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चीन के लिए ताइवान है दुखती रग, इसके ही जरिए अब भारत कर रहा ड्रैगन को साधने की कोशिश

ताइवान के जरिए भारत चीन को काउंटर बैलेंस करना चाहता है लेकिन इसकी कितनी संभावनाएं हैं? ये सवाल इसलिए खास है क्‍योंकि जानकार मानते हैं कि वन चाइना पॉलिसी को छेड़े बिना ये काफी हद तक ऐसा किया जा सकता है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 21 Oct 2020 01:26 PM (IST)Updated: Wed, 21 Oct 2020 02:18 PM (IST)
चीन के लिए ताइवान है दुखती रग, इसके ही जरिए अब भारत कर रहा ड्रैगन को साधने की कोशिश
ताइवान के जरिए चीन को सबक सिखाने की कोशिश

नई दिल्‍ली (ऑनलाइन डेस्‍क)। वास्‍तविक नियंत्रण रेखा पर चीन से जारी तनाव को देखते हुए अब भारत ने भी उसको अलग-अलग मोर्चों पर जवाब देने की तैयारी कर ली है। इसके तहत जो खाका खींचा गया है उसमें ही जापान में हुई क्‍वाड की बैठक शामिल थी। इसके बाद नवंबर 2020 में होने वाला मालाबार अभ्‍यास भी इसकी ही एक कड़ी है। इसमें भारत-जापान-अमेरिका के अलावा इस बार ऑस्‍ट्रेलिया भी शामिल हो रहा है। वहीं, दूसरी तरफ चीन को सबक सिखाने के मकसद से ही भारत ने ताइवान से भी नजदीकी बढ़ानी शुरू कर दी है। ताइवान को चीन अपना हिस्‍सा बताता है इसलिए ये उसकी दुखती रग भी है। यही वजह है कि वो चाहता है कि ताइवान के साथ कोई भी देश किसी भी तरह के निजी संबंधों को कायम करने से दूर रहे। यही वजह है कि वो ताइवान को लेकर कई बार कई देशों को सीधेतौर पर चेतावनी भी देता रहा है। माना जा रहा है कि भारत ऐसा करके कहीं न कहीं चीन को साधने की कोशिश कर रहा है।

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हालांकि, जवाहरलाल नेहरू की प्रोफेसर अलका आचार्य ऐसा नहीं मानती हैं। उनका कहना है कि चीन को साधने के लिए ताइवान का इस्‍तेमाल करना काफी हद तक नामुमकिन है। ऐसा इसलिए है, क्‍योंकि ताइवान को भारत एक आजाद देश के तौर पर मान्‍यता नहीं देता है। इसके अलावा भारत की चीन पर आत्‍मनिर्भरता में कोई कमी नहीं आई है। इतना जरूर हो सकता है कि भारत अपनी आर्थिक जरूरतों को कुछ हद तक चीन से ताइवान पर शिफ्ट कर दे। आपको बता दें कि भारत वर्तमान में केवल आईटी सेक्‍टर में ही ताइवान से नजदीकी बढ़ा रहा है।

इस सेक्‍टर में ताइवान एक बड़ा नाम है। उनका कहना है कि इस सेक्‍टर में चीन के निवेश या उस पर आत्‍मनिर्भरता को पहले से ही धीरे-धीरे कम किया जा रहा है। भारत ये भी चाहता है कि आईटी सेक्‍टर के कुछ संवेदनशील क्षेत्रों में चीन के निवेश को कम किया जाए। लिहाजा एक सीमित स्‍तर पर ताइवान के साथ आगे बढ़ा जा सकता है और बढ़ना भी चाहिए। उनके मुताबिक, भारत वन चाइना पॉलिसी में किसी भी तरह का बदलाव न करते हुए यदि आगे बढ़ता है तो चीन को शायद इससे कोई परेशानी नहीं होगी।

उनके मुताबिक ताइवान से पहले भी भारत आर्थिक तौर पर हुड़ा हुआ था, लेकिन वो चीन के माध्‍यम से था। इस बार भारत ने सीधेतौर पर ताइवान से जुड़ने की पहल की है। इसमें चीन की भूमिका खत्‍म हो जाती है। प्रोफेसर अलका ये भी मानती हैं क‍ि ताइवान से इस तरह से सीधा व्‍यापार करना या आर्थिक रिश्‍ते सुधारना भी चीन को नागवार गुजर सकता है, लेकिन इससे बहुत ज्‍यादा फर्क नहीं पड़ता है। इसको संतुलित भी किया जा सकता है। इसकी एक बड़ी वजह वो ये भी मानती हैं कि ताइवान दुनिया के कई देशों के साथ अपने आर्थिक रिश्‍ते मजबूत कर रहा है। ताइवान ये कहीं पर सीधेतौर पर है तो कहीं दूसरे देशों के माघ्‍यम से ऐसा कर रहा है। 

आपको बता दें कि दिल्‍ली में काफी समय ताइवान इकोनॉमिक एंड कल्‍चरल काउंसिल मौजूद है। इसकी मौजूदगी इस बात का सुबूत है कि भारत ताइवान से संबंधों को मजबूत बनाने का पक्षधर है। प्रोफेसर अलका आचार्य का कहना है कि बीते आठ माह में विभिन्‍न कारणों से चीन के सीधेतौर पर भारत में किए गए निवेश में कुछ कमी जरूर आई है। कुछ जगहों पर इसकी वजह चीन पर प्रतिबंध लगाना भी रहा है। उनके मुताबिक, कई मामलों में भारत की चीन पर निर्भरता काफी अधिक है। इसके बावजूद भारत अभी वन चाइना पॉलिसी को उलटने के हक में नहीं है। भारत ही नहीं, बल्कि अमेरिका में इस पॉलिसी के खिलाफ होने के बाद आजतक कुछ नहीं कर सका है।

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