एस.के. सिंह, नई दिल्ली। वर्ष 2023 भारत की इकोनॉमी के लिए कई अच्छे संकेत लेकर आ रहा है। यहां कंपनियों के पास पैसा है और कर्ज ज्यादा नहीं, इसलिए वे नया निवेश करने में सक्षम हैं। बैंकों का एनपीए हाल के वर्षों में सबसे कम है और उनके पास पर्याप्त पूंजी भी है, यानी वे नया कर्ज देने की स्थिति में हैं। सरकार का प्रत्यक्ष कर संग्रह पिछले साल से 26% ज्यादा है और जीएसटी (GST) कलेक्शन भी लगातार आठ महीने से 1.4 लाख करोड़ रुपये से अधिक बना हुआ है। इसलिए सरकार सब्सिडी और निवेश, दोनों में सक्षम है।

ग्लोबल स्तर पर भी कई बातें भारत के लिए सकारात्मक हैं। छह महीने पहले 2023 को लेकर जिस तरह के अनुमान लगाए जा रहे थे, अब हालात उससे बेहतर हैं। बैंकिंग और लॉजिस्टिक्स की समस्याएं दूर हो जाने के कारण रूस के साथ जनवरी से रुपये में व्यापार पूरी तरह शुरू हो जाएगा। संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के साथ मुक्त व्यापार समझौते (FTA) पर अमल 1 मई से शुरू हुआ और ऑस्ट्रेलिया के साथ 29 दिसंबर से शुरू हो रहा है। इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर के बाद अब फार्मा एपीआई में भी पीएलआई (PLI) स्कीम का असर दिखेगा।

लेकिन इन अच्छे संकेतों के बीच कई चुनौतियां भी हैं। विश्व अर्थव्यवस्था में काफी अनिश्चितता है और चीन में तेजी से फैलते कोरोनावायरस के कारण अनिश्चितता बढ़ी है। यूक्रेन युद्ध और लंबा खिंचने के आसार दिख रहे हैं। ऐसे में यह अनुमान लगाना मुश्किल है कि 2023 में जीडीपी का क्या होगा, निर्यात की क्या स्थिति होगी, महंगाई कितनी रहेगी। लेदर, गारमेंट, जेम्स एंड ज्वैलरी जैसे कंज्यूमर सेगमेंट की भारतीय इकाइयां जिन देशों को निर्यात करती हैं, उनकी इकोनॉमी में मंदी का डर अभी कायम है। ज्यादा महंगाई के कारण लोग कम खर्च कर रहे हैं। 2023 में स्थिति कमोबेश ऐसे ही रहने के आसार हैं। बल्कि इससे कुछ खराब भी हो सकती है, विशेषकर यूरोप और अमेरिका की वजह से।

हमारा निर्यात कम हुआ तो चालू खाता घाटा बढ़ेगा। तब डॉलर की तुलना में रुपये को संभालने की चुनौती होगी। रोजगार के मोर्चे पर भी स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। बड़ी इंडस्ट्रीज हायरिंग कर तो रही हैं, लेकिन कुल रोजगार में उनकी भूमिका बहुत कम होती है। एमएसएमई ज्यादा रोजगार देती हैं और सरकारी आंकड़े ही बता रहे हैं कि उनकी स्थिति ठीक नहीं। इन सबका असर घरेलू मांग पर पड़ना लाजिमी है। फिर भी अन्य देशों से तुलना करें तो भारत ‘ब्राइट स्पॉट’ बना रहेगा। जी-20 का अध्यक्ष होने के नाते 2023 में भारत के सामने विकासशील और विकसित अर्थव्यवस्थाओं के बीच सामंजस्य बढ़ाने का मौका भी होगा।

भारत के लिए सकारात्मक

रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डी.के. जोशी ने बताया, “हमारे कॉरपोरेट सेक्टर की सेहत काफी अच्छी है। उनपर कर्ज ज्यादा नहीं है, इसलिए कंपनियां निवेश कर सकती हैं। निवेश के लिए उन्हें बैंकों से कर्ज चाहिए और अभी बैंकिंग सेक्टर का एनपीए बहुत कम है। उनके पास पर्याप्त पूंजी भी है।”

