Analysis: जनता के पैसे पर नेताओं के ठाठ, सर्वोच्च न्यायालय हुआ सख्त
सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को जीवन भर के लिए सरकारी बंगले आवंटित करने वाला राज्य सरकार का कानून संविधान प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है।
[पीयूष द्विवेदी]। गत सात मई को एक जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्रियों को जीवन भर के लिए सरकारी बंगले आवंटित करने वाला राज्य सरकार का कानून संविधान प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है। न्यायालय ने यह भी कहा कि पदमुक्त होने के बाद मुख्यमंत्री भी आम नागरिक जैसे हो जाते हैं, अत: आवश्यक होने पर उन्हें सुरक्षा आदि दी जा सकती है, परंतु सरकारी बंगला देने का कोई औचित्य नहीं है
गत सात मई को आए पूर्व मुख्यमंत्रियों से संबंधित सर्वोच्च न्यायालय के एक निर्णय ने उत्तर प्रदेश के राजनीतिक महकमे में हड़कंप मचा दिया। एक गैर-सरकारी संगठन की जनहित याचिका पर सुनवाई करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने यह फैसला सुनाया कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को जीवन भर के लिए सरकारी बंगले आवंटित करने वाला राज्य सरकार का कानून संविधान प्रदत्त समानता के मौलिक अधिकार के विरुद्ध है। न्यायालय ने यह भी कहा कि पदमुक्त होने के बाद मुख्यमंत्री भी आम नागरिक जैसे हो जाते हैं, अत: आवश्यक होने पर उन्हें सुरक्षा आदि दी जा सकती है, परंतु सरकारी बंगला देने का कोई औचित्य नहीं है।
यूं तो 2016 में ही सर्वोच्च न्यायालय ने अपने एक निर्णय में पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगला आवंटित करने को गलत बताते हुए दो महीने के भीतर उन्हें खाली करवाने का निर्देश दिया था, लेकिन तब इस विषय में कुछ नहीं हुआ। बहरहाल अब न्यायालय के मौजूदा निर्णय के बाद राज्य के छह जीवित पूर्व मुख्यमंत्रियों नारायण दत्त तिवारी, कल्याण सिंह, राजनाथ सिंह, मुलायम सिंह, मायावती और अखिलेश यादव को अपने बंगले खाली करने होंगे।
क्या है मामला
इस पूरे मामले की शुरुआत 2016 में तब हुई थी जब उत्तर प्रदेश की तत्कालीन अखिलेश यादव सरकार ने पूर्व मंत्रीगण (वेतन, भत्ता और विविध प्रावधान) कानून, 1981 में संशोधन करके पूर्व मुख्यमंत्रियों को उनके बंगलों का आजीवन स्वामित्व प्रदान कर दिया था। इस संशोधन के विरुद्ध ही एक गैर-सरकारी संगठन ‘लोक प्रहरी’ ने सर्वोच्च न्यायालय में जनहित याचिका दायर की थी, जिस पर सुनवाई करते हुए अब न्यायालय ने अखिलेश यादव सरकार द्वारा किए गए संशोधन को निरस्त कर दिया है।
यहां उल्लेखनीय होगा कि अखिलेश यादव से काफी पहले बसपा प्रमुख मायावती ने भी पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगलों की हिफाजत के लिए एक कानून बनाया था। हुआ यह था कि 1997 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने अपने एक फैसले में पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगले आवंटित करने की व्यवस्था को गलत बताते हुए बंगले खाली कराने का आदेश दिया था, जिसके बाद वीपी सिंह, हेमवती नंदन बहुगुणा, श्रीपति मिश्र और कमलापति त्रिपाठी को पूर्व मुख्यमंत्री के तौर पर मिले बंगले खाली भी हो गए थे, लेकिन जब बसपा-भाजपा गठबंधन की सरकार में मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो उन्होंने ‘पूर्व मुख्यमंत्री आवास आवंटन नियमावली, 1997’ बनाकर न्यायालय के फैसले को पलट दिया, जिस कारण पूर्व मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह, रामनरेश यादव, नारायण दत्त तिवारी के
