अनदेखी से लगा कूड़े का अंबार, अब है एटम बम के फूटने का इंतजार
देश के शहरों में साफ-सफाई की व्यवस्था तभी चुस्त-दुरुस्त हो सकती है, जब स्थानीय प्रशासन के स्तर पर एक मजबूत कार्य संस्कृति विकसित हो पाएगी
अभिषेक कुमार। शहरों में साफ-सफाई की व्यवस्था को लेकर केंद्र सरकार एक तरफ सर्वेक्षण करवाती रहती है, जागरूकता अभियान चलाती है तो दूसरी तरफ शहरों में ही लगे कूड़े के ढेर उसके सारे प्रयासों को धता बता रहे हैं। पिछले साल तो दिल्ली के गाजीपुर स्थित कूड़े के पहाड़ में हुए विस्फोट और भूस्खलन जैसे हालात ने दो जानें लील ली थीं और कई वाहन क्षतिग्रस्त कर दिए थे। इससे सरकार-प्रशासन को अहसास हुआ था कि शहर के बीचोंबीच जमा होता कचरा कितनी अराजकता पैदा कर सकता है। इधर ऐसी ही एक विवशता का अंदाजा सुप्रीम कोर्ट की उस टिप्पणी से हुआ है, जिसमें शीर्ष अदालत ने राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों में स्वच्छता को लेकर कहा है कि तकरीबन सभी सरकारें कूड़े के एटम बम के फूटने का इंतजार कर रही हैं।
साफ-सफाई को लेकर हमारे देश में सरकारों तक का रवैया इससे स्पष्ट होता है कि इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में चल रही सुनवाई में दिल्ली सरकार को छोड़कर किसी अन्य राज्य के प्रतिनिधि ने शामिल होने की जरूरत तक नहीं समझी। यह देखकर अदालत का नाराज होना और यह टिप्पणी करना स्वाभाविक ही था कि देश में कोई भी स्वच्छता को लेकर चलाए जा रहे राष्ट्रीय अभियान के प्रति सतर्क नहीं है। कोर्ट का यह कहना सही है कि कचरा निस्तारण जैसी जरूरी बातों के लिए राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का रवैया लापरवाही भरा है।
गौरतलब है कि पिछले साल दिल्ली के गाजीपुर में कूड़े के पहाड़ का ढहना एक राष्ट्रीय खबर बनी थी और तब यह संकल्प जताया गया था कि सिर्फ कचरे के ढेर से निपटने की पहलकदमी ही नहीं होगी, बल्कि ऐसी लैंडफिल साइटों के विकल्प भी तलाश किए जाएंगे। विडंबना यह है कि 70 एकड़ में फैले 50 मीटर से ज्यादा ऊंचे कूड़े के पहाड़ का कोई विकल्प अब भी दिल्ली सरकार को नहीं सूझा है। विकल्प खोजना आसान है भी नहीं, क्योंकि हमने पश्चिमी देशों से यूज एंड थ्रो का रिवाज तो सीख लिया है, लेकिन उनकी तरह यह नहीं सीखा कि यह कूड़ा कैसे और कहां फेंका जाए जिससे कि वह देश, समाज, जनता के लिए अभिशाप न बन जाए।
हमारे देश के ज्यादातर शहरों में कचरा निष्पादन के पुख्ता इंतजाम नहीं हैं। मौजूदा स्थिति यह है कि आज भी शहरी कचरे का 90 फीसद कहीं भी फेंक दिया जाता है। उन्हें बटोर कर लैंडफिल के नाम पर खुले में कोई जगह तय कर दी जाती है जो आसपास के कई किलोमीटर इलाके में रहने वाले नागरिकों की सेहत और आबोहवा के लिए मुसीबत बन जाता है।
