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सौ वर्षों में बड़ा लंबा सफर तय किया है, तब कहीं जाकर आ कह सके हैं म्हारी छोरियां, छोरों से कम हैं के?

आमतौर पर बेटियों को सशक्त बनाने की प्रक्रिया में उन्हें बेटों के तौर पर प्रस्तुत किया जाता है। लेकिन समग्रता में इसे सही नहीं कहा जा सकता है। बेटियों को बेटों की तरह बनाने से बेहतर है कि उनकी अपनी बेटी की पहचान को कायम रहने दें।

By Kamal VermaEdited By: Published: Mon, 08 Mar 2021 08:56 AM (IST)Updated: Mon, 08 Mar 2021 08:56 AM (IST)
सौ वर्षों में बड़ा लंबा सफर तय किया है, तब कहीं जाकर आ कह सके हैं म्हारी छोरियां, छोरों से कम हैं के?
म्हारी छोरियां, छोरों से कम हैं के?

अमित तिवारी। विश्व महिला दिवस के मौके पर बेटे की बात से चौंकिए मत। दरअसल कुछ बरस पहले एक विज्ञापन आया था, जिसमें मुख्य पात्र हर छोटी-बड़ी मुश्किल आने पर एक ही जवाब देता है, मेरा बेटा है न..। विज्ञापन खत्म होते-होते पता चलता है कि इसके केंद्र में एक बेटी है, जिसे पूरे समय बेटा कहकर संबोधित किया गया। इस विज्ञापन का संदेश सक्षम होती बेटियों की ताकत दिखाना ही था। बेटियों की शक्ति दिखाने का यह तरीका कई बरस बीत जाने के बाद भी कमोबेश ऐसा ही है।

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आज भी हम यह कहकर ही गर्व अनुभव करते हैं कि -म्हारी छोरियां, छोरों से कम हैं के?यह सब देखते हुए एक प्रश्न मन में उठता है कि आखिर बेटियां सक्षम हैं, इस बात को बताने के लिए उन्हें बेटा कहना क्यों जरूरी है? तुलनात्मक रूप से बेटा हो जाने में ही उसकी श्रेष्ठता क्यों है? क्या बेटी को बेटी कहने से उसकी शक्ति का आभास नहीं हो पाता है? और यदि सशक्तीकरण के मोर्चे पर मीलों आगे बढ़ जाने का दावा करने के बाद भी बेटी का बेटी होना उसकी शक्ति नहीं बन पाया है, तो क्या यह पूरी यात्रा पर प्रश्नचिह्न सा नहीं लगाता है?

वस्तुत: इस विचार के मूल में हमारे मन-मस्तिष्क पर छाया पुरुष-श्रेष्ठ का भाव ही है। यह वही भाव है, जिसके प्रभाव में हम किसी का पुरुष को चूडि़यां पहन लेने का उलाहना देते हैं। यह वही भाव है, जहां शक्ति और साम‌र्थ्य प्रदर्शित करने के लिए -मर्द- शब्द के ही प्रयोग की जरूरत आन पड़ती है। यही कारण है कि एक स्त्री के साम‌र्थ्यवान होने का भाव हमारे मन में तब बन पाता है, जब उसे -मर्दानी- कहा जाता है। इस महिला दिवस के बहाने हमें इन प्रश्नों के हल भी खोजने होंगे।

चले तो बहुत, मगर पहुंचे कहां : विश्व महिला दिवस को मनाने का इतिहास एक सदी पुराना है। अलग-अलग देश-काल और कैलेंडर से होते हुए वर्ष 1921 में आठ मार्च को महिला दिवस मनाने पर मुहर लगी थी। आज इसे पूरे 100 साल हो गए हैं। इस एक सदी के सफर में अधिकारों के मामले में निसंदेह महिलाओं ने बहुत लंबा सफर तय किया है। लेकिन अब भी जब बात स्त्री सशक्तीकरण की आती है, तो दुनिया मीलों पीछे दिखाई देती है। कहते हैं कि साहित्य समाज का आईना होता है और यह आईना दिखाता है कि अभी हमारी प्रगति के चेहरे पर बहुत धूल है। आज भी साहित्य किसी शक्तिशाली स्त्री में पौरुष की तलाश करता है।