निर्यात के मोर्चे पर भी कुछ अच्छे संकेत हैं। फियो के डायरेक्टर जनरल और सीईओ अजय सहाय के अनुसार छह महीने पहले 2023 को लेकर जिस तरह के अनुमान लगाए जा रहे थे, अब हालात उससे बेहतर हैं। रूस के रूप में हमें एक अच्छा बाजार मिल रहा है। उसके साथ जनवरी से रुपये में व्यापार पूरी तरह शुरू हो जाएगा। बैंकिंग और लॉजिस्टिक्स को लेकर जो समस्याएं थीं उनका हल निकाल लिया गया है। पीएलआई स्कीम के भी अब नतीजे आने लगे हैं। इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर, खासकर मोबाइल के बाद फार्मा एपीआई में भी इसका असर दिखना चाहिए। भारत ने जिन देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौता (FTA) किया है उन पर भी अमल हो रहा है। संयुक्त अरब अमीरात (UAE) के साथ यह 1 मई से शुरू हुआ और ऑस्ट्रेलिया के साथ 29 दिसंबर से शुरू हो जाएगा।

चुनौतियां भी कम नहीं होंगी

लेकिन ऐसा नहीं कि सब कुछ अच्छा ही है। 2023 में चुनौतियां शायद 2022 से भी कठिन रहें। फियो के अजय सहाय कहते हैं, चीन में कोरोनावायरस का फैलना नई समस्या बनकर उभरा है। यह लंबा चला तो चीन की आर्थिक रफ्तार कम होगी ही, वह जिन देशों को कच्चा माल सप्लाई करता है वहां भी विकास की गति घटेगी। एक महीने पहले तक किसी ने ऐसा सोचा ही नहीं था।

हालांकि कोविड-19 के बाद भारतीय कंपनियों ने अपनी इन्वेंटरी बढ़ा दी है। पहले कंपनियां महीने-दो महीने की इन्वेंटरी रखती थीं, अब वे ज्यादा रख रही हैं। सहाय के अनुसार, “ज्यादा इन्वेंटरी के चलते चीन में कोरोना फैलने का तत्काल कोई असर नहीं होगा, लेकिन अगर समस्या लंबी चली तो दवा, इलेक्ट्रॉनिक्स, ऑटोमोबाइल जैसी इंडस्ट्री प्रभावित होंगी।”

क्रिसिल के डी.के. जोशी भी अगले साल के लिए सचते करते हैं, “पिछले दिनों कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय संस्थानों ने भारत समेत विश्व की विकास दर का अनुमान घटाया है, लेकिन उन्होंने इस साल का अनुमान उतना नहीं घटाया जितना 2023 के लिए घटाया है। यह बताता है कि बदलते वैश्विक घटनाक्रम में 2023 अधिक अनिश्चित होगा। विकास के अनुमान में बार-बार कटौती विकट परिस्थितियों का संकेत है।”

स्थिति बिगड़ भी सकती है

एमएसएमई की संस्था फिस्मे के महासचिव अनिल भारद्वाज के मुताबिक सरकार ने अपना खर्च बढ़ाया है, इसलिए 2022 में सरकार को सप्लाई करने वाली इकाइयों ने बेहतर प्रदर्शन किया। इसमें सड़क, बिजली समेत इन्फ्रास्ट्रक्चर के सभी सेक्टर शामिल हैं। लेकिन लेदर, गारमेंट, जेम्स एंड ज्वैलरी जैसे कंज्यूमर सेगमेंट की इकाइयां जिन देशों को निर्यात करती हैं, वे मंदी की तरफ बढ़ रही हैं। इसलिए उन इकाइयों का बिजनेस प्रभावित हुआ है।

