Move to Jagran APP

वैश्विक महामारी कोविड-19 के बाद आर्थिक मोर्चे पर दिखाई देने लगे हैं सुधार के संकेत

कोविड-19 महामारी ने विश्‍व की कई बड़ी अर्थव्‍यवस्‍थाओं पर बेहद बुरा असर डाला है। भारत भी इससे अछूता नहीं रहा है। पड़ोसी देश बंग्‍लादेश की भी हालत हम से इस मामले में बेहतर है। लेकिन अब दोबारा भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था रफ्तार पकड़ रही है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Fri, 13 Nov 2020 07:51 AM (IST)Updated: Fri, 13 Nov 2020 07:51 AM (IST)
वैश्विक महामारी कोविड-19 के बाद आर्थिक मोर्चे पर दिखाई देने लगे हैं सुधार के संकेत
कोविड-19 से उबर कर अब दोबारा भारतीय अर्थव्‍यवस्‍था रफ्तार पकड़ रही है।

डॉ. विकास सिंह। हमारी अर्थव्यवस्था आज चौराहे पर खड़ी है। केवल एक दशक पहले हम विकसित अर्थव्यवस्थाओं के शिखर पर थे। पर वर्तमान हालात कुछ इस तरह दिखने लगे हैं कि हम बांग्लादेश और उसके जैसे देशों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रहे हैं। भारत का औद्योगीकरण कम उत्पादकता से बढ़ा है और समय पूर्व औद्योगीकरण की स्थिति से बचने के लिए एक मौलिक और मजबूत नए मॉडल की आवश्यकता महसूस की जा रही है। विनिर्माण और सेवा क्षेत्र दोनों के लचीलेपन का महत्व नौकरियों और प्रति व्यक्ति आय दोनों को मिलाने के बाद भी कम है। हालांकि प्रत्येक का प्रभाव अलग व महत्वपूर्ण है। सेवा क्षेत्र न केवल विकास के प्रत्येक चरण में कम नौकरियां पैदा करता है, बल्कि यह प्रति व्यक्ति आय की वृद्धि दर को भी घटाता है। इसके विपरीत, विनिर्माण एक विकास एस्केलेटर के रूप में कार्य करता है।

loksabha election banner

विनिर्माण क्षेत्र में पिछड़ी अर्थव्यवस्था का समानांतर प्रभाव एक कम औपचारिक अर्थव्यवस्था के रूप में सामने आता है, जिसमें असंगठित श्रम, कम उत्पादन और न्यूनतम लागत (यदि कोई हो), बेरोजगारी में वृद्धि और छोटे उद्यमियों की संख्या में बढ़ोतरी, न्यूनतम टैक्स जीडीपी अनुपात और सुस्त विकास जैसी विशेषताएं होती हैं। कई अन्य आíथक और सामाजिक सूचक भी प्रभावित होते हैं।

कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं कि ज्ञान संचालित अर्थव्यवस्था विनिर्माण के मध्यवर्ती चरण को दरकिनार कर सकती है। भारत अपनी जनसांख्यिकी के साथ भी ऐसा कर सकता है। भारतीय नीति निर्माताओं को यह समझने की जरूरत है कि 21वीं सदी में विकास और नौकरियों के बीच संबंध अस्पष्ट है, लिहाजा एक सेवा आधारित अर्थव्यवस्था पर जोर देना होगा।

समृद्धि से पहले बुढ़ापा आना : भारतीय शायद अफ्रीकी लोगों का जीवन नहीं जी सकते हैं और न ही कभी पड़ोसी चीन के जितना समृद्ध बन सकते हैं। भारतीय अर्थव्यवस्था मध्यम-आय की स्थिति का आनंद उठाती, उससे पहले ही इसे कुशलता और संपन्नता के बीच में बांटा जा रहा है। एक तरफ तेजी से बढ़ती भूखमरी, कुशलता और कम लागत वाली अर्थव्यवस्थाओं द्वारा नीचे धकेला जा रहा है तो दूसरी ओर विकसित अर्थव्यवस्थाओं के साथ प्रतिस्पर्धा करने के लिए संघर्ष किया जा रहा है। नौकरशाह केवल हर लेन-देन से मूल्य घटाते हैं और इंस्पेक्टर राज सबसे कुशल एमएसएमई को भी बाधित करता है।

