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जांबाज महिलाओं के संघर्ष की प्रेरक कहानियां, अपनी मेहनत से हासिल किया मुकाम

माना जाता था कि ये ऐसे क्षेत्र हैं जहां महिलाएं काम नहीं कर सकती हैं, लेकिन इन महिलाओं ने अपनी अपनी मेहनत से उस इलाके में भी सफलता का झंडा गाड़ दिया है

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Thu, 11 Oct 2018 10:01 AM (IST)Updated: Thu, 11 Oct 2018 10:02 AM (IST)
जांबाज महिलाओं के संघर्ष की प्रेरक कहानियां, अपनी मेहनत से हासिल किया मुकाम
जांबाज महिलाओं के संघर्ष की प्रेरक कहानियां, अपनी मेहनत से हासिल किया मुकाम

नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। आज ‘अंतरराष्ट्रीय बालिका दिवस’ पर पेश है उन जांबाज महिलाओं के संघर्ष की प्रेरक कहानियां, जिन्होंने उस क्षेत्र में अपनी मेहनत से मुकाम हासिल किया, जिसमें कभी पुरुषों का बोलबाला था। माना जाता था कि ये ऐसे क्षेत्र हैं जहां महिलाएं काम नहीं कर सकती हैं, लेकिन इन महिलाओं ने अपनी अपनी मेहनत से उस इलाके में भी सफलता का झंडा गाड़ दिया है...

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साहस से सटीकता

यह कहानी कानपुर की राजमिस्त्री कलावती देवी, प्लंबर पूर्णिमा देवी, बीना प्रोजेक्ट की ड्रिल मशीन ऑपरेटर मुन्नी देवी और वाराणसी में वेल्डिंग का काम करने वाली मुन्नी देवी की है। जो काम केवल पुरुषों के समझे जाते थे, उनमें इन महिलाओं की दखल ने दूसरी महिलाओं के लिए एक नई राह तो गढ़ी ही पुरुषों को भी यह संदेश दिया कि किसी भी क्षेत्र, चाहे वह शारीरिक श्रम का ही क्यों न हो, पर केवल उनका ही आधिपत्य नहीं। कलावती देवी ने जब कानपुर में काम शुरू किया तो उन्हें घर के लोगों के ताने सुनने पड़े। लेकिन वह हर ईंट के साथ साहस की इमारत गढ़ती चली गईं। प्लंबर के रूप में कानपुर की पूर्णिमा देवी का काम तो और भी कठिन था।

पूर्णिमा ने अपनी लगन से महिलाओं के लिए श्रम के इस क्षेत्र में मेहनत की एक नई राह खोली। कोल इंडिया के बीना प्रोजेक्ट में ड्रिल मशीन ऑपरेटर के रूप में मुन्नी देवी के काम को देख साथी पुरुष अब कहते हैं कि मुझे अपनी बेटियों की चिंता नहीं होती। इनके मजबूत इरादों के सामने पहाड़ भी थर्राते हैं। वाराणसी में आठ साल की उम्र से ही वेल्डिंग का काम कर रही मुन्नी देवी ने जब यह काम शुरू किया तो लोग अचरज जताते हुए हंसते थे, मजाक उड़ाते थे। लोगों को लगता था कि यह पुरुषों को काम है, लेकिन वह बगैर झिझके अपना काम करती रही।

मुन्नी देवी

सुर की मिसाल

पटना से 15 किलोमीटर दूर दानापुर-शिवाला रोड के तकरीबन बीचो-बीच है ढिबरा गांव। जमसौत पंचायत के इस दलित टोले की रिहाइश जहां खत्म होती है, वहीं से धान के खेत शुरू होते हैं। ढिबरा गांव की नई पहचान है सरगम बैंड। इस बैंड की सभी सदस्य महिलाएं हैं। देश के इस इकलौते दलित महिला बैंड की बिहार के कोने-कोने ही नहीं, दिल्ली-मुंबई तक धूम है। इन महिलाओं की जिंदगानी पर ‘वुमनिया’ नाम की एक डाक्युमेंट्री भी बनी है। यह ‘बैंड कौन बनेगा करोड़पति’ के सेट पर भी गया और अमिताभ बच्चन की फरमाइश पर उन्हें ‘मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है...’, गाना भी सुनाया। खेतों में निराई-गुड़ाई, रोपनी-कटनी करने वाली इन दलित महिलाओं ने सुर-ताल और धुन भी नायाब तरीके से सीखा। लगभग डेढ़ साल तक रियाज किया।