वे सेक्टर भी प्रभावित हुए हैं जो दूसरे देशों के इंडस्ट्रियल सेक्टर को निर्यात करते हैं, क्योंकि मांग कम होने से वहां इंडस्ट्री ने भी उत्पादन घटाया है। जैसे यूरोप के स्टील और एल्युमिनियम प्लांट। भारद्वाज के मुताबिक कुल निर्यात के आंकड़े में ज्यादा गिरावट नहीं है तो इसका बड़ा कारण यह है कि हमारे निर्यात में पेट्रोलियम पदार्थों की बड़ी हिस्सेदारी है। पिछले दिनों इस सेगमेंट में भारत को काफी फायदा मिला, लेकिन दूसरे सेक्टर की स्थिति ऐसी नहीं।

इसलिए वे कहते हैं कि 2023 में स्थिति कमोबेश ऐसे ही रहने के आसार हैं। बल्कि इससे कुछ खराब भी हो सकती है, विशेषकर यूरोप और अमेरिका की वजह से। भारत का लगभग एक-तिहाई निर्यात यूरोप को और इतना ही अमेरिका को होता है। अगर आसियान को छोड़ दें तो अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका हर जगह मंदी का असर है। हमें अमेरिका और यूरोप के अलावा दूसरे बाजारों की ओर देखना पड़ेगा। लैटिन अमेरिका, आसियान देश और अफ्रीका में संभावनाएं तलाशनी पड़ेंगी।

अनिश्चितता और मंदी का डर

जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और जाने-माने अर्थशास्त्री अरुण कुमार कहते हैं, “अभी विश्व अर्थव्यवस्था में काफी अनिश्चितता है। चीन में तेजी से फैलते कोरोनावायरस का असर दूसरे देशों पर पड़ना तय है। यूक्रेन युद्ध काफी लंबा खिंच गया है, रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने कहा भी है कि यह काफी लंबा चलेगा। ऐसे में 2023 के बारे में अनुमान लगाना मुश्किल है।”

आईएमएफ ने अक्टूबर में 2023 के लिए भारत की विकास का अनुमान घटाकर 6.1% और विश्व का 2.7% किया था। अमेरिका में सिर्फ एक प्रतिशत और यूरो जोन में 0.5% प्रतिशत विकास की उम्मीद जताई है। संयुक्त राष्ट्र की संस्था अंकटाड ने तो इस साल भारत के लिए 5.7% और अगले साल 4.7% ग्रोथ का अनुमान जताया है। इसने कहा है कि 3F संकट (फूड, फ्यूल और फाइनेंस), यूक्रेन युद्ध, कोविड महामारी और जलवायु परिवर्तन विकासशील देशों की बड़ी अड़चनें हैं। इनकी वजह से वहां इंडस्ट्री का नया निवेश कम रहेगा।

यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ, यूके में विजिटिंग प्रोफेसर और जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा के अनुसार, “पश्चिमी देशों और चीन के साथ हमारा काफी व्यापार होता है। वहां मांग कम होने पर भारत का निर्यात प्रभावित होगा। 2021 में निर्यात सुधरने लगा और यह 2022 के शुरुआती महीनों तक चला, लेकिन अंतरराष्ट्रीय हालात बदलने के साथ इसमें फिर कमी आने लगी। 2023 में स्थिति और खराब हो सकती है।”

मेहरोत्रा के अनुसार नया साल कितना अच्छा होगा, यह सरकार पर निर्भर है। रोजगार और घरेलू खपत बढ़ाने पर जोर देते हुए वे कहते हैं, “2020 में शहरों से गांवों की ओर जो पलायन हुआ, उससे कृषि पर निर्भर कामगारों की संख्या में 4.5 करोड़ की बढ़ोतरी हुई। इनकी संख्या 2019 में 18.8 करोड़ थी, जो बढ़कर 23.3 करोड़ हो गई। मनरेगा में काम की ज्यादा मांग की यह प्रमुख वजह है।”

बेरोजगारी के कारण ही ग्रामीण इलाकों में खपत कम हुई है। सीएमआईई के अनुसार दिसंबर में ग्रामीण इलाकों में बेरोजगारी दर 8.5% से अधिक थी। शहरों में यह 10% को भी पार कर गई। मेहरोत्रा कहते हैं, बेरोजगारी अधिक होने पर मजदूरी में कमी आएगी। उसका असर ग्रामीण क्षेत्र से फेल कर शहरी क्षेत्र में भी पहुंचेगा। ऐसी स्थिति में 2023 में खपत बढ़ाना मुश्किल होगा। खपत नहीं बढ़ेगी तो निवेश नहीं होगा और निवेश नहीं होगा तो रोजगार नहीं बढ़ेगा।

