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कितना मुमकिन है ईवीएम की जगह बैलेट पेपर पर वापस लौटना

ईवीएम की जगह बैलट पेपर से चुनाव कराने के पारंपरिक तौर-तरीकों की तरफ लौटने की वकालत करने वाले लोग शायद यह भूल जाते हैं कि भारत तकनीक के मामले में एक तेज बढ़ता हुआ मुल्क है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 23 Mar 2018 11:43 AM (IST)Updated: Fri, 23 Mar 2018 11:43 AM (IST)
कितना मुमकिन है ईवीएम की जगह बैलेट पेपर पर वापस लौटना
कितना मुमकिन है ईवीएम की जगह बैलेट पेपर पर वापस लौटना

नई दिल्ली [अभिषेक कुमार] तकनीक और उससे जुड़ी समस्याओं को जब राजनीतिक प्रतिद्वंदिता के नजरिये से देखा जाता है तो समस्या सुलझने के बजाय उसके और उलझने का खतरा पैदा हो जाता है। इधर यूपी और बिहार में उपचुनावों में जीत हासिल करने के बाद भी जिस तरह से समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी और कांग्रेस ने भी इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) के बजाय बैलट पेपर से चुनाव कराने की मांग नए सिरे से की है, उससे ईवीएम को खलनायक साबित करने का एक नया आधार तैयार होने लगा है। हालत यह है कि केंद्र में बैठी और ईवीएम के प्रयोग की पक्षधर रही भारतीय जनता पार्टी भी इसके दबाव में आ गई है और इसके वरिष्ठ नेता राम माधव यह कहने को मजबूर हुए हैं कि अगर सभी दल ऐसा चाहते हैं तो ईवीएम की जगह बैलट पेपर के इस्तेमाल पर विचार किया जा सकता है। जहां तक चुनावी नतीजों को प्रभावित करने के मकसद से ईवीएम में छेड़छाड़ के आरोपों का सवाल है तो ऐसे कई वाकयों का हवाला दिया जाता है।

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वर्ष 2010 में बीजेपी नेताओं क्रमश: किरीट सोमैया और देवेंद्र फडनवीस (जो अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री हैं) एंटी-ईवीएम कहे गए आंदोलन के एक ऐसे कार्यक्रम में उपस्थित हुए थे, जिसमें हैदराबाद के एक इंजीनियर हरिप्रसाद ने यह दिखाया था कि कैसे विभिन्न चरणों में ईवीएम में दर्ज नतीजों में हैकिंग के जरिये फेरबदल की जा सकती है। पिछले साल महाराष्ट्र नगरपालिका चुनावों में भी ईवीएम के जरिये धांधली की शिकायत की गई थी। नासिक, पुणे और यरवदा आदि निर्वाचन क्षेत्रों में ईवीएम को लेकर गड़बड़ी की शिकायतें दर्ज कराई गई थीं। इन घटनाओं और शिकायतों के मद्देनजर यह सवाल बार-बार उठता रहा है कि क्या टेंपरिंग-प्रूफ कहलाने वाली ईवीएम में किसी किस्म की छेड़छाड़ मुमकिन है? उल्लेखनीय है कि मई, 2010 में अमेरिका के मिशीगन विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने दावा किया था कि उनके पास भारत की ईवीएम मशीनों को हैक करने की क्षमता है। इन शोधकर्ताओं ने घर पर बनाई गई एक मशीन और मोबाइल फोन की मदद से ईवीएम में दर्ज नतीजों को बदलने की क्षमता का प्रदर्शन भी किया था।

हालांकि उस वक्त तत्कालीन चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति ने ऐसे दावे को भारतीय ईवीएम मशीनों के सुरक्षा प्रबंधों के मद्देनजर खारिज कर दिया था। उन्होंने कहा था कि भारत की ईवीएम मशीनों में इतने पुख्ता प्रबंध किए गए हैं कि उनमें दर्ज नतीजों में फेरबदल करना संभव नहीं है। चुनाव आयोग बाद में भी अपने इस स्टैंड पर कायम रहा। यही नहीं, अदालत में भी ऐसे आरोप साबित नहीं किए जा सके और सुप्रीम कोर्ट ने ऐसे मामलों को खारिज कर दिया था। राजनीति में जनहित के मुद्दों को लेकर मतभेद होना और आरोप-प्रत्यारोप लगाना स्वाभाविक है, लेकिन बैंकिंग से लेकर चुनावी प्रक्रिया तक में साइबर हैकिंग जैसी दिनोंदिन विराट होती मुश्किल को सिर्फ एनडीए सरकार की हरकत के रूप में केंद्रित करने की कोशिश करना असल में समस्या के समाधान के रास्ते में अड़चन डालने जैसा है। इसके लिए राजनीति और दलगत हितों के पार जाकर देखना होगा कि क्या ईवीएम की हैकिंग वास्तव में इतनी बड़ी समस्या है कि वह लोकतंत्र में आम जनता की आस्था तक को डिगा सके?

