अन्न-सब्जियों की पुरानी प्रजातियों की ओर वापसी की पहल, जानें कैसे ये हैं स्वास्थ्यवर्धक
नई मुंबई के खारघर निवासी अरविंद शर्मा सुबह टहलने निकलते हैं तो वापस लौटते समय फुटपाथ पर आसपास के गांवों से कुछ पुरानी प्रजातियों की सब्जियां बेच रही महिलाओं से ऐसी हरी सब्जियां खरीदकर घर लाते हैं जो सामान्यतया सब्जी मंडी में उन्हें नहीं मिलतीं।
ओमप्रकाश तिवारी, मुंबई। नई मुंबई के खारघर निवासी अरविंद शर्मा सुबह टहलने निकलते हैं तो वापस लौटते समय फुटपाथ पर आसपास के गांवों से कुछ पुरानी प्रजातियों की सब्जियां बेच रही महिलाओं से ऐसी हरी सब्जियां खरीदकर घर लाते हैं, जो सामान्यतया सब्जी मंडी में उन्हें नहीं मिलतीं। उनके अनुसार ये सब्जियां उन्हें कई प्रकार की व्याधियों-रोगों से बचाने का काम करती हैं। वास्तव में धीमा जहर समझी जानेवाली मधुमेह एवं उच्च रक्तचाप जैसी बीमारियों से घिरे दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों में अब मोटे अनाज की रोटियां और पुरानी प्रजातियों के फल-सब्जियां जीवनशैली का हिस्सा बनती जा रही हैं, लेकिन इनकी उपलब्धता सीमित है। इसी कमी को दूर करने के लिए मुंबई के निकट स्थित महाराष्ट्र के पालघर जिले में मोटे अनाजों एवं पारंपरिक सब्जियों को बचाने और उगाने की एक मुहिम शुरू की गई है।
इस क्षेत्र में पूरी गंभीरता से काम कर रहे श्री चैतन्य सेवा ट्रस्ट ने इसी वर्ष सितंबर माह में दो बार फारेस्ट फूड फेस्टिवल का आयोजन किया, जिसमें आस-पास के गांवों की करीब 100 जनजातीय महिलाओं ने हिस्सा लिया। ये महिलाएं अपने साथ अपने-अपने क्षेत्र में होने वाली पारंपरिक वनस्पतियों, फलों और हरी सब्जियों से तैयार व्यंजन-अचार इत्यादि बनाकर लाई थीं। साथ ही, इन्हीं फलों-सब्जियों को वास्तविक स्वरूप में भी अपने साथ लाई थीं, ताकि उनकी पहचान भी हो सके। ये महिलाएं इन व्यंजनों के औषधीय गुण भी बता रही थीं। ताकि लोगों को इनकी उपयोगिता का अहसास हो सके।
चार तहसील में चल रहा अभियान
श्री चैतन्य सेवा ट्रस्ट से ही जुड़ी संस्था गोवर्धन रूरल डेवलपमेंट के रणनीति एवं संपर्क प्रमुख जडुठाकुर दास बताते हैं कि 2010 से चल रहे इस प्रयास में पालघर जिले की जनजाति बहुल चार तहसीलों जव्हार, मोखाडा, विक्रमगढ़ एवं वाडा में किसानों को प्रशिक्षित एवं प्रोत्साहित करने काम चल रहा है। इस काम में शोध के स्तर पर उन्हें नासिक की एक और संस्था भारत एग्रो इंडस्ट्रीज फेडरेशन (बीएआइएफ) के कृषि विज्ञानी संजय पाटिल का भी सहयोग मिल रहा है।
सीड फार लाइफ नामक इस मुहिम के तहत इस वर्ष इन चार तहसीलों में करीब 770 किसानों ने लगभग 106 प्रकार के धान की प्रजातियां, करीब 40 प्रकार की रागी की प्रजातियां, सावां चावल की करीब 30 प्रजातियां तैयार की हैं। जडुठाकुर के अनुसार चूंकि ये प्रजातियां अब दुर्लभ होती जा रही हैं, इसलिए पहले इन्हें बचाना है, फिर इन्हें उगाना है, फिर इसे आगे ले जाने की योजना पर काम करना है। इस परियोजना के तहत अब तक 112 किसानों को इस प्रकार की फसलें तैयार करने के लिए प्रशिक्षित किया जा चुका है।
इन किसानों ने विभिन्न प्रकार के धान एवं रागी, बाजरा, ज्वार, कोदो, सावां जैसे मोटे अनाज के करीब सात टन बीज तैयार कर लिए हैं। कुछ समय पहले तक लगभग लुप्तप्राय हो चुके सूरन, कंदमूल भी उगाए जाने लगे हैं। महिलाएं अपने घरों के छप्पर पर लौकी, तोरई, करेला, लोबिया, कद्दू और खीरा की बेलें चढ़ाकर रासायनिक खाद विहीन घरेलू सब्जियां तैयार कर रही हैं।
कोरोना काल में देखने को मिली बानगी
इन फसलों के औषधीय गुण बताते हुए जडुठाकुर कहते हैं कि इसी वर्ष कोरोना के दौरान इसकी एक बानगी देखने को मिली। पालघर के ही असनस गांव में जिन जनजातीय परिवारों के पास अपने कोरोना पीडि़त स्वजन को अस्पताल ले जाने की सुविधा नहीं बन पाई, उन्होंने इसी क्षेत्र में पैदा होनेवाली ज्वार की एक प्रजाति का एक सूप बनाकर उसका नियमित सेवन एवं आराम किया और घर पर ही ठीक हो गए।
हालांकि इस बात का कोई वैज्ञानिक प्रमाण नहीं है, लेकिन इस क्षेत्र के बुजुर्ग बताते हैं कि 1972 में इस क्षेत्र में पड़े भयंकर अकाल के दौरान भी ज्वार के अंबिल ने उन्हें बड़ा सहारा दिया था। गर्मियों के दिनों में अंबिल का सेवन करके ही इस क्षेत्र के जनजातीय लोगों घंटों बिना पानी के कड़ी धूप में मेहनत के काम कर लेते हैं। जडुठाकुर दास के अनुसार एक बार इस सीमित क्षेत्र में किसानों के स्तर पर यह अभियान सफल हो जाए तो कुछ अन्य संस्थाओं को साथ लेकर व्यावसायिक रूप से इस परियोजना को आगे बढ़ाया जा सकता है।