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नहीं टाला जा सकता था भारत पाकिस्तान के बीच का बंटवारा

भारत-पाकिस्तान संबंधों का ही उदाहरण लें। ऐसे तत्व हैं जो मेल-मिलाप के हर प्रयास को नकारने और दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों में मदद करने वाले कदमों को रोकने पर आमादा हैं।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 16 May 2018 11:48 AM (IST)Updated: Wed, 16 May 2018 05:10 PM (IST)
नहीं टाला जा सकता था भारत पाकिस्तान के बीच का बंटवारा
नहीं टाला जा सकता था भारत पाकिस्तान के बीच का बंटवारा

[कुलदीप नैयर]। अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय महज एक शिक्षा का केंद्र नहीं है। यह पाकिस्तान की मांग के आंदोलन में आगे की पंक्ति में रहा है और अभी भी इसका झुकाव उस तरफ है जो मिल्लत के लिए फायदेमंद समझा जाता है। एएमयू परिसर के सबसे प्रतिष्ठित केनेडी हाल में मोहम्मद अली जिन्ना की तस्वीर होना कोई अचरज की बात नहीं है। यह देश के बंटवारे के पहले भी वहीं थी और इतने सालों के दौरान भी वहीं रही है। मेरे लिए अचरज की बात है कि यह एक मई को गायब हो गई और तीन मई को फिर से आ गई। बेशक ओं, जो भारत के 80 प्रतिशत हैं, का बहुमत उस ओर झुका है जिसे हिंदुत्व कहा जाता है, लेकिन मैं नहीं सोचता कि यह लंबे समय तक टिकने वाली चीज है।हिंदू और मुसलमान सदियों से साथ रहते आए हैं। वे अभी बह रही हिंदुत्व की गरम हवा के बावजूद इसी तरह साथ रहेंगे। अपने मिजाज से ही भारत एक विविधता वाला समाज है। यह ऐसा ही बना रहेगा, भले ही कभी-कभी वह हिंदू की राह पर जाता दिखे।

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भारत-पाकिस्तान संबंध

भारत-पाकिस्तान संबंधों का ही उदाहरण लें। ऐसे तत्व हैं जो मेल-मिलाप के हर प्रयास को नकारने और दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों में मदद करने वाले कदमों को रोकने पर आमादा हैं। कुछ साल पहले, खुद पाकिस्तानियों ने लाहौर में शादमान चौक का नाम बदलने की पहल की और उनके इस व्यवहार की भारत में काफी सराहना हुई। वास्तव में चौक का नाम बदलने से इस विचार का जन्म हुआ कि बंटवारे से पहले के नायकों का सम्मान किया जाए। मुझे याद है कि कुछ साल पहले मार्च में भगत सिंह का जन्मदिवस मनाने के बाद पाकिस्तान का एक प्रतिनिधिमंडल अप्रैल में अमृतसर में जलियांवाला बाग की दुखद घटना, जिसमें हिंदू और मुसलमान दोनों शहीद हुए थे, को याद करने के लिए कार्यक्रम में शरीक होने के लिए आया। इतना जोश पैदा हुआ कि उन सैनिकों को सलाम करने के लिए कार्यक्रम बनने लगा जो आजाद हिंदू फौज और 1946 के नौसैनिकों के विद्रोह के हिस्सा थे।

हिंदू-मुसलमान विभाजित

उस समय जब हिंदू और मुसलमान आपस में विभाजित थे, अंग्रेजों को दी गई इन दो चुनौतियों से यही पता चलता है कि जब तीसरे पक्ष की बात आती है तो उसे रोकने के लिए दोनों साथ हो जाने को तैयार रहते हैं। पाकिस्तान के संस्थापक जिन्ना ने कमोबेश यही कहा था जब वह लाहौर के गवर्नमेंट लॉ कालेज आए थे और मैं वहां एक छात्र था। मेरे इस सवाल के जवाब में कि अगर कोई तीसरी ताकत भारत पर हमला करे तो इस पर पाकिस्तान का रवैया क्या होगा, उन्होंने कहा था कि दुश्मन को पराजित करने के लिए पाकिस्तान के सैनिक भारत के सैनिकों की तरफ से लड़ेंगे। यह अलग बात है कि सैनिक तानाशाह जनरल मोहम्मद अयूब खान ने भारत को कोई मदद नहीं भेजी जब 1962 में चीन की ओर से इस पर हमला हुआ।