कॉरपोरेट सेक्टर को नियामक बाधाओं व नीतिगत उथल-पुथल का सामना करना पड़ता है। व्यवस्था में बदलाव होने पर अनुबंध को रद करना आम है। माना जाता है कि प्रधानमंत्री को ऐसी अर्थव्यवस्था विरासत में मिली है जिसमें कई संकट हैं।

असमानता एक अभिशाप है : पिछड़ने वाला विकास तंत्र सबसे बड़ी आय असमानताओं और वर्गीकृत वितरण द्वारा चालित है, जो मांग सृजन पर मजबूर करती है, और जिसका परिणाम विकास के अभाव के रूप में सामने आता है। असमानता एक अभिशाप है, क्योंकि यह मध्यम (खपत) वर्ग में उध्र्वगामी गतिशीलता को धीमा कर देती है जो गुणवत्ता और विविधतापूर्ण उत्पादों के लिए अधिक भुगतान करने के लिए तैयार है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की पथ-प्रदर्शक पहल ने क्रांतिकारी सुधारों (फार्म विधेयक) को राज्य-केंद्र के टकराव में उलझा दिया जिससे संघवाद कमजोर होता दिखा। अदूरदर्शी सोच और शिथिल नीति निर्धारण, आधे-अधूरे सुधारों और उदासीन कार्यान्वयन के कारण इससे पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान पहुंचा है। नौकरशाही का हद से आगे बढ़ना जारी है। त्वरित सुधार आदर्श बन गए हैं, लेकिन नौकरशाह इसे समग्रता में नहीं समझ रहे हैं। जीएसटी पर अभी भी कार्य प्रगति पर है। आईबीसी को मटियामेट किया गया है और उसे बहुत कम सफलता मिली है। कौशल विकास को बेहतर तरीके से लागू नहीं किया गया। वित्तीय समावेशन की पहल से अभी भी गरीब वंचित हैं।

संरचनात्मक मंदी में अर्थव्यवस्था : कोविड के संदर्भ में वित्त मंत्री की प्रतिक्रिया की अपनी समस्याएं हैं और यह विषम व्यापार चक्र के रूप में दिखाई देता है। भारत एक मांग आधारित अर्थव्यवस्था है। हालांकि कोविड का उभार गलत दिशा में लक्षित किया गया है यानी जब मांग को पुनर्जीवित करना था, हम आपूíत सृजन पर ध्यान केंद्रित करते हैं। भारत के आíथक इंजन एमएसएमई इतने बुरे नहीं। मेक इन इंडिया अभियान ने बहुत सारे वादे किए, लेकिन समग्र नीतिगत ढांचे के अभाव और नौकरशाही की उदासीनता के कारण उसके अनुरूप परिणाम नहीं मिले। भारत का कारखाना उत्पादन को अनुबंधित (कोविड-पूर्व) और असंगठित क्षेत्र के लिए वास्तविक मजदूरी (मुद्रास्फीति के संबंध) को बदतर किया गया है। किसानों ने आय में कमी का अनुभव किया है।