उन्हें सिखाने वाले मास्टर आदित्य गुंजन को लगा कि अनपढ़ होने की वजह से महिलाएं सुर-ताल नहीं पकड़ पा रही हैं तो उन्होंने उनकी बोली से ही आसान शब्द ढूंढ़े और दाल-भात- भुजिया..., भात-दाल-भुजिया को लय-ताल में ढाल दिया। फिर क्या था गाड़ी पटरी पर चल पड़ी। इस महिला बैंड पार्टी ने अपने गुरु गुंजन की शादी में पहली बार बैंड बजा अपना पहला पब्लिक परफार्मेंस दिया। घर से बाहर निकलने की झिझक यहीं से टूटी। सरगम बैंड की बैंड मास्टर सविता बताती हैं कि जब हमने बैंड-बाजे को अपनाया तो घर-गांव के मर्दों ने खूब तंज कसे। बोले-मर्दों का काम करने चली हैं। लाज-शर्म सब धो दिया है, लेकिन हम सबने भी जिद ठान ली कि कुछ भी हो हुनर सीखकर ही रहेंगे। शुरुआत में हम 16 थे, छह ने हार मान ली, लेकिन बाकी हम सब डटे रहे।

नारी सशक्तीकरण

एक अनुमान के मुताबिक भारत के ग्रामीण इलाके में रहने वाली हर सौ बच्चियों में से केवल एक ही बारहवीं कक्षा तक पहुंच पाती है। ऐसे देश में मुरादाबाद की नाहिद फातिमा ने लड़कियों के लिए मदरसा और अनूपशहर के परदादा परदादी एजुकेशनल सोसाइटी की रेणुका गुप्ता ने महिला स्कूल खोल कर मिसाल कायम की। इन दोनों का मानना है कि लड़कियों को शिक्षा से वंचित करने का अर्थ है आधी दुनिया को ज्ञान से वंचित रखना। ये दोनों ज्ञान के साथ लड़कियों को उनके हक व अधिकार के बारे में भी जागरूक करती हैं।

दोनों का ही मानना है कि लड़कियों का सर्वांगीण विकास जरूरी है। बेटियां हुनरमंद होंगी तो उन्हें किसी के सहारे की जरूरत नहीं होगी। ये अपने छात्रों को यह भी बताती हैं कि जो अधिकार उनके भाई को, उनके पिता को या आने वाले कल में उनके पति को है, वही इन लड़कियों को भी हासिल है। छोटे-छोटे कदमों से मीलों का सफर तलाशा है।

नाहिद फातिम

मसाला क्वीन लीना

पुरानी दिल्ली के खारी बावली बाजार की अपनी एक अलग पहचान है। यह एशिया के सबसे बड़े मसाला बाजार के रूप में स्थापित है। यह कहानी है मेवों और मसालों की एक दुकान की जो पुरानी दिल्ली की इसी खारी बावली में स्थित है। हिना ट्रेडर्स के नाम से मसाले की यह दुकान लीना के पिता चलाते थे। 2006 में उनका देहांत हो गया। परिवार में किसी अन्य पुरुष सदस्य के न होने और आय के किसी अन्य स्रोत के न होने के कारण लीना चौहान ने इस दुकान को चलाने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली। उनका घर मार्केट में ही है और आस-पड़ोस में अन्य रिश्तेदारों की भी दुकानें हैं, इसलिए उनकी मां यह दुकान नहीं चला सकती थीं।

जब लीना ने यह दुकान संभाली तब वह महज 10 वर्ष की थीं और उस समय पास के ही एक स्कूल में आठवीं कक्षा की छात्रा थीं। दुकान को संभालने के लिए उन्होंने स्कूल जाना छोड़ दिया और आगे बारहवीं कक्षा तक की पढ़ाई प्राइवेट छात्र के रूप में की। लीना बताती हैं कि शुरुआत में दुकान को संभालना काफी मुश्किल काम था। एक लड़की को मार्केट में मसाले बेचते देखना लोगों को अजीब लगता था। इसलिए उसने एक लड़के की तरह दिखने की कोशिश करना शुरू कर दिया। समस्या सिर्फ मार्केट में काम करने वाले लोगों तक ही नहीं थी। कई बार दुकान पर आने वाले ग्राहकों से भी परेशानियों का सामना करना पड़ता था। ऐसे ग्राहक बेवजह अटपटे सवाल करते थे। बहरहाल उन्होंने अपनी हिम्मत से न सिर्फ अपने पूरे परिवार को संभाला, बल्कि आज दूसरों के लिए भी मिसाल है।

लीना चौहान

हमारा पल

यह कहानी उन महिलाओं की है, जिन्होंने पुरुषों के दबदबे वाले क्षेत्र में अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराने का इतिहास है। अर्चना जींद के रजाना गांव में पैदा हुई थीं। 18 साल की उम्र में ही उनकी शादी हो गई। पति टैक्सी चलाते थे। अर्चना हमेशा से कुछ ऐसा करना चाहती थीं जो सबसे अलग हो। इसके लिए उन्होंने करनाल बस स्टैंड से बस चलाने क लिए ट्रेनिंग ली और अपने जैसी महिलाओं व पुरुषों के लिए मिसाल बन गईं। कुमाऊं की पहली ई-रिक्शा चालक के रूप में हल्द्वानी की रानी मैसी की कहानी भी कम नहीं। रानी के पति माली थे। एक दिन वह गिरे, दिमाग में चोट लगी। एक तरफ घर की आय रुकी तो दूसरी तरफ इलाज में पैसे खर्च होने शुरू हुए।

