International Women's Day : अपना वजूद अपने आप गढ़ती बॉलीवुड की ये नायिकाएं
कुछ अभिनेत्रियों के पास उतनी तेजी से काम नहीं आता लेकिन वे अपना असर सीमित फिल्मों के बावजूद छोड़ दिया करती हैं। ऐसी ही एक अभिनेत्री भूमि पेडनेकर हैं और दूसरी स्वरा भास्कर।
(सुनील मिश्र)। पीढ़ियां अपनी पहचान खुद तय करती हैं। चाहे पुरुष हों या स्त्री, उनकी पहचान उन ठोस चरित्रों, बुनियादों और प्रभावों वाले प्रतिनिधियों से जानी जाती है। ये प्रतिनिधि या आइकॉन एक दिन में तैयार नहीं होते और न ही ऐसी कोई मध्यमार्गी प्रक्रिया या पथ है जिसमें से चलकर इस तरह की कोई पहचान बन जाती हो। स्वाभाविक रूप से इसके लिए बहुत संघर्ष और परिश्रम के साथ मजबूत इरादे, हतोत्साहित न होने वाली वृत्ति और कड़े परिश्रम को महत्वपूर्ण या अपरिहार्य माना जाता है।
विश्व महिला दिवस के मौके पर हम सिनेमा से ऐसी नायिकाओं के बारे में बात करें तो प्रमुख रूप से कुछेक नाम तुरन्त कौंधते हैं जिनकी पहचान पिछले कुछ समय में उनकी उपस्थिति, ध्यान आकृष्ट किए जाने योग्य उनके चरित्र या किरदार और उसमें बिंधकर अपने को प्रस्तुत करने वाले जज्बे को लेकर बनी है। ऐसे नामों में दीपिका पादुकोण, आलिया भट्ट, श्रद्धा कपूर, भूमि पेडनेकर, तापसी पन्नू आदि उल्लेखनीय है जिनकी वजह से हमारे सामने नयी पीढ़ी ने अपने लिए जिस तरह का सिनेमा गढ़ा है उसमें इनकी भूमिका बड़ी अहम है।
इस श्रृंखला में सबसे आखिरी में जिस तापसी पन्नू का नाम आया है उनकी नयी फिल्म 'बदला' आज ही प्रदर्शित हो रही है और महानायक अमिताभ बच्चन के साथ, जिनके संग काम करने थोड़ा और बहुमूल्य समय किसी इन्स्टीट्यूट के संग व्यतीत करने की तरह है। यह भी उल्लेखनीय है कि तापसी की बच्चन साहब के साथ यह दूसरी फिल्म है, पहले पिंक में दोनों साथ आ चुके हैं। दक्षिण भारतीय फिल्मों में अपनी प्रतिभा का बखूबी प्रदर्शन कर तापसी इधर पिंक, द गाजी अटैक, बेबी, नाम शाबाना, सूरमा, मनमर्जियाँ आदि हिन्दी फिल्मों में नजर आयी है। बदला में भी वे आत्मविश्वास से भरी तेज तर्रार युवती के किरदार में हैं। तापसी की खूबी उनकी सहजता है और चेहरे और शख्सियत से वे जटिल और चुनौतीपूर्ण भूमिकाओं में आसानी से चुनी जाती हैं।
इधर श्रद्धा कपूर और आलिया भट्ट का नाम लगभग एक साथ इसलिए लिया जाता है क्योंकि दोनों लगभग एक ही वक्त में फिल्मों में आयीं और दोनों ही के पिता अपने समय के प्रसिद्ध नाम, एक शक्ति कपूर खलनायक एवं चरित्र अभिनेता तथा दूसरे महेश भट्ट एक जीनियस निर्देशक।यही कारण रहा है कि श्रद्धा और आलिया दोनों ने अपने आपको अलग-अलग अन्दाज में सिद्ध किया है। एक तरफ श्रद्धा में एक तरह की कोमलता और सादगी देखी जा सकती है वहीं दूसरी ओर आलिया के चेहरे में उम्र से कुछ बढ़कर या हटकर गम्भीरता और जटिलता दिखायी पड़ती है। आशिकी टू, हैदर, हाफ गर्लफ्रेण्ड, हसीना पारकर श्रद्धा को स्थापित करती हैं वहीं साहो उनकी एक बड़ी आने वाली फिल्म है।