जोड़-तोड़ नहीं, सुधार करें : हम कई चुनौतियों का सामना करते हैं। बहुत सारे सरकारी हस्तक्षेप हैं और लाइसेंस- परमिट- इंस्पेक्टर राज अभी भी कायम है। वर्ष 1991 में वादा किया गया था कि आíथक स्वतंत्रता की प्रारंभिक अवधि एक परिपक्व बाजार अर्थव्यवस्था में विकसित नहीं हुई है। सरकारी हस्तक्षेप से लोग घिर गए हैं। नीति निर्माताओं के बीच केंद्रीय योजना की प्रवृत्ति जीवित और बेहतर स्थिति में है। सरकार के हाथ में स्वेच्छित शक्ति का होना बहुत बड़ी बात है। सरकार द्वारा अर्थव्यवस्था में व्यापक हस्तक्षेप, भविष्य के हस्तक्षेप से जुड़े नीतिगत जोखिम और सरकार द्वारा स्वेच्छित शक्ति का उपयोग करने के डर से निजी क्षेत्र में विश्वास में कमी आई है।

भारत के पास एक तरफ मानव पूंजी की कमी है और दूसरी तरफ मूल्य बढ़ाने वाले संस्थानों का अभाव है। यहां न तो अत्याधुनिक तकनीक है और न ही अवसर को तराशने और मूल्यवर्धन के लिए पर्याप्त पूंजी है। वैश्विक व्यापार मामलों पर सरकार की प्रतिक्रिया ज्यादातर अपर्याप्त और अक्सर संकोची होती है। अवसंरचना कमरे में रखे एक बड़े हाथी की तरह है। सक्षम एमएसएमई की राह इंस्पेक्टर राज की वजह से बाधित हो रही है और वे प्रोत्साहन की आवश्यक मदद की कमी से जूझ रहे हैं। परिणामस्वरूप वे मूल्यवर्धन में असफल होते हैं, बड़े कॉरपोरेट्स की क्षमताओं को कम करते हैं, उन्हें नुकसान पहुंचाते हैं और अर्थव्यवस्था को आगे बढ़ने में बाधक बनते हैं। 

खेत से फैक्‍ट्री में लाने होंगे कामगार 

कानून के शासन के संदर्भ में राज्य संस्थानों की नींव, नियंत्रण व संतुलन हमेशा कमजोर थे। निजी व्यक्तियों द्वारा संस्थानों को कमजोर करने की क्षमता हासिल होने से संस्थागत गुणवत्ता में गिरावट आई है। इन समस्याओं को दूर करने के लिए गहराई में जाना होगा। हमें राज्य के हस्तक्षेप की जरूरत क्यों है? राज्य की क्षमता कम क्यों है? राज्य क्षमता के क्रमिक सुधार को पूरा करने के लिए राज्य संगठनों का निर्माण कैसे किया जाना चाहिए? राज्य की क्षमता कम होने पर सार्वजनिक नीति के लिए सही दृष्टिकोण क्या है? ये आज भारतीय अर्थशास्त्र के महत्वपूर्ण प्रश्न हैं।

हरित क्रांति या भारी उद्योग या व्यापार उदारीकरण जैसे मुद्दों पर पिछले दशकों के आíथक विचारकों ने अर्थशास्त्र पर अधिक ध्यान केंद्रित किया। अब हमें राजनीति और अर्थव्यवस्था के चौराहे पर और अधिक स्पष्ट रूप से पता करने की आवश्यकता है। निरंतर आíथक विकास को संभव बनाने के लिए हमें बहुत कुछ करना होगा। गरीबों के पास मौजूद पैसा मल्टीप्लायर का काम करता है। गरीबी से लाखों लोगों को बाहर निकालकर हमने सतत विकास का लाभ उठाया है। हालांकि हम फायदों को अपने से दूर कर रहे हैं।

पूर्ववर्ती सुधार के दिनों में वापसी से बचने के लिए भारत को इस दशक में आठ प्रतिशत की गति से आगे बढ़ने की जरूरत है। इस विकास दर के लिए नारों, विचारों और प्रयोगों से आगे बढ़ना होगा। प्रधानमंत्री के नीति निर्धारक सब कुछ को संतुलित करने की कोशिश कर रहे हैं। लेकिन अर्थव्यवस्था को चलाना कोई कलाबाजी का कार्य नहीं है। हमें लोगों को फार्म से फैक्ट्री तक लाने और संसाधनों से उच्च आय, ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था तक और मूल्यवर्धन के कार्य को आगे बढ़ाने की जरूरत है। फार्म से फैक्ट्री तक श्रम का स्थानांतरण करना विकास का एक मुख्य चालक है। इससे मार्जनिल रिटर्न शीघ्रता से कम होने लगते हैं। जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था परिपक्व होती है, मजदूरी बढ़ने लगती है, कम लागत के फायदे गायब हो जाते हैं।