बेटी नर्सिंग पढ़ रही थी। ऐसे में रानी ने ई-रिक्शा चलाने के साथ इसकी एजेंसी और सेंटर खोल लिया। खुद की समस्या तो हल की ही, दूसरों के लिए भी मिसाल कायम की। गुलाबी ऑटो लेडी ड्राइवर्स अब रोहतक की पहचान बन चुकी हैं। महिलाओं और कॉलेज जाने वाली लड़कियों की सुरक्षित और सहज यात्रा के लिए गुलाबी ऑटो रिक्शा की शुरुआत की गई थी। चाहे अर्चना हों, रानी मेस्सी या गुलाबी ऑटो लेडी ड्राइवर्स, इन्होंने यह साबित कर दिया कि कभी भी कोई काम छोटा नहीं होता। जब दिल में इच्छा कुछ अच्छा करने की हो, तो हर छोटा काम भी बड़ा हो जाता है।

अर्चना

सुरक्षा में सख्त हाथ

दिल्ली की लेडी बाउंसर मेहरुन्निशा की कहानी मुलायम कंधों पर मजबूत हाथों और मजबूत इरादों की कहानी है। मेहरुन्निशा करीब एक दशक से बाउंसर हैं और पिछले कुछेक सालों से हौज खास के एक पब में 10 घंटे की नाइट शिफ्ट करती हैं। इनके ऊपर पब में महिलाओं पर ज्यादती न होने देने, लड़ाइयां रोकने, महिला कस्टमर्स को सुरक्षित बाहर निकालने और अवैध ड्रग को पकड़ने की जिम्मेदारी है। लखनऊ की ऊषा ने तो बर्दाश्त की हद टूटने के बाद हिम्मत की ऐसी मिसाल कायम की कि दूसरों के लिए मार्गदर्शक बन गईं। 2006 में उनके एक साथी ने उनके साथ बलात्कार करने की कोशिश की थी। इस घटना के बाद ऊषा एक साल ट्रॉमा में रहीं, लेकिन अब वही ऊषा हजारों लड़कियों की ताकत हैं। वह देश भर में करीब 65 हजार लड़कियों को सेल्फ डिफेंस की ट्रेनिंग दे चुकी हैं।

रामनगर नौबस्तापुर मोहल्ले में रहने वाली ऊषा कहती हैं कि सड़क चलते लड़कों के कमेंट, हाथ पकड़ लेने जैसी घटनाएं उनके साथ खूब होती थीं। तब हमने तय किया कि हमें अपनी सुरक्षा के लिए खुद ही कुछ करना होगा। कोई हमारी मदद करने के लिए आगे नहीं आएगा। हमारे गु्रप ने फिर एक ड्रेस बनवाई -रेड और ब्लैक। जब हम वह पहन कर निकलते तो कमेंट पास होता कि देखो लाल परियां जा रही हैं। फिर एक दिन एक कमेंट आया रेड ब्रिगेड। यह कमेंट हमें इतना अच्छा लगा कि हमने अपने ग्रुप का नाम रेड ब्रिगेड ही रख लिया। इसी तरह चंदौली जिले के डंगरा शाहपुर की युवतियां पुरुष गोताखोरों को मात दे रही हैं। गोताखोरी की इनकी क्षमता और कुशलता देख जिला प्रशासन किसी मुसीबत में पहले इन्हीं को बुलाता है।

मेहरुन्निशा

कामयाबी की कहानी

सारी दुनिया का बोझ हम उठाते हैं, लोग आते हैं लोग जाते हैं...फिल्म कुली के इस गाने में महिलाओं की भूमिका। अजीब है, पर सच है। भारत के लगभग आठ हजार रेलवे स्टेशन में से एक है पंजाब का लुधियाना रेलवे जंक्शन। इस स्टेशन पर सामान लेकर उतरने वाले यात्रियों को एक खुशनुमा एहसास तब होता है जब उनके सामने माया और लाजवती नामक महिला कुली आ जाती हैं। माया के पति भी कुली थे। अप्रैल 2012 में उनकी मौत के बाद अब इसी काम के सहारे उनके जीवन की गाड़ी पटरी पर दौड़ रही है। शुरुआत में लोकलाज के कारण यह काम करने की उनकी इच्छा नहीं थी, पर हालात के आगे मजबूर हो गईं।

आज घर दूर होने के बाद भी वह बिना छुट्टी लिए वह अपनी ड्यूटी निभाती हैं। चाहे दिन हो या रात। आज वह स्टेशन पर 12 घंटे काम करती हैं। कुली यूनियन की ओर से ड्यूटी निर्धारित होती है, जिसके हिसाब से कभी रात तो कभी दिन में ड्यूटी मिलती है। जरूरत पड़ने पर या फिर ड्यूटी को लेकर कोई मुश्किल आने पर रेलवे के अधिकारी उनका सहयोग करते हैं। माया पंजाब की पहली महिला कुली हैं। माया को देख कर और उनसे प्रेरित होकर ही लाजवती ने भी इसे अपनाया।

लाजवती 


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