महंगाई की चिंता ग्लोबल

महंगाई की चिंता भी अभी खत्म नहीं हुई है। अर्थशास्त्री और मैनेजमेंट कंसल्टेंट नयन पारिख कहते हैं, “फेडरल रिजर्व और आरबीआई ने अपनी नीति से यह बताने की कोशिश की है कि उनके लिए जीडीपी ग्रोथ से ज्यादा महंगाई महत्वपूर्ण है। महंगाई के कारण गरीबों को ज्यादा परेशानी होती है। इसे काबू में लाने के लिए ब्याज दर बढ़ाने पर मनी सप्लाई कम होती है। ऐसे में महंगाई को कम रखते हुए जीडीपी ग्रोथ बढ़ाने की चुनौती होगी।”

पारिख के अनुसार, दूसरे देशों में महंगाई के चलते हमारा निर्यात कम हुआ तो चालू खाता घाटा बढ़ेगा। तब डॉलर की तुलना में रुपया सस्ता होगा। उसे संभालने की भी चुनौती होगी क्योंकि रुपया कमजोर होने पर खासकर कच्चे तेल के आयात पर हमें अधिक कीमत चुकानी पड़ेगी।

डी.के. जोशी भी कहते हैं, डॉलर के मुकाबले रुपये को संभालने के लिए रिजर्व बैंक ने जो कदम उठाए हैं, उसका दबाव विदेशी मुद्रा भंडार पर दिख रहा है। वैश्विक मांग में कमी का असर भारत के निर्यात पर भी पड़ा है। इससे व्यापार घाटा और चालू खाता घाटा बढ़ने की आशंका है।

कोविड-19 के समय पैसे का प्रवाह पूरी तरह खोल दिया गया था ताकि कहीं कोई रुकावट ना रहे, लेकिन इस साल उसका विपरीत हुआ। रूस-यूक्रेन युद्ध लंबा खिंचने से कच्चा तेल महंगा हुआ और कई वस्तुओं की सप्लाई प्रभावित हुई। नयन पारिख कहते हैं, “2022 में महंगाई वैश्विक चुनौती बन गई। अमेरिका जैसे देशों में जीवन-यापन का खर्च इतना कभी नहीं बढ़ा। उसे नियंत्रित करने के लिए सभी प्रमुख देशों के सेंट्रल बैंकों ने ब्याज दरें बढ़ाईं।”

इसलिए अरुण कुमार का मानना है कि ग्लोबल इकोनॉमी में मंदी आ चुकी है। अमेरिका में पहली दो तिमाही में विकास दर नकारात्मक रही। तीसरी तिमाही में ग्रोथ दर्ज हुई लेकिन वह बहुत मामूली है। ब्याज दरें लगातार बढ़ने के कारण पूरे साल की विकास दर निगेटिव ही रहने के आसार हैं। चीन में जिस तरह महामारी बढ़ रही है, उससे वहां भी ग्रोथ रेट नकारात्मक हो जाएगी। यूरोप में एनर्जी संकट के कारण पहले से परेशानी है।

प्रो. कुमार कहते हैं, “आईएमएफ जैसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाएं इस बात को पहले स्वीकार नहीं करती हैं, क्योंकि जैसे ही वे मंदी की बात स्वीकार करेंगी, शेयर बाजार एकदम से गिर जाएगा। 2008 में भी जब तक लेहमैन ब्रदर्स नहीं डूबा तब तक अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं ने संकट की बात स्वीकार नहीं की थी।”

