क्या नारियों को पूजे जाने वाला भारत वाकई महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है?
क्या भारत वाकई में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है? यह सवाल हाल में एक संस्था थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के सर्वेक्षण की रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों पर उठा है।
[मनीषा सिंह]। क्या भारत वाकई में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है? यह सवाल हाल में एक संस्था थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के सर्वेक्षण की रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों पर उठा है, जिसमें भारत को महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक मुल्क करार दिया गया है। भारत सरकार ने इन आंकड़ों को अविश्वसनीय बताते हुए रिपोर्ट को तुरंत ही खारिज किया है।
सरकार का तर्क है कि ये आंकड़े सिर्फ 548 लोगों की धारणा या राय पर आधारित हैं, न कि किसी विश्वसनीय डाटा संग्रहण की प्रक्रिया पर, इसलिए इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता। सरकार की प्रतिक्रिया इसलिए जायज है, क्योंकि इस सर्वेक्षण में भारत को सऊदी अरब, अफगानिस्तान और सीरिया जैसे महिलाविरोधी समाजों वाले देशों से भी पीछे ठहराया गया है जो किसी भी मानक से उचित नहीं है, पर यह सर्वेक्षण इस पर विचार करने के लिए अवश्य प्रेरित करता है कि क्या हमारे देश में महिलाएं कहीं से भी सुरक्षित महसूस करती हैं।
सर्वेक्षण में यौन हिंसा व उत्पीड़न, मानव तस्करी, स्वास्थ्य सेवा, सामाजिक भेदभाव, सांस्कृतिक परंपराओं से जुड़ी रूढ़ियों के आधार पर महिलाओं की उपेक्षा के छह पैमाने थे, जिनमें से तीन पैमानों (सांस्कृतिक रूढ़ियों, यौन हिंसा और मानव तस्करी) में भारत सबसे ऊपर घोषित किया गया। इधर महिला एवं बाल विकास मंत्री मेनका गांधी और राष्ट्रीय महिला आयोग ने प्रतिप्रश्न उठाया है कि सऊदी अरब व अफगानिस्तान जैसे बंद समाजों वाले देशों के मुकाबले भारत की स्थिति महिला सुरक्षा के मामले में इतनी खराब कैसे हो सकती है, जबकि यहां महिलाओं को कई मामलों में पिछले अरसे में काफी आजादी मिली है। इससे लगता है कि इस सर्वेक्षण का उद्देश्य किसी स्वार्थ के लिए भारत की छवि बिगाड़ना है और महिला अधिकारों के मामले में यहां हुई तरक्की के प्रति आंखें मूंद लेना है।
सरकार ने करोड़ों रुपया महिला सुरक्षा की मदों में किए खर्च
सर्वेक्षण के निष्कर्ष और उनकी आलोचना अपनी जगह है, पर तटस्थ नजरिये से यह देखा जाए कि निर्भया कांड के बाद के पांच वर्षों में महिलाओं की स्थिति को लेकर देश में कोई सुधार हुआ है या नहीं तो ज्यादातर मामलों में नकारात्मक तस्वीर ही उभरती है। यह सच है कि निर्भया कांड के बाद के इस आधे दशक में महिलाओं की सार्वजनिक उपस्थिति को सहज और सुरक्षित बनाने के लिए सरकार ने कई काम किए हैं, करोड़ों रुपया महिला सुरक्षा व उत्थान की मदों में खर्च किया गया है, पर इनका अपेक्षित असर इस रूप में नहीं हुआ है कि देश में महिलाएं सार्वजनिक स्थानों पर बेखौफ घूम सकें। शॉपिंग मॉल में, बसों-ट्रेनों में, नए साल के आयोजनों में महिलाओं के साथ अब भी शोहदे किस्म के लोग मौका मिलते ही कोई बदतमीजी करने से बाज नहीं आ रहे हैं। उनमें कानून का कोई डर अब भी नहीं पैदा हुआ है और उन्हें लगता है कि अकेली निकली स्त्री उनके मनोरंजन का साधन है जिसे छेड़ना और जिससे दुष्कर्म कर डालना उनका हक है। यहां तक कि आपराधिक मानसिकता वाले ऐसे लोग विदेशी पर्यटक महिलाओं के साथ भी कोई बेजा हरकत करने से बाज नहीं आते हैं जिससे अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत की बेहद खराब छवि बनती है।
लड़कियों के साथ बरती गई निर्दयता और दुष्कर्म की घटनाएं