इधर आलिया के छोटे से कद, मासूम से चेहरे में जो उदात्त भाव और पिता से प्रेरित बौद्धिक तत्व, जीनियसनेस से प्रेरित आवेग दिखायी देते हैं वो माँ सोनी राजदान के व्यक्तित्व और प्रतिभा का भी भाग हैं। समग्रता में वह श्रद्धा से अधिक सक्रिय और अवसर मिलने पर हर चुनौतीपूर्ण किरदार को निभा जाने वाली नायिका के रूप में तेजी से अपनी जगह बना रही हैं, हाल की गली बॉय और पिछली फिल्में स्टूडेण्ट ऑफ द इयर, हाइवे, टू स्टेट्स, हम्प्टी शर्मा की दुल्हनियाँ, कपूर एण्ड संस, उड़ता पंजाब, डियर जिन्दगी, बद्रीनाथ की दुल्हनियाँ, राजी से आलिया साबित कर देती है कि वो हमारे आज के सिनेमा के माध्यम से प्रतिनिधि नायिका के रूप में अपनी उल्लेखनीय पहचान बना रही है। कलंक उनकी एक बड़ी फिल्म है जो आगे उनकी पहचान को और समृद्ध कर सकती है।
कुछ अभिनेत्रियों के पास उतनी तेजी से काम नहीं आता लेकिन वे अपना असर सीमित फिल्मों के बावजूद छोड़ दिया करती हैं। ऐसी ही एक अभिनेत्री भूमि पेडनेकर हैं और दूसरी स्वरा भास्कर। भूमि को अभी हम सोनचिडि़या में देख रहे हैं, दम लगा के हइशा ने स्थूल नायिका की चुनौती बखूबी निभायी उन्होंने। टॉयलेट एक प्रेमकथा भी
दिलचस्प थी। इधर स्वरा का तो आत्मविश्वास देखते ही बनता है, वे नायिका के रूप में नहीं ली जातीं लेकिन वे अपने किरदारों से याद रह जाती हैं चाहे फिर वो रांझणा हो या फिर गुजारिश, तनु वेड्स मनु, लिज़न अमाया, तनु वेड्स मनु रिटर्न, प्रेम रतन धन पायो, निल बटे सन्नाटा, स्वरा चरित्र और जीवन में मुखरता और बहादुरी की पर्याय भी हैं। यहीं पर कंगना रनौत का जिक्र न हो तो यह विषय शायद अधूरा रहे।
सही है कि लम्बा वक्त, तमाम छोटी भूमिकाएँ, हतोत्साह और मुश्किलों के बावजूद इस अभिनेत्री ने मणिकर्णिका तक आते-आते अपना वजूद स्थापित कर लिया है। उनको तीन नेशनल अवार्ड यों ही नहीं मिले फैशन, क्वीन और तनु वेड्स मनु रिटर्न के लिए। तनु वेड्स मनु के दोनों भागों के अलावा रज्जो, क्वीन, रिवाल्वर रानी, रंगून, सिमरन, कट्टी बट्टी आदि अनेक फिल्में उन्होंने तेरह वर्ष के कैरियर में कीं। मणिकर्णिका से उनकी पहचान एक बड़ी फिल्म में, एक बड़े चरित्र को निबाहने वाली एक बड़ी अभिनेत्री के रूप में साफ तौर पर मिली है।
चलते-चलते हमें इस श्रृंखला की एक वरिष्ठ अभिनेत्री दीपिका पादुकोण को नहीं भूलना चाहिए जो वास्तव में बारह साल में ओम शान्ति ओम से लेकर बचना ऐ हसीनों, ये जवानी है दीवानी, चेन्नई एक्सप्रेस, पीकू, तमाशा, बाजीराव मस्तानी और पद्मावत जैसी खास फिल्मों के माध्यम से एक तरह से स्वयंसिद्धा अभिनेत्री के रूप में स्थापित हैं। हमारे आज के सिनेमा की ये ही प्रतिनिधि नायिकाएँ हैं जिनके माध्यम से सिनेमा के जरिए समाज की स्त्री फोकस होती है, प्रतिबिम्बित होती है।