इसलिए उन्हें अनिश्चितता अगले साल भी बने रहने की आशंका है। चीन अब भी दुनिया का मैंन्युफैक्चरिंग हब है। वहां से सप्लाई में दिक्कत हुई तो महंगाई और बढ़ेगी। जो लोग यह अनुमान लगा रहे थे कि मंदी से महंगाई कम होगी, वैसा नहीं होगा। महंगाई पर अंकुश लगाने के लिए सेंट्रल बैंक ब्याज दर बढ़ाते रहे तो डिमांड और कम होगी।

मांग बढ़ाने के लिए एमएसएमई को मजबूत करना जरूरी

अरुण कुमार कहते हैं, माइक्रो सेक्टर की तीन समस्याएं हैं- मार्केटिंग, टेक्नोलॉजी और फाइनेंस। इन इकाइयों का कोऑपरेटिव बनाया जा सकता है। तब वे मिलकर रिसर्च कर सकती हैं, टेक्नोलॉजी विकसित कर सकती हैं। कोऑपरेटिव के रूप में उन्हें कर्ज लेने में भी आसानी होगी।

अभी किसी प्रोडक्ट को बनाने में हर चरण में जीएसटी की गणना होती है। प्रो. कुमार के अनुसार इनपुट क्रेडिट खत्म करके सिर्फ आखिरी प्वाइंट पर एमआरपी पर टैक्स लगाया जाए तो इनपुट क्रेडिट, ई-वे बिल आदि की समस्याएं नहीं रह जाएंगी। अभी हर महीने 400 करोड़ एंट्री होती हैं, यह घटकर सिर्फ चार करोड़ रह जाएगी। इससे माइक्रो इकाइयों को बहुत फायदा होगा।

उनका कहना है कि संगठित क्षेत्र की कंपनियों का सामान इनपुट क्रेडिट के कारण सस्ता पड़ता है। असंगठित क्षेत्र का प्रोडक्ट इनपुट क्रेडिट न मिलने के कारण महंगा हो जाता है। लगेज, टेक्सटाइल तथा एफएमसीजी इंडस्ट्री में ऐसा ही हुआ है। इससे डिमांड असंगठित क्षेत्र से शिफ्ट होकर संगठित क्षेत्र में चली गई है, जबकि 94% रोजगार असंगठित क्षेत्र में ही है। जीएसटी कलेक्शन बढ़ा है, इसका मतलब यह है कि संगठित क्षेत्र अच्छा प्रदर्शन कर रहा है। डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन बढ़ने के पीछे भी यही वजह है।

इसके तर्क के पीछे वे आरबीआई की रिपोर्ट का भी हवाला देते हैं। रिजर्व बैंक करीब 2,700 नॉन-फाइनेंशियल और गैर-सरकारी कंपनियों का आंकड़ा जारी करता है। नवीनतम रिपोर्ट के अनुसार उन कंपनियों की बिक्री 41% बढ़ी है। अर्थव्यवस्था की रफ्तार कम होने के बावजूद संगठित क्षेत्र की बिक्री इतनी बढ़ी है तो इसका सीधा अर्थ है कि यह असंगठित क्षेत्र की कीमत पर हुआ है। बहुत कम सेक्टर में संगठित और असंगठित क्षेत्र एक दूसरे के पूरक हैं। ज्यादातर जगहों पर उनमें प्रतिस्पर्धा है जिसमें असंगठित क्षेत्र पिट रहा है। इसलिए प्रो. कुमार कहते हैं, “एमएसएमई में से माइक्रो और स्मॉल को अलग कर दिया जाना चाहिए। अभी एमएसएमई के लिए घोषित नीतियों का फायदा मझोली इकाइयों को ही मिलता है, माइक्रो और स्मॉल को नहीं।”

एमएसएमई को मजबूत करने से रोजगार भी बढ़ेगा। प्रो. अरुण कुमार कहते हैं, “देश में 27.8 करोड़ लोगों के पास ढंग का काम नहीं है। यहां लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 45% है, जबकि ब्राजील, चीन, अमेरिका जैसे देशों में यह 65% के आसपास है। यानी हमारे यहां 20% कम लोग काम कर रहे हैं। 1991 में भी भारत का लेबर फोर्स पार्टिसिपेशन रेट 58% था। अगर इन 27.8 करोड़ लोगों को उचित काम मिले तो जीडीपी 16% बढ़ जाएगी, जबकि उसके लिए हमें सिर्फ 5% खर्च करना पड़ेगा।”