शादमान चौक

भगत सिंह सिर्फ 23 साल के थे जब वह अंग्रेज शासकों से लड़ते हुए फांसी के तख्ते तक गए थे। अपने प्राणों की आहुति देने और भारत को बंधन से मुक्त कराने की राजनीति के अलावा उनकी कोई राजनीति नहीं थी। मुझे इस बात पर बहुत अचरज हुआ कि शादमान चौक का नाम बदलने के खिलाफ 14 आवेदन दिए गए थे। यह वही गोल चक्कर था जहां भगत सिंह तथा उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को फांसी देने के लिए तख्ते खड़े किए गए थे। जिन्ना का नाम बंटवारे के साथ जोड़ा जाता है। क्या बंटवारे के लिए वह अकेले जिम्मेदार थे?

दोनों पक्षों के बीच मतभेद

मैंने जब 1990 के दशक की शुरुआत में अंतिम वायसराय लार्ड माउंटबेटन से लंदन में उनके निवास पर बातचीत की तो उन्होंने कहा कि तत्कालीन प्रधानमंत्री क्लेमेंट रिचर्ड एटली चाहते थे कि भारत और पाकिस्तान के बीच कुछ साझा रहे। माउंटबेटन ने इसकी कोशिश की, लेकिन जिन्ना ने कहा कि वह भारतीय नेताओं पर भरोसा नहीं करते। उन्होंने कैबिनेट मिशन प्लास स्वीकार कर लिया जिसमें एक कमजोर केंद्र की परिकल्पना की गई थी। लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने इसे अस्वीकार कर दिया और कहा कि सब कुछ संविधान सभा के फैसले पर निर्भर करता है जिसकी बैठक पहले से ही नई दिल्ली में चल रही है। वक्त गुजरने के साथ दोनों पक्षों के बीच मतभेद बढ़ गए।

पाकिस्तान की स्थापना का प्रस्ताव

मुस्लिम लीग ने 1940 में जब पाकिस्तान की स्थापना का प्रस्ताव पारित किया तो यह दिखाई देने लगा था कि बंटवारे को टाला नहीं जा सकता। दोनों पक्ष वास्तविकता का सामना नहीं कर रहे थे जब उन्होंने आबादी के हस्तांतरण के विचार को खारिज कर दिया। लोगों ने इसे खुद कर लिया, हिंदुओं और सिखों ने इस तरफ आकर और मुसलमानों ने दूसरी तरफ जाकर। बाकी इतिहास है। जिन्ना पाकिस्तान में उतने ही आदरणीय हैं जितना भारत में महात्मा गांधी। यह वक्त हिंदुओं को यह समझने का है कि बंटवारा मुसलमानों की मुक्ति के लिए था। यह 1947 की बात है। आज मुसलमानों की आबादी करीब 17 करोड़ है और वे भारत के मामलों में कोई मायने नहीं रखते। सच है कि उन्हें मतदान का अधिकार है और देश संविधान से चलता है जो एक व्यक्ति को एक वोट का अधिकार देता है।

जो कहा, वह सच हो गया

फैसला करने में उनकी कोई भूमिका नहीं है। बंटवारे के पहले मौलाना अबुल कलाम आजाद ने जो कहा, वह सच हो गया। उन्होंने चेताया था कि संख्या में कम होने से शायद वे असुरक्षित महसूस करें, लेकिन वे गर्व से कह सकेंगे कि भारत उतना ही उनका है जितना हिंदुओं का। एक बार पाकिस्तान बन गया तो मुसलमानों से हिंदू कहेंगे कि उन्होंने अपना हिस्सा ले लिया है और उन्हें पाकिस्तान जाना चाहिए। महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू तथा सरदार पटेल बंटवारे के बाद देश को विविधता वाला बनाए रखने में सक्षम थे। लेकिन आज मजहब के आधार पर खींची गई रेखा की याद लागों का पीछा कर रही है। विविधतावाद कमजोर हो गया है। सेक्युलरिज्म को मजबूत करने की जरूरत है ताकि देश में हर समुदाय और हर क्षेत्र महसूस करे कि देश के मामलों में वह बराबर है।

[लेखक जाने-माने स्तंभकार हैं]


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