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मार्क 3 रॉकेट के सफल प्रक्षेपण के साथ इसरो के अंतरिक्ष में बढ़ते कदम

करीब तीस वर्ष पूर्व भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में भविष्य की असीम संभावनाओं को खोजने की पहल की थी।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 07 Jun 2017 09:49 AM (IST)Updated: Wed, 07 Jun 2017 09:49 AM (IST)
मार्क 3 रॉकेट के सफल प्रक्षेपण के साथ इसरो के अंतरिक्ष में बढ़ते कदम
मार्क 3 रॉकेट के सफल प्रक्षेपण के साथ इसरो के अंतरिक्ष में बढ़ते कदम

जाहिद खान

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भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन यानी इसरो ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में एक और बड़ी छलांग लगाते हुए देश के अब तक के सबसे बड़े रॉकेट जीएसएलवी मार्क-3 का सफलतापूर्वक परीक्षण कर लिया है। रॉकेट ने निर्धारित समय पर श्रीहरिकोटा के सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के दूसरे लांच पैड से उड़ान भरी और संचार उपग्रह जीसैट-19 को कक्षा में स्थापित कर दिया। 640 टन वजनी जीएसएलवी मार्क-3 पूरी तरह से स्वदेशी है।

इसमें देश में ही विकसित क्रायोजेनिक इंजन लगा है जिसमें द्रव ऑक्सीजन और हाइड्रोजन का ईंधन के तौर पर इस्तेमाल होता है। इसरो का यह प्रक्षेपण अंतरिक्ष के क्षेत्र में उसके लिए मील का पत्थर साबित होगा। इस कामयाबी के साथ भारत उन देशों की कतार में शामिल हो गया है जो चार टन तक के उपग्रह प्रक्षेपित करते हैं। जीएसएलवी मार्क-3, 4000 किलोग्राम तक के पेलोड को उठाकर भूतुल्यकालिक अंतरण कक्षा (जीटीओ) और 10 हजार किलोग्राम तक के पेलोड को पृथ्वी की निचली कक्षा में पहुंचाने में सक्षम है। इससे पहले भारत दो-तीन टन से अधिक वजन के संचार उपग्रहों के प्रक्षेपण के लिए विदेशों पर निर्भर था।

जीएसएलवी मार्क-3 रॉकेट तीन चरणों वाला अंतरिक्ष यान है जो स्वदेशी क्रायोजेनिक अपर स्टेज इंजन से लैस है। रॉकेट की कार्यप्रणाली कुछ इस तरह से है-पहले चरण में बड़े बूस्टर जलते हैं, उसके बाद विशाल सेंट्रल इंजन अपना काम शुरू करता है जो रॉकेट को ऊंचाई तक ले जाते हैं। उसके बाद बूस्टर और हीट शील्ड भी अलग हो जाती हैं। फिर क्रायोजेनिक इंजन काम करना शुरू करता है जो अंत में उपग्रह को उसकी कक्षा में पहुंचता है। जीएसएलवी मार्क-3 रॉकेट अपने साथ जो संचार उपग्रह जीसैट-19 ले गया है वह आने वाले दिनों में संचार और इंटरनेट की दुनिया में एक बड़ी क्रांति लाएगा। इससे देशवासियों को प्रति सेकेंड चार गीगाबाइट डाटा मिल सकेगा।

यह उपग्रह 10 साल तक काम करेगा। इससे डिजिटल इंडिया के सपने को ताकत मिलेगी। इस उपग्रह में इसरो ने कई नई तकनीकों का इस्तेमाल किया है। मसलन 3136 किलोग्राम वजन के जीसैट-19 में स्वदेशी लिथियम आयन बैटरी का इस्तेमाल किया गया है जो आगे चलकर कार या बस में इस्तेमाल हो सकती है। इसरो को यह कामयाबी रातों-रात नहीं मिली है। इसके लिए भारतीय वैज्ञानिकों ने सालों कड़ी मेहनत की है। एक दौर वह भी था जब भारतीय वैज्ञानिक अपने रॉकेटों को साइकिल और बैलगाड़ी पर लादकर प्रक्षेपण स्थल पर ले जाया करते थे। नई पीढ़ी को यह जानकर हैरानी होगी कि वैज्ञानिकों ने पहले रॉकेट के लिए नारियल के पेड़ों को लांचिंग पैड बनाया था।

इन्हीं मुश्किल हालातों से निकलकर 15 अगस्त, 1969 में विक्रम साराभाई के नेतृत्व में इसरो ने अपना आगाज किया और पहला सैटेलाइट आर्यभट्ट बनाया जिसे सोवियत संघ की मदद से 19 अप्रैल, 1975 को प्रक्षेपित किया गया था। तब किसी ने भी यह सोचा नहीं होगा कि यही इसरो आगे चलकर दुनिया भर में भारत का झंडा बुलंद करेगा। भारतीय वैज्ञानिकों की कड़ी मेहनत और लगन से कदम दर कदम भारत का कद में बढ़ता चला गया। साल 2008 में इसरो ने चंद्रयान मिशन भेजकर इतिहास रच दिया। पांच नवंबर, 2013 को इसरो ने एक बार फिर दुनिया को चौंका दिया।