मैन्युफैक्चरिंग बढ़ाना जरूरी

हाल के महीनों में मैन्युफैक्चरिंग के आंकड़े निराशाजनक रहे हैं। नयन पारिख कहते हैं, सरकार मनी सप्लाई जितना सख्त करेगी लोगों के हाथ में पैसा उतना कम रहेगा। इससे डिमांड घट रही है। बड़ी एफएमसीजी कंपनियों को देखें तो उनके टर्नओवर में वृद्धि दाम बढ़ने की वजह से हुई है, मात्रा के लिहाज से बिक्री या तो पहले जितनी है या कम हुई है। अर्थात उनका टर्नओवर महंगाई के कारण बढ़ा है।

ग्रामीण अर्थव्यवस्था की स्थिति भी कमजोर है, बेरोजगारी दर बढ़ी हुई है। रोजगार नहीं होगा तो डिमांड कम होगी। डिमांड कम होगी तो मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर बनाएगा किसके लिए। सर्विस सेक्टर भी काफी हद तक मैन्युफैक्चरिंग पर निर्भर करता है, क्योंकि सर्विस लेने वाले भी तो मैन्युफैक्चरिंग से जुड़े हैं। पारिख कहते हैं, “अभी हमारा विकास इन्वेस्टमेंट ओरिएंटेड है, इसे रोजगार ओरिएंटेड करना होगा।”

संतोष मेहरोत्रा कहते हैं, बड़ी इंडस्ट्रीज हायरिंग कर तो रही हैं लेकिन कुल रोजगार में उनकी भूमिका बहुत कम है। रोजगार देने में एमएसएमई का बड़ा महत्व है। एमएसएमई पर सरकार ने संसद में जो आंकड़े दिए हैं उनसे पता चलता है कि उद्यम पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन कराने वाली इकाइयों की संख्या तो बढ़ रही है, लेकिन डिरजिस्टर करने वाले भी बढ़ रहे हैं।

एमएसएमई राज्य मंत्री भानु प्रताप सिंह वर्मा ने 19 दिसंबर को संसद में बताया कि उद्यम पोर्टल पर रजिस्टर्ड इकाइयों में से 1 जुलाई 2020 से 31 मार्च 2021 तक 931 ने, 1 अप्रैल 2021 से 31 मार्च 2022 तक 24,075 इकाइयों ने और 1 अप्रैल 2022 से 14 दिसंबर 2022 तक 30,597 इकाइयों ने अपना रजिस्ट्रेशन रद्द कराया। मेहरोत्रा कहते हैं, “इस पोर्टल पर ज्यादातर बड़ी इकाइयां ही रजिस्ट्रेशन कराती हैं। उनके रजिस्ट्रेशन रद्द कराने का मतलब है कि उनका बिजनेस नहीं चल रहा है।”

ग्रोथ बरकरार रखने की चुनौती

2023 की चुनौतियां क्या होंगी, इस सवाल पर नयन पारिख कहते हैं, अमेरिका तथा अन्य कई देशों में मंदी का डर अभी गया नहीं है। नए साल में हम इस डर के साथ ही प्रवेश करेंगे। भारत में शेयर काफी महंगे हो गए हैं। चीन में शेयरों का औसत प्राइस अर्निंग रेशियो (पीई) 10 से 12 का है। यह भारत में 22-23 है। अर्थात चीन के शेयर आधे दाम पर मिल रहे हैं। इसलिए भारत में जो रैली 2022 में दिखी, वैसी 2023 में दिखना मुश्किल है। यदि हमारी जीडीपी ग्रोथ और कंपनियों की आय अच्छी रही, तभी शेयर बाजार का प्रदर्शन 2023 में बेहतर रहेगा। 2022 में जीडीपी ग्रोथ 7% के आसपास रहने के आसार हैं। विकास दर 2023 में भी इसके आसपास रखने की चुनौती होगी।

