-यात्रा कहा जाता है।
मनोहारी होते हैं रथ
तीन रथों पर आरूढ़ देवताओं में सबसे आगे भगवान जगन्नाथ, मध्य में सुभद्रा तथा पीछे बलराम का रथ होता है। जगन्नाथ जी का रथ इतना विशाल होता है, जैसे कोई छोटा पर्वत हो। संपूर्ण रथ स्वर्णमंडित होता है। इसमें घंटा, घड़ियाल, किंकिड़ी आदि बजते रहते हैं। रथ की छतरी अत्यंत ऊंची एवं विशाल होती है। इन पर भांति-भांति की पताकाएं फहराती रहती हैं। हजारों लोग उस रथ में खड़े हो सकते हैं। सैकड़ों मनुष्य स्वच्छ, सफेद चांवरों को डुलाते रहते हैं। संपूर्ण रथ विविध प्रकार के चित्र पटों से सजा होता है। आगे बहुत लंबे व मजबूत रस्से बंधे होते हैं, जिन्हें भक्तगण खींचते हैं। भक्तगण तीनों रथों को गुंडीचा भवन तक अपने हाथों से ही खींचकर ले जाते हैं। उस समय का दृश्य बहुत मनोहारी होता है।
बालभोग व औषधि का अर्पण
आषाढ़ शुक्ल द्वितीया को प्रात:काल रथ सिंहद्वार पर लाकर खड़ा किया जाता है, जिसमें भगवान पधारते हैं। जिस समय सिंहासन से उठाकर भगवान रथ में बिठाए जाते हैं, उसे पांडु विजय कहते हैं। भगवान के विशेष सेवक भगवान के स्वास्थ्य का विशेष ख्याल रखते हैं। उन्हें न सिर्फ मिष्ठान्न का बालभोग लगाया जाता है, बल्कि उन्हें औषधि भी अर्पित की जाती है। भगवान किसी कीमती वस्तु के नहीं, बल्कि भाव के भूखे होते हैं।
कहा जाता है कि जब रथ चलने लगता है, उस समय भक्तगणों के शरीर में रोमांच की अनुभूति होती है। नेत्रों में अश्रु और स्वर में कंपन आ जाता है। भक्तगण कभी जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के रथ के सामने नृत्य करते हैं तो कभी ताली बजाते हैं। रथ बलगंडी स्थान पर जाकर खड़ा हो जाता है। वहां भोग लगाने का नियम है। उस स्थान पर जगन्नाथ जी भोग का रसास्वादन करते हैं। राजा-रंक, धनी-गरीब, स्त्री-पुरुष सभी बिना किसी भेदभाव के अपनी-अपनी श्रद्धा के अनुसार भगवान को भोग लगाते हैं। रास्ते के दाएं-बाएं, आगे-पीछे वाटिका में जहां भी जिसे स्थान मिलता है, वहीं भोग रख देता है। उस समय लोगों की भारी भीड़ हो जाती है।
महाप्रसाद की महिमा
जगन्नाथपुरी में जाति-धर्म, ऊंच-नीच के आधार पर कोई भेद नहीं किया जाता है। दूसरी बात यह है कि जगन्नाथ के लिए पकाए गए चावल को लेने में भी कोई विभेद नहीं किया जाता है। जगन्नाथ को चढ़ाए गए चावल को कभी अशुद्ध नहीं माना जाता है। इसे ‘महाप्रसाद’की संज्ञा दी गई है। तीनों रथ तीर्थयात्रियों द्वारा खींचे जाते हैं तथा भावुकतापूर्ण गीतों से उत्सव भी मनाया जाता है। यात्रा के समय भक्तगण जो प्रार्थना करते हैं, उसका भावार्थ यह है कि हे ईश्वर, आपने यह अवतार प्राणियों पर दया की इच्छा से ग्रहण किया है। इसलिए आप प्रसन्नतापूर्वक पधारिए। ऐसा कहकर मंगलगीत के साथ जय ध्वनि की जाती है। पुन: वाद्य, नृत्य-गीत के साथ रथ-यात्रा संपन्न हो जाती है।
विग्रह की कथा
ब्रह्मपुराण के अनुसार, मान्यता है कि भगवान विश्वकर्मा ने खुद जगन्नाथ मंदिर का निर्माण किया था। माना जाता है कि उस समय के राजा इंद्रद्युम्न के पास विश्वकर्मा स्वयं आए थे। उन्होंने एक वृद्ध व्यक्ति का रूप धरा और मंदिर बनाना शुरू कर दिया। हालांकि उन्होंने यह शर्त भी रखी थी कि मंदिर तैयार होने के पहले द्वार को खोला नहीं जाए। उसी दौरान रानी के आग्रह पर जब द्वार खोला गया तो वहां कोई नहीं था और भगवान की अधूरी मूर्तियां रखी हुई थीं। इसलिए आज भी भगवान जगन्नाथ, सुभद्रा और बलभद्र की अधूरी मूर्ति होती है। गुंडीचा मंदिर के पास मूर्ति निर्माण हुआ था इसलिए वह स्थान आज भी ब्रह्मपुर या जनकपुर कहलाता है।
भव्य है जगन्नाथ मंदिर
जगन्नाथ के विशाल मंदिर के भीतर चार खंड हैं। प्रथम, भोगमंदिर, जिसमें भगवान को भोग लगाया जाता है, द्वितीय, रंगमंदिर, जिसमें नृत्य-गायन आदि होते हैं। तृतीय, सभामंडप, जिसमें दर्शक गण (तीर्थ-यात्री) बैठते हैं और चौथा, अंतराल है। जगन्नाथ मंदिर का गुंबद 192 फीट ऊंचा है तथा यह चक्र और ध्वज से आच्छन्न है। मंदिर समुद्रतट से 7 फर्लांग दूर है। यह 20 फीट ऊंची एक छोटी-सी पहाड़ी पर स्थित है। यह गोलाकार पहाड़ी है, जिसे नीलगिरि कहकर सम्मानित किया जाता है। अंतराल की हर दिशा में एक बड़ा द्वार है। इसमें पूर्व का द्वार सबसे बड़ा और भव्य है। प्रवेशद्वार पर एक विशाल सिंह की प्रतिमा है, इसलिए इस द्वार को सिंहद्वार कहा जाता है।
(लेखक बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग में प्रोफेसर हैं)