अपने प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी 25 से इसने मंगलयान को सफलतापूर्वक छोड़ा जो 24 सितंबर, 2014 को मंगल की कक्षा में पहुंचने में सफल हो गया। इस उपलब्धि के साथ ही भारत पहले ही प्रयास में मंगल पर यान भेजने वाला दुनिया का पहला देश बन गया। इसरो के मार्स मिशन की दुनिया भर में इसलिए भी चर्चा हुई कि इस पूरे मिशन का कुल खर्च 450 करोड़ रुपये से भी कम था। एक वक्त ऐसा भी आया था जब अमेरिका और उसके दबाव में रूस ने इसे क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक देने से साफ इन्कार कर दिया था, लेकिन इसरो ने हिम्मत नहीं हारी और करीब पंद्रह साल की कड़ी मेहनत के बाद इस तकनीक पर महारत हासिल कर ली।

इसरो ने साल 2016 में तकनीकी तौर पर काफी विकास किया। इस साल उसने दोबारा प्रयोग में आने वाले प्रक्षेपण यान आरएलवी और स्क्रैमजेट इंजन का सफल प्रयोग किया। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते हैं, जब फरवरी 2017 में अपने स्वदेशी ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी 37 के जरिये एक साथ 104 उपग्रह प्रक्षेपित कर इसरो ने एक नया कीर्तिमान रच दिया। जाहिर है सैटेलाइट लांचिंग के अंतरराष्ट्रीय बाजार में भारत अब महाशक्तियों को टक्कर देने लगा है। पिछले कुछ सालों में भारत सैटेलाइट लांचिंग के बाजार में सबसे भरोसेमंद देश बनकर सामने आया है।

इसरो ने अभी तलक दुनिया के 21 देशों के सैटेलाइट को अंतरिक्ष में प्रक्षेपित किया है जिसमें गूगल और एयरबस जैसी बड़ी कंपनियों के सैटेलाइट भी शामिल हैं। साल 1994 से लेकर अभी तक इसरो ने कुल 227 सैटेलाइट लांच किए हैं जिनमें से 180 विदेशी और 47 भारतीय हैं। इसरो दुनिया के दीगर देशों की तुलना में बेहद कम कीमत पर सैटेलाइट अंतरिक्ष में भेजता है। अमेरिका, जापान, चीन और यूरोप की तुलना में उपग्रह प्रक्षेपण भारत में 66 गुना सस्ता है। हालांकि रूस भी सस्ते में सैटेलाइट लांच करता है, लेकिन वहां से भी प्रक्षेपण भारत की तुलना में चार गुना महंगा है।

जीएसएलवी मार्क-3 न सिर्फ भारी देसी उपग्रहों के प्रक्षेपण में देश के पैसे बचाएगा, बल्कि अन्य देशों के चार टन श्रेणी वाले उपग्रहों को प्रक्षेपित करने का महंगा बाजार भी भारत के लिए खोल देगा। 21 लाख करोड़ रुपये के स्पेस मार्केट में अभी कमाई के लिहाज से अमेरिका की हिस्सेदारी 41 फीसद है, जबकि भारत का हिस्सा बमुश्किल चार फीसद तक पहुंचा है। सैटेलाइट प्रक्षेपण का जो बाजार है उसमें बड़े सैटेलाइट का काफी हिस्सा है। ऐसे में जीएसएलवी मार्क-3 रॉकेट की कामयाबी से अंतरिक्ष बाजार में भारत की और हिस्सेदारी बढ़ेगी। इसकी मदद से वह कहीं ज्यादा पेलोड यानी भारी उपग्रह आसमान में पहुंचा सकेगा।

जीएसएलवी मार्क-3 रॉकेट की शानदार कामयाबी के बाद इसरो खामोश नहीं बैठ गया है, बल्कि आसमां के ऊपर और भी जहां तलाश रहा है। अब उसने अंतरिक्ष में यात्री भेजने के अपने महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट पर काम करना शुरू कर दिया है। यदि वह इसमें सफल हो जाता है तो रूस, अमेरिका और चीन के बाद भारत चौथा ऐसा देश बन जाएगा जिसका एक मानवीय अंतरिक्ष उड़ान कार्यक्रम है। इसरो ने यह साबित कर दिया है कि अगर काम करने का अच्छा माहौल और आजादी मिले तो भारतीय संस्थाएं किसी भी मामले में विदेशी संस्थाओं से कमतर नहीं रह सकती हैं। बस जरूरत उन्हें प्रोत्साहित करने और उचित बजट प्रदान करने की है।

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


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