जी-20 की अध्यक्षता

इस वर्ष दुनिया के बड़े देशों के समूह जी-20 की अध्यक्षता भारत के पास है। इसका कई तरह से फायदा हो सकता है। फिस्मे के अनिल भारद्वाज कहते हैं, जी-20 के 13 वर्किंग ग्रुप में से एक ट्रेड और इन्वेस्टमेंट पर है। इस वर्किंग ग्रुप में पांच थीम हैं, उनमें एक एमएसएमई है। विकासशील देशों की एमएसएमई को विकसित देशों के बाजार में टैरिफ को लेकर समस्या नहीं, वह पहले ही बहुत कम है। उन्हें सबसे बड़ी दिक्कत स्टैंडर्ड यानी टेक्निकल रेगुलेशन के पालन में आती है। इसके दो कारण हैं। पहला तो यह कि भारतीय इकाइयों को वहां के टेक्निकल रेगुलेशन की जानकारी कम होती है। दूसरा, भारत की लैब और यहां के स्टैंडर्ड तथा यूरोप की लैब और स्टैंडर्ड में बहुत फर्क है।

जी-20 की वर्किंग ग्रुप में शामिल भारद्वाज के अनुसार, हमें अपनी लैब को अपग्रेड करना पड़ेगा। भारत और विकसित देशों की लेबोरेटरी के बीच म्यूचुअल रिकॉग्निशन एग्रीमेंट (MRA) करना पड़ेगा। अभी हमारी लैब को वहां की लैब रिकॉग्नाइज ही नहीं करती हैं। उदाहरण के लिए भारत में फूड बहुत बड़ा सेक्टर है। यहां फलों का उत्पादन बड़े पैमाने पर होता है, लेकिन प्रोसेसिंग नाम मात्र की होती है। हम प्रोसेसिंग करके यूरोप भेजना चाहें तो नहीं कर सकते, क्योंकि हमारे एमएसएमई उनके मानकों का पालन ही नहीं कर सकती हैं।

बेसल मानकों का पालन करते हुए भारत में रिजर्व बैंक ने कमर्शियल बैंकों को 5 करोड़ से अधिक लोन वाले एमएसएमई की थर्ड पार्टी रेटिंग कराने को कहा, लेकिन यूरोप ने इस प्रावधान को अलग कर दिया। इसका नतीजा यह हुआ कि यूरोप की एमएसएमई को कर्ज लेने में उतनी दिक्कत नहीं होती जितनी भारत की एमएसएमई को होती है।

भारद्वाज कहते हैं, “जी-20 में हम यह मुद्दा रख सकते हैं कि जो नियम भारत जैसे विकासशील देशों के लिए है वही नियम विकसित देशों के लिए भी हो। इसी तरह, विकसित देशों की अच्छी प्रैक्टिस को हम विकासशील देशों में भी लागू करवा सकते हैं।”

आगे क्या उपाय जरूरी

मेहरोत्रा के अनुसार पिछले बजट में सरकार ने निवेश बढ़ाया था, अगले बजट में भी बढ़ाना पड़ेगा। निजी कंपनियां अब भी क्षमता का 74-75 प्रतिशत ही इस्तेमाल कर रही हैं। जब तक यह 80% नहीं पहुंचता, तब तक उनकी तरफ से नए निवेश की संभावना नहीं है।

अरुण कुमार कहते हैं, “अगर सरकार इनडायरेक्ट टैक्स कम करे, खासकर पेट्रोल और डीजल पर, तो उससे महंगाई कम होगी। सरकार ने पेट्रोल-डीजल पर ड्यूटी घटाई है, लेकिन ज्यादा नहीं। मेरा मानना है कि भारत में समस्या मौद्रिक नहीं, बल्कि राजकोषीय है। अगर बजट में राजकोषीय उपाय किए जाएं तो खराब वैश्विक परिस्थितियों के बावजूद भारत की विकास दर में गिरावट ज्यादा नहीं होगी।”

