Indian Railways: डीजल इंजन कारखानों को इलेक्ट्रिक इंजन कारखानों में तब्दील करने की चुनौती
विद्युतीकरण बढ़ने के साथ डीजल इंजनों की उपयोगिता खत्म होती जा रही है और उन्हें खड़ा करना पड़ रहा है।
जागरण ब्यूरो, नई दिल्ली। तीन साल में शत-प्रतिशत विद्युतीकरण हासिल करने का रेलवे का लक्ष्य जहां सुखद है वहीं नई मुश्किलें भी खड़ी करेगा। जिसमें एक तरफ अनुपयोगी हो चुके डीजल इंजनों को खपाने की समस्या होगी तो दूसरी ओर डीजल इंजन कारखानों को इलेक्टि्रक इंजन कारखानों में तब्दील करने की चुनौती है। रेल मंत्रालय के अधिकारियों को समझ में नहीं आ रहा है कि इस चुनौती से कैसे निपटा जाए। इसके लिए अलग-अलग स्तरों पर माथापच्ची की जा रही है।
रेलवे के कुल 69,182 रूट किलोमीटर के नेटवर्क में करीब 49 फीसद नेटवर्क ही विद्युतीकृत है। इसे सौ फीसद करने के लिए तत्कालीन रेलमंत्री सुरेश प्रभू ने 2016 शत-प्रतिशत विद्युतीकरण की योजना बनाई थी। बाद में पीयूष गोयल ने 2021-22 शत-प्रतिशत विद्युतीकरण के लिए वार्षिक लक्ष्य बढ़ा दिए।
माना जा रहा है कि कुछ देरी के बावजूद यह लक्ष्य 2023-24 तक जरूर पूरा हो जाएगा। 2017 के बाद हर साल 4000 किलोमीटर से ज्यादा लाइने विद्युतीकृत होने लगीं। वर्ष 2018-19 में 5276 किलोमीटर लाइनों का विद्युतीकरण हुआ। जबकि चालू वित्तीय वर्ष 2019-20 में 7000 किलोमीटर लाइनों के विद्युतीकरण की उम्मीद है। अगले दो वर्षो में सालाना 10,500 किलोमीटर के हिसाब से संपूर्ण लाइनों का विद्युतीकरण हो जाएगा। इसके लिए सरकार ने 2018 में 12,134 करोड़ रुपये की अतिरिक्त राशि मंजूर की थी।
ऐसे में जाहिर है कि 2024 तक देश में सारी यात्री ट्रेने और मालगाडि़यां बिजली से चलने लगेंगी। लेकिन इस उपलब्धि के साथ कुछ समस्याएं भी आएंगी जिनकी समाधान रेलवे को करना होगा।
इनमें सबसे प्रमुख समस्या है डीजल इंजनों को खपाने की। विद्युतीकरण बढ़ने के साथ डीजल इंजनों की उपयोगिता खत्म होती जा रही है और उन्हें खड़ा करना पड़ रहा है। पिछले पांच सालों में तकरीबन ढाई हजार डीजल इंजन अनुपयोगी हो चुके हैं। और अधिकारियों की माने तो अगले दो सालों में डेढ हजार डीजल इंजन और उपयोग से बाहर हो जाएंगे। इस तरह रेलवे के समक्ष 4000 चालू डीजल इंजनों को खपाने की चुनौती होगी। एक डीजल इंजन की लाइफ 25-30 वर्ष होती है। जबकि ज्यादातर इंजन 10-15 वर्ष पुराने हैं।
पिछले दिनो रेल मंत्रालय द्वारा आयोजित 'परिवर्तन संगोष्ठी' में भी ये मुद्दा उठा था कि इन डीजल इंजनों का क्या किया जाए। क्योंकि यदि इन्हें निर्यात नहीं किया गया तो कबाड़ के भाव बेचना पड़ेगा। एक डीजल इंजन बनाने पर 10 करोड़ रुपये की लागत आती है। निर्यात में प्रत्येक इंजन के दो-ढाई करोड़ रुपये मिलने से 8000-9000 करोड़ रुपये तक प्राप्त हो सकते हैं। जबकि कबाड़ में प्रति इंजन 50 लाख रुपये मिलना भी मुश्किल है।
दूसरी चुनौती डीजल इंजन कारखानों में बन रहे डीजल इंजनों को खपाने तथा भविष्य में इन्हें इलेक्टि्रक इंजन कारखानों में तब्दील करने की है। फिलहाल रेलवे में दो ही कारखानों में डीजल इंजन बनाए जा रहे हैं। एक वाराणसी में डीजल लोकोमोटिव वर्क्स यानी डीएलडब्लू में और दूसरे मढ़ौरा डीजल लोको फैक्ट्री में। डीएलडब्लू पूर्णतया रेलवे का कारखाना है लिहाजा वहां डीजल इंजनों को इलेक्टि्रक इंजनों में बदलने की प्रक्रिया प्रारंभ हो चुकी है और कुछ इंजन बनाए भी जा चुके हैं।
जबकि आगे यहां ज्यादा से ज्यादा इलेक्टि्रक इंजन बनाने की योजना है। परंतु मढ़ौरा फैक्ट्री के मामले में जनरल इलेक्टि्रक के साथ संयुक्त उद्यम समझौता होने के कारण ऐसा करना संभव नहीं होगा। वहां दस वर्ष में बनने वाले 4500 हार्सपावर के 700 इंजनों और 6000 हार्सपावर के 300 इंजनों को रेलवे को लेना ही पड़ेगा। परंतु रेलवे अधिकारी इससे जरा भी परेशान नहीं हैं। उनका कहना है कि विद्युतीकरण के बावजूद आपात उपयोग के लिए जीई के 1000 हैवी हॉल डीजल इंजनों की रेलवे को जरूरत रहेगी। यहां तक कि जरूरत पड़ने पर फ्रेट कारीडोर पर भी इनका उपयोग किया जा सकता है।