उत्तराखंड चुनाव: हाथी व साइकिल के लिए पहाड़ों की चढ़ाई नहीं आसान
उत्तराखंड विधानसभा चुनावों में सपा और बसपा के लिए आगे की चुनावी डगर कठिन है।
सुरेंद्र प्रसाद सिंह, नैनीताल। उत्तराखंड विधानसभा चुनाव की घोषणा के साथ राजनीतिक दलों की तैयारियां तेज हो गई हैं। सत्तारुढ़ कांग्रेस और प्रबल प्रतिद्वंद्वी भाजपा के बीच कांटे की टक्कर के कयास लगाये जाने लगे हैं। वहीं राज्य में छोटे दल भी मौसमी पौधे के माफिक उग आये हैं।
राज्य की सत्ता में अपनी भागीदारी तय करने के लिए समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी की सक्ति्रयता भी दिखने लगी है। लेकिन हालात उनके पक्ष में कहीं से नहीं दिख रहे हैं। उत्तराखंड के पहाड़ों पर न कभी बसपा का हाथी चढ़ पाया और न ही सपा की साइकिल पहाड़ की ऊंचाई नाप पाई है।
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कांग्रेस व भाजपा का विकल्प बनने की मंशा से गठित उत्तराखंड क्रांति दल (यूकेडी) तो जैसे पहाड़ों में बिला गया। सक्षम नेतृत्व के अभाव में पार्टी टूट गई और उत्तराखंड परिवर्तन पार्टी बन गई। लेकिन सब प्रभावहीन साबित हुए। वामपंथी दलों ने भी पहाड़ों की खाक छानी लेकिन उनसे हाथ मिलाने वाला कोई मिला ही नहीं। हालांकि इस बार इनके बीच गोलबंदी की कोशिशें जरूर हो रही है।
उत्तराखंड के लोगों के लिए समाजवादी पार्टी शुरु से अछूत सी हो गई। उत्तराखंड अलग राज्य की मांग के दौरान हुई खूनी हिंसा के छीटें सपा आज तक साफ नहीं कर पाई है। सपा का नाम आते ही यहां के लोगों की जेहन में तत्कालीन संयुक्त उत्तर प्रदेश की सत्तारुढ़ सपा सरकार की बर्बरता सामने आ जाती है।
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पहाड़ में नहीं चल पाया है बसपा का दलित कार्ड
बसपा के हाथी की राह में पहाड़ों की कठिन चढ़ाई आड़े आ जाती है। यही वजह है कि पार्टी का ध्यान अब कठिन चढ़ाई वाले पहाड़ों की बजाय मैदानी जिलों की तक ही सीमित रह गया है। उसका दलित कार्ड यहां नहीं चल पाया। जबकि राज्य में दलितों की संख्या कम नहीं है। लेकिन उसका बड़ा हिस्सा कांग्रेस के खाते में जाता है और कुछ हिस्सा भाजपा के। ऐसे में बसपा दलितों को गोलबंद करने में नाकाम रही है।
उत्तराखंड के उदय के बाद बसपा के वोट बैंक में थोड़ी वृद्धि जरूर हुई, लेकिन पिछले कई चुनावों में उसमें मत प्रतिशत में तेज गिरावट का रुख रहा है। मैदानी क्षेत्रों में उसके इक्का-दुक्का विधायक जीते तो लेकिन बाद में वे सत्तारुढ़ दल के साथ हाथ मिलाकर बसपा को ठेंगा दिखा दिया।
वैसे वोट प्रतिशत के हिसाब से बसपा राज्य की तीसरी बड़ी पार्टी होने का दावा तो कर सकती है, लेकिन इससे उसके विधानसभा सीटें जीतने में मदद नहीं मिली है। उत्तराखंड में उसकी घोर जातिवादी मानसिकता व सोच के चलते दूसरी जातियों व वगरें के लोग बसपा के साथ होने से हिचकते हैं। पहाड़ों से अलग अब उसका सारा ध्यान हरिद्वार और ऊधम सिंह नगर पर टिक गया है। लेकिन पार्टी में भारी तोड़फोड़ और आंतरिक कलह के चलते उसकी राह आसान नहीं होगी।
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सपा का नहीं है मजबूत प्रादेशिक संगठन
समाजवादी पार्टी का प्रयास लगातार उत्तराखंड में अपनी पैठ बनाने की रही है, लेकिन यहां न उसका मजबूत संगठन है और न ही यहां के मतदाता उसकी पुरानी करतूतों को भुला पाते हैं। हालांकि 2017 के विधानसभा चुनाव की उसकी तैयारियां बहुत पहले से शुरु हो गई थीं। संगठन को मजबूत बनाने की कोशिशें तो हुईं, लेकिन अब पार्टी के शीर्ष नेताओं के बीच ही मची कलह का असर यहां स्पष्ट रुप से देखने को मिल रहा है।
पार्टी महासचिव शिवपाल यादव और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश यादव के बीच मचे घमासान के बाद उत्तराखंड में पार्टी की राह और कठिन हो गई है। अपने मूल राज्य उत्तर प्रदेश में पार्टी का अस्तित्व खतरे में है। उसे बचाने के चक्कर में सपा नेतृत्व का ध्यान उत्तराखंड पर नहीं है। इस विवाद से पहले पार्टी ने राज्य में मतदाताओं को लुभाने के मकसद से कई तरह के उपक्त्रम किये, लेकिन मौजूदा कलह ने अब तक की तैयारियों पर पानी फेर दिया है।
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