प्रो. कुमार के अनुसार, इनडायरेक्ट टैक्स में कमी की भरपाई डायरेक्ट टैक्स बढ़ाकर की जा सकती है। भारत में कुल वेल्थ करीब 1000 लाख करोड़ रुपये है और 80% संपत्ति शीर्ष 5% लोगों के पास है। अगर 800 लाख करोड़ रुपये पर 1% टैक्स भी लगाया जाए तो साल में आठ लाख करोड़ रुपये मिलेंगे। जिनकी संपत्ति बढ़ रही है उनसे टैक्स लेकर अर्थव्यवस्था को सुधारना चाहिए।

ब्राइट स्पॉट भारत

डी.के. जोशी के अनुसार भारत में स्थिति उतनी बुरी नहीं, इसलिए आर्थिक विकास का अनुमान 6.5% से 7% तक कायम है। यह दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे ऊंची वृद्धि दर है। फिस्मे के भारद्वाज कहते हैं, “2022 में आर्थिक विकास ठीक रहा। मौजूदा हालात में 6% से अधिक की ग्रोथ निश्चित रूप से अच्छी मानी जाएगी।” लंदन स्थित थिंक टैंक सेंटर फॉर इकोनॉमिक्स एंड बिजनेस रिसर्च (CEBR) ने कहा है कि वर्ल्ड इकोनॉमिक लीग टेबल में भारत अभी पांचवें स्थान पर है, यह 2037 में तीसरे स्थान पर पहुंच जाएगा।

लेकिन जब समूचा विश्व ग्लोबल विलेज बन चुका है तो दूसरी जगह समस्या आने पर हम आराम से नहीं रह सकते। अजय सहाय के मुताबिक, भारत ने तुलनात्मक रूप से अच्छा प्रदर्शन किया है। विश्व अर्थव्यवस्था का हिस्सा होने के नाते हम पर थोड़ा असर तो पड़ेगा, लेकिन बहुत ज्यादा नहीं। पारिख कहते हैं, वैश्विक परिस्थितियों का भारत की कुछ इंडस्ट्री पर असर हुआ, जैसे गुजरात की डाई एवं केमिकल इंडस्ट्री।

CEBR का अनुमान है कि 2022-23 में महंगाई, यूक्रेन युद्ध और अन्य वैश्विक अनिश्चितताओं के बावजूद भारत की विकास दर 6.8% रहेगी, लेकिन महंगाई के कारण 2023-24 में यह घटकर 5.8% पर आ जाएगी। केंद्र सरकार का कर्ज जीडीपी के 83.4% बराबर है और राजकोषीय घाटा 9.9% पर पहुंच जाने का अंदेशा है।

ऐसे अनिश्चित हालात में भी कई आंकड़े भारत के पक्ष में जाते हैं। यहां महंगाई की स्थिति यूरोप-अमेरिका से बेहतर रही, जहां चार-पांच दशकों का रिकॉर्ड टूट गया। सेंसेक्स ने 1 दिसंबर को 63,583 का उच्चतम स्तर छुआ। साल भर में यह 4.5% बढ़ा है, जबकि अमेरिका का डाउ जोंस 9%, जापान का निक्केई 10%, हांग कांग का हैंगसेंग 15% और चीन का शंघाई कंपोजिट इंडेक्स 16% नीचे आया है। कर्ज में 17% ग्रोथ हाल के वर्षों में सबसे ज्यादा है। 5जी का विस्तार होने से अगले साल टेलीकॉम और अन्य सर्विस सेक्टर में नई नौकरियों की उम्मीद है। 2021 के 51.3 अरब डॉलर की तुलना में इस साल जनवरी से सितंबर तक 42 अरब डॉलर से अधिक विदेशी निवेश आया है। इसलिए नयन पारिख के अनुसार, “दूसरे देशों की स्थिति को देखते हुए भारत को ‘ब्राइट स्पॉट’ कहा जा सकता है।”

(इस खबर के लिए केंद्रीय वित्त मंत्रालय के मुख्य आर्थिक सलाहकार डॉ. वी. अनंत नागेश्वरन से ईमेल के जरिए संपर्क किया गया। उनका जवाब आते ही खबर अपडेट कर दी जाएगी।)