दिल्ली में कुल तीन लैंडफिल हैं जो पूरी तरह भर चुके हैं। मुंबई में देवनार लैंडफिल इकलौती ऐसी जगह है। लखनऊ में शिवरी गांव स्थित लैंडफिल इसके लिए जाना जाता है। इन तीनों में सबसे ज्यादा अव्यवस्था दिल्ली में ही दिखती है। मुंबई और लखनऊ में कचरे को छांटकर अलग किया जाता है, ताकि उसकी रिसाइक्लिंग में सुविधा हो। लखनऊ में शिवरी गांव के लैंडफिल में पहुंचे कचरे में से सॉलिड वेस्ट की छंटाई होती है। उसमें से एकदम बेकार कचरा जमीन में खाद बनाने के लिए दबाया जाता है। शेष बचा 25 प्रतिशत कचरा रिसाइक्लिंग के लिए भेजा जाता है। हालांकि यह सही है कि लैंडफिल तक पहुंचने वाला कचरा कई लोगों की रोजी-रोटी का जुगाड़ भी करता है। जाहिर है कूड़े के निस्तारण के आधुनिक प्रबंधों की जरूरत है, जिसमें शहरी कचरा समुचित तरीके से ठिकाने लगाया जा सके।
वास्तव में अभी स्थानीय प्रशासन और सरकारों को यह समझ नहीं आ रहा है कि वे शहर से रोज निकलने वाले कूड़े-कचरे का निष्पादन कैसे करें? जैसे देश की राजधानी दिल्ली की ही बात करें तो दुर्घटना के बाद गाजीपुर लैंडफिल में कूड़े की डंपिंग तो बंद हो गई, लेकिन एक नई मुसीबत इस रूप में सामने आई कि दिल्ली में रोजाना जो करीब 10,050 टन कूड़ा निकलता है, उसमें से आधे से भी कम प्रोसेस हो पाता है। बचे कूड़े को लैंडफिल साइट पर डालना मजबूरी है। पूर्वी दिल्ली का कूड़ा गाजीपुर के बजाय रानीखेड़ा में डालना तय किया गया, मगर वहां रहने वाले इसके खिलाफ अड़ गए। वैसे भी पूर्वी दिल्ली से 40 किलोमीटर दूर रानीखेड़ा तक कूड़ा पहुंचाना खुद में मुसीबत भरा काम है। एमसीडी ने कुछ और जगहें भी तय की हैं, लेकिन कहीं के भी निवासी अपनी जगह डंपिंग ग्राउंड के लिए देने को तैयार नहीं हैं।
आज की तारीख में कूड़ा निस्तारण दिल्ली ही नहीं, भारत के सभी शहरों की एक बड़ी समस्या है, लेकिन स्वच्छता को लेकर जारी लंबी-चौड़ी बातें कूड़े तक पहुंचने से पहले ही हवा हो जाती हैं। उत्तर प्रदेश, बिहार और पंजाब के कई शहर काफी पिछड़े हुए हैं। सफाई व्यवस्था तभी चुस्त-दुरुस्त हो सकती है, जब स्थानीय प्रशासन के स्तर पर एक मजबूत कार्य संस्कृति हो। कुछ राज्यों के शहर अगर गंदे हैं तो इसकी वजह यह है कि वहां के स्थानीय निकाय स्वच्छता के प्रति उदासीन हैं।
दिल्ली में आलम यह है कि निगर निगम के कई कर्मचारी काम पर ही नहीं जाते। उनमें से कई ने तो अपनी जगह दूसरों को काम पर रख लिया है तथा खुद किसी और धंधे में लगे हैं। कई निगमों के पास पर्याप्त फंड भी नहीं हैं कि वे आधुनिक उपकरण वगैरह खरीद सकें। कुछ शहरों को प्रकृति की मार भी झेलनी पड़ती है। जैसे पंजाब से लेकर बिहार तक के मैदानी इलाकों की मिट्टी भुरभुरी है। वहां धूल बहुत उड़ती है। इसे ध्यान में रखकर योजनाएं बनानी होंगी। कई शहरों पर ग्रामीण जनसंख्या का दबाव रहता है, जिससे सफाई का काम अधिक चुनौतीपूर्ण हो जाता है। सफाई सिर्फ एक भावना नहीं है। उसका संबंध कई ठोस चीजों से है। अगर इन पहलुओं पर ध्यान दिया जाए और केंद्र तथा राज्य सरकारें शहरों की मदद के लिए तत्पर हों तो स्वच्छता मिशन की गति और तेज हो जाएगी और फटने से पहले कूड़े के एटम बमों को ठिकाने लगाया जा सकेगा।
(लेखक एफआइएस ग्लोबल संस्था से संबद्ध हैं)