तकनीकी विशेषज्ञों की नजर से देखें तो जिस तरह कंप्यूटरीकृत सिस्टम से जुड़ी मशीनों को हैक करना आज कोई मुश्किल बात नहीं है, उसी तरह इसकी सुरक्षा के पुख्ता और वैकल्पिक इंतजाम बनाना भी असंभव नहीं है। ध्यान रहे कि ईवीएम भी आखिर एक मशीन ही है। ईवीएम कंप्यूटर प्रोग्रामिंग से संचालित होने वाला सिस्टम है जिसे जरूरत के मुताबिक बदला जा सकता है, सुधारा जा सकता है और कोई तकनीकी खतरा हो तो उसे बेहतर बनाया जा सकता है। बेशक आज के हैकर दिनोंदिन खतरनाक और सुरक्षा विशेषज्ञों के मुकाबले ज्यादा ताकतवर होते जा रहे हैं। यही वजह है कि आज आइटी के कामकाज से जुड़ी प्राय: हरेक कंपनी अपने तकनीकी विशेषज्ञों के अलावा ऐसे एथिकल हैकरों की मदद भी लेती है जो हैकिंग के नए-नए टूल्स की जानकारी जुटाते हैं और साइबर हमलों से बचाने वाले प्रबंध करते हैं।

ऐसे में ईवीएम जैसे सिस्टम को सुधारा नहीं जा सकता-यह सच्चाई से मुंह फेरने वाली बात है। असल में ईवीएम के सुरक्षा प्रबंधों में रह गई खामियों के दृष्टिगत ही उसमें समय-समय पर तब्दीलियां की गई हैं। जैसे पहले एक ही तरह की ईवीएम होती थी, उसमें वोटों की गिनती दोबारा नहीं हो सकती थी, लेकिन इन मशीनों का व्यापक विरोध होने के बाद ईवीएम का दूसरा प्रकार लाया गया, जिसमें वोटों को फिर से गिनना संभव हो गया। इसके लिए ईवीएम में पेपर ट्रेल (वीवीपैट) की व्यवस्था जोड़ी गई ताकि वोट पुन: गिने जा सकें। हालांकि इसका एक पहलू यह है कि इससे वोटरों की पहचान उजागर होने का खतरा पैदा हो जाता है। ईवीएम की जगह बैलट पेपर से चुनाव कराने के पारंपरिक तौर-तरीकों की तरफ लौटने की वकालत करने वाले लोग शायद यह भूल जाते हैं कि भारत तकनीक के मामले में एक तेज बढ़ता हुआ मुल्क है।

ऐसा कहते समय उन्हें इसका भी ध्यान नहीं आता है कि बैलट पेपर से होने वाले चुनावों के वक्त बूथ कैप्चरिंग जैसी धांधली से लेकर वोट गिनने तक में कितनी समस्याओं का सामना देश को करना पड़ता था। इन तमाम दिक्कतों का त्वरित समाधान ईवीएम से निकला है और धांधलियों की गुंजाइश प्राय: समाप्त हो गई है। हमारा देश इस मामले में कितना अव्वल रहा है, यह इससे भी साबित होता है कि चुनावी प्रक्रिया के लिए इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन (ईवीएम) का इस्तेमाल अमेरिका जैसे आधुनिक लोकतंत्र में भी नहीं होता है, जबकि इसे वहां पिछले कई वर्षो से आजमाया जा रहा है। आम तौर पर ईवीएम के जरिये हुए मतदान को विवादों से परे माना गया है। हालांकि साइबर हैकिंग की समस्या को देखते हुए ईवीएम को एक पुख्ता इंतजाम मानना भूल हो सकती है, खासकर तब जब हमारे लोकतंत्र का पूरा दारोमदार चुनावी व्यवस्था पर टिका है। इसलिए आज सभी दलों को मिल-बैठकर इस पर विचार करने की जरूरत है कि कैसे ईवीएम फूलप्रूफ-हैकप्रूफ बन सके ताकि भारत जैसे विशाल देश में भारी-भरकम खर्चे वाली चुनावी व्यवस्था का यह सरल, सस्ता और त्वरित उपाय बेहद भरोसेमंद टूल बन जाए।

(लेखक एफआइएस ग्लोबल संस्था से संबद्ध हैं)  


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