यूं निर्भया कांड के बाद देश में उठे जनांदोलन से लगा था कि सरकार और समाज स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर सचेत होंगे और ऐसे उपाय किए जाएंगे, जिनसे अपराधी तत्व अकेली घूमती महिला पर भी बुरी नजर डालने की हिम्मत न कर सकें, लेकिन इस अरसे में मध्यप्रदेश के मंदसौर और जम्मू-कश्मीर के कठुआ में लड़कियों के साथ बरती गई निर्दयता और दुष्कर्म की घटनाओं ने साबित किया है कि हालात में जरा भी तब्दीली नहीं हुई है। हालांकि सरकार के स्तर पर उपायों और योजनाओं को लागू करने में कोई बड़ी कोताही नहीं दिखती है। केंद्र सरकार ने सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में बनाए गए आयोग की सिफारिशों पर कानून में बदलाव किए गए। निर्भया फंड में पहले 100 करोड़ और फिर 300 करोड़ का प्रावधान कर सुनिश्चित किया गया कि सार्वजनिक स्थानों पर सीसीटीवी लगाकर, महिला थाने स्थापित करके और हेल्पलाइनें शुरू करके महिला सुरक्षा के चक्र को पुख्ता किया जाए, पर इन ज्यादातर उपायों पर या तो सक्रियता से अमल नहीं हुआ या फिर उनकी निगरानी का माकूल प्रबंध नहीं हो सका।
इसका नतीजा यह निकला कि महिलाविरोधी अपराधों की संख्या कम होने के बजाय बढ़ गई। जैसे- 2015 में देश भर में दुष्कर्म के 34,000 से ज्यादा मामले सामने आए थे। यह संख्या 2016 में 34,600 हो गई। वर्ष 2016 में तो हर 13 मिनट में दुष्कर्म की एक घटना सामने आई। यही नहीं, सामूहिक दुष्कर्म की अब तो ऐसी घटनाएं प्रकाश में आ रही हैं जिनमें मासूम बच्चियों और वृद्ध महिलाओं तक से ऐसी दरिंदगी की जा रही है। छेड़छाड़ और दुष्कर्म का विरोध करने पर महिलाओं को जिंदा तक जलाया जा रहा है। यही स्थिति दहेज हत्याओं, घरेलू हिंसा और चेहरे पर तेजाब फेंकने वाले मामलों में है। ये सारी घटनाएं तब हुई हैं, जब इनसे जुड़े कानूनी प्रावधानों और सजाओं को सख्त बनाया गया है।
जनांदोलनों और विरोध के कारण देश में जागरूकता बढ़ी
वैसे इन सारे मामलों में बढ़ोतरी के पीछे एक तर्क यह हो सकता है कि भारत में दुष्कर्म, उत्पीड़न और महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मामलों में वृद्धि इसलिए ज्यादा दिखाई देती है, क्योंकि जनांदोलनों और विरोध के कारण देश में जागरूकता बढ़ी है और अब ऐसे अधिक मामलों को पुलिस-प्रशासन के पास जाकर दर्ज कराया जाता है। इसी जागरूकता का निचोड़ थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन की सर्वेक्षण रिपोर्ट में दिखाई देता है, जिसमें नीतियां बनाने वाले, पत्रकारों, स्वास्थ्य के क्षेत्र में काम करने वाले विशेषज्ञों की राय ली गई। इसलिए जरूरी है कि सर्वेक्षण को सिरे से खारिज करने के बजाय इस बात पर गंभीरता से विचार किया जाए कि आखिर इतने सारे उपाय करने के बाद भी देश में महिला सुरक्षा के उपायों में क्या कमी रह गई है और अब ऐसा क्या किया जाए, जिससे देश और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यह संदेश जाए कि सच में भारत महिलाओं के लिए सुरक्षित देश है। विदेशी सर्वेक्षणों, रैंकिंग और आंकड़ों को हम भले नजरअंदाज कर दें, लेकिन ऐसा आत्मावलोकन अवश्य करना चाहिए कि आखिर नारियों की पूजा की बात कहने वाले मुल्क भारत का समाज महिला सुरक्षा और सम्मान के मामले में पिछड़ा हुआ क्यों साबित होता है।
क्या भारत वाकई में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देश है? यह सवाल हाल में एक संस्था थॉमसन रॉयटर्स फाउंडेशन के सर्वेक्षण की रिपोर्ट में दिए गए आंकड़ों पर उठा है, जिसमें भारत को महिलाओं के लिए दुनिया का सबसे खतरनाक देश करार दिया गया है। भले ही सरकार ने इन आंकड़ों को अविश्वसनीय बताते हुए रिपोर्ट को खारिज कर दिया है, पर यह सर्वेक्षण हमें इस सवाल पर विचार करने के लिए अवश्य प्रेरित करता है कि क्या हमारे देश में महिलाएं सुरक्षित महसूस करती है।
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