बंगले खाली होने से बच गए। कहना गलत नहीं होगा कि सपा हो या बसपा, पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास देने के लिए कानून बनाने की इनमें होड़ रही है। न्यायालय के ताजा फैसले के बाद देखना दिलचस्प होगा कि वर्तमान योगी सरकार इस पर क्या रुख अपनाती है।
बंगलों से लगाव का कारण
दरअसल पूर्व मुख्यमंत्रियों को दिए जाने वाले बंगले, कोई साधारण बंगले नहीं होते, बल्कि इनमें राजसी स्तर की सुख-सुविधाओं की व्यवस्था की जाती है। मुलायम, मायावती और अखिलेश ने सत्ता जाने के बाद अपने लिए चुने बंगलों का अलग से पुनर्निर्माण करवाकर ही उनमें प्रवेश किया। 2012 में सूचना के अधिकार के तहत सामने आई एक जानकारी के अनुसार मायावती के बंगले के पुनर्निर्माण में 86 करोड़ रुपये खर्च हुए थे तो अखिलेश यादव के बंगले के बारे में यह आंकड़ा 100 करोड़ से ऊपर का है, जबकि नियमानुसार राज्य संपत्ति विभाग पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित बंगलों के पुनर्निर्माण पर 25 लाख से अधिक की रकम खर्च नहीं कर सकता। स्पष्ट है कि यहां भी नियमों को धता बताते हुए बंगलों के पुनर्निर्माण पर मनमाना खर्च किया गया। अब ऐसी भारी-भरकम धनराशि खर्च करके सुख-सुविधाओं से सुसज्जित करवाए गए बंगलों से हमारे पूर्व मुख्यमंत्रियों के लगाव का कारण समझा जा सकता है।
व्यवस्था का उपहास
पूर्व मुख्यमंत्रियों को आवंटित बंगलों के लिए किराए की एक बेहद मामूली रकम चुकानी होती है। बाजार दर की तुलना में यह किराया काफी कम होता है, पर किराए की ये मामूली रकम भी हमारे माननीयों से चुकाई नहीं जाती। उत्तर प्रदेश के सभी मौजूदा पूर्व मुख्यमंत्रियों पर किराए की कुछ न कुछ रकम बाकी है। मुलायम सिंह यादव ने एक साल से किराया जमा नहीं किया है, जिस कारण इस समय उन पर लगभग 45 हजार का किराया बाकी है। मुलायम के अलावा कल्याण सिंह पर 18419 रुपये, नारायण दत्त तिवारी पर 25149 रुपये, राजनाथ सिंह पर 13438 रुपये और अखिलेश यादव पर दो महीने का 8580 रुपये किराया बाकी है। बसपा प्रमुख मायावती का भी एक महीने का किराया बाकी होने की बात सामने आई है। अब जब सर्वोच्च न्यायालय ने इन पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले खाली करवाने का आदेश दे दिया है तो ऐसे में राज्य संपत्ति विभाग इनसे किराया वसूलने की भी तैयारी में लग गया है।
सवाल यही है कि आखिर इतने दिनों तक इन मुख्यमंत्रियों से किराया वसूलने की याद राज्य के संपत्ति विभाग को क्यों नहीं आई? दूसरी बात कि किराए की इतनी मामूली रकम भी पूर्व मुख्यमंत्री महोदयों से समय पर क्यों नहीं चुकाई जाती? वास्तव में बात किराए की रकम की नहीं है, हमारे राजनेताओं की व्यवस्था का उपहास उड़ाने वाली उस अहंकारी मानसिकता की है, जिसके कारण उन्होंने यह मान लिया है कि वे हर व्यवस्था से ऊपर हैं और किराया न जमा करने पर भी उन्हें उनके बंगलों से उन्हें कोई हिला नहीं सकता। दुर्भाग्यवश अब तक हर राज्य सरकार द्वारा उनकी इस मानसिकता का प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से समर्थन ही किया जाता रहा है।
अलग राज्यों के अलग नियम