आज भी स्त्रीत्व शक्तिहीनता का ही बोध कराता है। साहित्य की यह सीमा असल में समाज की ही सीमा है।लंबे सफर के बाद भी नतीजा सिफर के इर्द-गिर्द रह जाने का बड़ा कारण यह भी है कि राह में खोट है। यह कहना गलत होगा कि महिला सशक्तीकरण के सभी प्रयास निष्फल रहे हैं। निसंदेह ऐसा नहीं है। समाज के प्रयासों का ही परिणाम है कि महिलाओं को केवल भोग की वस्तु समझने वाली पश्चिमी संस्कृति से पोषित देश महिलाओं को मतदान का अधिकार देते हैं।

यह प्रयासों का ही परिणाम है कि महिलाओं के उत्पीड़न से जुड़ी अनगिनत कुप्रथाएं आज हाशिए पर पहुंच गई हैं। किंतु सभी प्रयास मिलकर भी इस संदर्भ में इस -किंतु- शब्द को खत्म नहीं कर पाए हैं। इसका कारण क्या है? यदि पड़ताल करें तो कारण मूल में ही छिपा मिल जाता है। महिला सशक्तीकरण के मौजूदा प्रयासों में पुरानी बंदिशों को तोड़ देने की एक हूक सी दिखती है। बंदिशों की टीस कहीं इतने गहरे में जमी है कि मन उनसे बाहर निकलकर स्वच्छंद सोचना ही नहीं चाहता। यही कारण है कि अधिकतर प्रयास किसी नए समाज के सृजन पर नहीं, पुराने नियमों के ध्वंस पर केंद्रित रह जाते हैं। और यह तो सत्य है कि कि ध्वंस के भाव से सृजन नहीं होता।

बंदिशें तोड़ देने की बंदिश छोड़नी होगी : हम बंदिशों को तोड़ देने की अनचाही बंदिश में जकड़ रहे हैं। महिला सशक्तीकरण के बड़े पैरोकारों के पास भी अक्सर इस बात की कोई स्पष्ट तस्वीर नहीं दिखती है कि आखिर सशक्त होना किसे कहा जाएगा। क्या स्त्री को बाजार के विस्तार का माध्यम बना देना भर ही सशक्तीकरण है? क्या हर वह बात जिसके लिए पुरुष पर सवाल उठाए जाते रहे, वही सब करने में स्त्री का सक्षम हो जाना ही सशक्तीकरण है? क्या -व्हाई शुड बॉयज हैव ऑल द फन- की दलील देकर हर उस दलदल में कदम रख देना ही सशक्तीकरण है, जिसके लिए पुरुष को गलत कहा जाता रहा है? 

बेटे को कुछ क्यों नहीं कहा जाता है- के तर्क के साथ क्या बेटियों को उन्हीं व्यसनों की ओर बढ़ने देना ही सशक्तीकरण है? अनर्गल बंदिशें थीं, तो क्या उन बंदिशों को तोड़ देने के नाम पर ही सब कुछ करना सशक्तीकरण है?महिला दिवस मनाते समय ऐसे कई प्रश्नों पर हमें विचार करना होगा। हमें विचारना होगा कि सशक्तीकरण का पैमाना क्या है। कितनी भी गति से चला जाए, यदि दिशा सही नहीं होगी तो लक्ष्य कभी प्राप्त नहीं हो सकता।

स्त्री सशक्तीकरण के मामले में भी हमें विचार करना ही होगा कि एक सदी से ज्यादा के समय में महिलाओं के सशक्त होने की यात्रा में कितनी दूरी सही दिशा में तय की गई है। हिमा दास से लेकर कमला हैरिस तक, अनगिनत उदाहरण हैं, जो हमें इस यात्रा के प्रति गर्व से भर देते हैं। लेकिन एक कटु सत्य यह भी है कि पथभ्रष्ट होकर स्वयं को, परिवार को और प्रकारांतर में समाज को कष्ट देने के उदाहरण भी बहुत हैं।