अलग-अलग राज्यों में पूर्व मुख्यमंत्रियों को लेकर अलग-अलग प्रकार की व्यवस्था है। कुछ राज्यों में उत्तर प्रदेश की ही तरह पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगले दिए जाने का प्रावधान है तो कुछ राज्य ऐसे भी हैं, जहां वर्तमान में इस प्रकार की कोई व्यवस्था नहीं है। यूपी से ही विभाजित होकर अस्तित्व में आए उत्तराखंड में पूर्व मुख्यमंत्रियों को बंगला आवंटित करने का कोई प्रावधान नहीं है। हरियाणा में भूपेंद्र सिंह हुड्डा सरकार के समय बंगला देने का प्रावधान था, परंतु मनोहर लाल ने मुख्यमंत्री बनने के बाद उसे समाप्त कर दिया। हिमाचल प्रदेश और पश्चिम बंगाल में भी पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगला देने की कोई व्यवस्था नहीं है। हालांकि बिहार, झारखंड, छत्तीसगढ़, पंजाब और जम्मू-कश्मीर आदि राज्यों में पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी बंगले मिले हुए हैं।
राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री का मामला
पूर्व मुख्यमंत्रियों के बंगले वापस लिए जाने के निर्णय के बाद कुछ ऐसी मांगें भी उठी हैं कि पूर्व राष्ट्रपति और पूर्व प्रधानमंत्रियों से भी सरकारी आवास व अन्य सुविधाएं वापस ली जाएं। यह अनुचित मांग है। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ऐसे पद होते हैं, जिन पर कार्य करने के पश्चात व्यक्ति को ऐसी तमाम बातें ज्ञात होती हैं, जिनके कारण उसका सुरक्षित रहना देश के लिए आवश्यक हो जाता है। यह कहें तो गलत नहीं होगा कि इन पदों पर कार्य कर लेने के बाद व्यक्ति देश की धरोहर हो जाता है। दूसरी चीज कि इन पदों से मुक्त होने के बाद प्राय: व्यक्ति उम्र के आखिरी पड़ाव पर भी पहुंच चुका होता है। ऐसे में इन व्यक्तियों की सुख-सुविधाओं और सुरक्षा का ध्यान देश को रखना ही चाहिए। परंतु इस आधार पर पूर्व मुख्यमंत्रियों को भी सरकारी आवास और सुविधाएं देने का तर्क खड़ा नहीं किया जा सकता।
देश भर में लागू हो नियम
भाजपा नेता लक्ष्मीकांत वाजपेयी ने एकबार कहा था कि हर राज्य में एक टावर बनाकर उसमें सभी पूर्व मुख्यमंत्रियों को छह कमरों के एक-एक फ्लैट रहने के लिए दे देने चाहिए तथा उसमें उनकी सुरक्षा के लिए भी संयुक्त रूप से एक ही व्यवस्था कर दी जानी चाहिए। सुझाव बुरा नहीं है, मगर सवाल है कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास और अन्य सुविधाएं देने की जरूरत क्या है? मुख्यमंत्री हर राज्य में होते हैं और कई-कई बार थोड़े-थोड़े कार्यकाल पर ही बदलते भी रहते हैं, ऐसे में करदाताओं का पैसा उनकी सुख-सुविधाओं पर किस कारण बहाया जाए? सर्वोच्च न्यायालय ने अपने निर्णय में बिल्कुल उचित कहा है कि पदमुक्त होने के बाद मुख्यमंत्री आम नागरिक जैसे ही हो जाते हैं।
ऐसे में बेशक उनके पूर्व पद के कारण उन्हें कुछ सुरक्षा प्रदान कर दी जाए, मगर सुख-सुविधाएं देकर उन्हें आमजन से अलग खड़ा श्रेणी का व्यक्ति सिद्ध कर देना समानता के संवैधानिक अधिकार के विरुद्ध है। न्यायालय का यह निर्णय भले यूपी के संदर्भ में आया है, परंतु यह एक संवैधानिक व्याख्या पर आधारित है। अत: इसे पूरे देश में लागू होना चाहिए। इससे न केवल करदाताओं के पैसे का एक बड़ा हिस्सा बचेगा, बल्कि पूर्व मुख्यमंत्रियों को दिए जाने वाले आवासों का राज्य सरकारें बाजार दर के हिसाब से व्यावसायिक उपयोग करके और धन कमाने के विकल्प पर भी विचार कर सकती हैं।
[शोधार्थी]