यूएन की थीम में छिपा है संदेश : इस साल विश्व महिला दिवस पर संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ने -वीमेन इन लीडरशिप- यानी नेतृत्व की भूमिका में महिलाओं को लाने की थीम तय की है। यूएन की यह थीम ऊपर उठाए गए सवाल को ही मजबूत करती है कि -चले तो बहुत, मगर पहुंचे कहां?- दरअसल पिछले कुछ दशक में महिला सशक्तीकरण का भाव बहुत हद तक कुछ बंदिशों को तोड़ देने और बस महिलाओं के पुरुष हो जाने की ओर बढ़ता चला गया। यही कारण रहा कि एक सदी बीत जाने के बाद भी नेतृत्वकारी भूमिकाओं में महिलाओं की भागीदारी नगण्य बनी रही।

अतार्किक सी उपलब्धियों को ही बड़ी उपलब्धि बताकर भरमाया जाता रहा। निर्णय की प्रक्रिया में महिलाओं की भूमिका न के बराबर रही। अब संयुक्त राष्ट्र ने इस बात को अनुभव किया है। इस वैश्विक संस्था ने परोक्ष तौर पर आईना दिखाया है कि सशक्तीकरण की जिस चमक से हम चकाचौंध रहे, वह हीरे की नहीं, वरन कांच की चमक है। स्त्री को बस बाजार के विस्तार की वस्तु बना देना उपलब्धि नहीं है। वैश्विक अर्थव्यवस्था में आधी आबादी की भागीदारी अब भी बहुत कम है।

इसका बड़ा कारण भी यही है कि उन्हें छद्म लक्ष्य और छद्म उपलब्धियों के भ्रम में रखकर बड़े पैमाने पर नेतृत्व से दूर रखा गया, जबकि यह सत्य है कि प्रबंधन की कला स्त्री में प्राकृतिक रूप से होती है। दो परिवारों को समेटकर रिश्तों को व्यवस्थित कर पाना पुरुष के बस में नहीं होता। बेहतर प्रबंधन करने वाला बेहतर निर्णय लेने में भी सक्षम होता है। संयुक्त राष्ट्र की इस साल की थीम से निसंदेह तस्वीर को बदलने की राह निकलेगी।

बेटी को बेटी रहने दो : पुन: इसी विषय पर आते हैं कि आखिर बेटी को बेटा बनाने की इच्छा हमारे मन में क्यों है? हमें बेटी को बेटी की तरह ही गर्व से बढ़ने देना चाहिए। बेटी के मन पर यह छाप छोड़ने की कतई जरूरत नहीं है कि उसके समक्ष श्रेष्ठता साबित करने के लिए बेटा हो जाना ही एकमात्र विकल्प है। वास्तव में यह विचार ही कहीं न कहीं उसके मन में हीनता का अंकुरण करता है और हमारी दृष्टि को भी संकुचित करता है। हमें यह भी स्वीकारना होगा कि स्त्री और पुरुष समाज रूपी नदी के दो किनारे हैं।

इनके बीच का संतुलन ही नदी को नदी बनाता है। किसी भी किनारे की दूसरे से कोई लड़ाई नहीं होती। जैसे ही किनारे एक-दूसरे पर हावी होने का प्रयास करते हैं, नदी संकरी होती जाती है। दोनों किनारों की स्वतंत्र पहचान में ही नदी के प्राण हैं। इसी तरह, स्त्री के सशक्त होने का पैमाना कभी पुरुष नहीं हो सकता है। श्रेष्ठता और साम‌र्थ्य स्त्री या पुरुष होने से परे के गुण हैं। वस्तुत: एक स्त्री जब अपने स्त्रीत्व के साथ साम‌र्थ्यवान बनती है, तब वह स्वयं ही श्रेष्ठ हो जाती है। वही स्त्री नेतृत्व करती है।

वहीं पुरुष के रूप में साम‌र्थ्य अíजत करने वाली स्त्री तो स्वयं समाज के ढांचे में एक पुरुष ही होकर रह जाती है। वही पुरुष जिससे अधिकारों और समानता का कथित संघर्ष चल रहा है।इसलिए भविष्य में जब कोई बेटी अपने दम पर आगे बढ़कर पहचान अíजत करे, तब उसे एक साम‌र्थ्यवान बेटी के रूप में ही स्वीकारने की जरूरत है, न कि बेटा कहने की। अगली बार जब बिटिया जीवन में गर्व के क्षण लाए, तब बेझिझक कहिएगा, -मेरी बेटी है न..।


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