ज्ञान आधारित क्षेत्रों और आठ सबसे बड़े आíथक केंद्रों पर केंद्रित एक अध्ययन बताता है कि ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था 55 से 70 प्रतिशत तक ज्यादा अर्थव्यवस्था में योगदान दे सकते हैं। यदि ज्ञान को संयोजित और परिष्कृत व अत्याधुनिक तकनीकों के साथ संबद्ध किया जाता है तो मूल्यवर्धन को दोगुना भी किया जा सकता है। यह आवेग एक सकारात्मक और सक्षम पारिस्थितिकी तंत्र बनाने वाले अन्य केंद्रों में बदल जाता है। हमने अच्छी शुरुआत की है और ईमानदारी से लाभान्वित हुए हैं। हालांकि पिछले दशकों में जो काम किया है, वह अगले में पर्याप्त नहीं हो सकता है। इसी तरह, भारत को और भी अधिक प्रभावी संस्थानों का निर्माण करने और लोगों की ऊर्जा, क्षमता और आकांक्षा को नियमित और मध्यवर्ती बनाने के लिए मौजूदा लोगों की क्षमताओं को बढ़ाने की जरूरत है।

मूल्‍‍‍य बढ़ाने वाले संस्‍थानों का बढ़ाव 

भारत को बहुत गहरे और संरचनात्मक सुधारों की जरूरत है। इसे विकसित संस्थानों की आवश्यकता है जो व्यापार चक्र के प्रत्येक चरण में मूल्य को जोड़ते हैं। इन संस्थानों और इनके सहायकों को जटिल अनुबंधों को सक्षम बनाना चाहिए, उन्हें लागू करना चाहिए और अर्थव्यवस्था को विनियमित करना चाहिए। इसी प्रकार जटिल कानूनों की कठोरता को दूर करने, कड़े नियमों को हल करने, नियमों को लागू करने और ऊर्जा व क्षमता को सही दिशा प्रदान करने समेत बिना किसी डर या पक्ष के लोगों की सेवा करने के लिए क्षमता निर्माण और अधिकतम स्वायत्तता प्राप्त करनी होगी। कॉरपोरेट सेक्टर की भी अहम भूमिका है। नई तकनीक का आगमन गुणवत्ता और पैमाने को बढ़ाता है, लागत को कम करता है। सस्ती पूंजी मूल्य निर्माताओं में निवेश को संचालित करती है।

कौशल नई अर्थव्यवस्था की मुद्रा है, जो प्रक्रियाओं को सक्षम बनाती है, नवाचार को प्रोत्साहित करती है, उत्पादकता को बढ़ाती है और लाभदायक बाजारों में प्रवेश को आसान बनाती है। हमें कम उत्पादकता से लेकर उच्च उत्पादकता वाले क्षेत्रों तक नवीन दृष्टिकोण लाने तथा ध्यान स्थानांतरित करने और संसाधनों को पुन: आबंटित करने की आवश्यकता है। इसे उन संसाधनों का एक बड़ा हिस्सा उच्च उपज और उच्च संभावित क्षेत्रों में समíपत करना होगा और मूल्यवर्धन को आगे बढ़ाना होगा। लेकिन केवल ऐसा करना ही पर्याप्त नहीं होगा। इनके अलावा, संसाधनों के समुचित वितरण में तकनीक को बढ़ावा देना होगा, ताकि समावेशी विकास के चक्र को सक्रिय किया जा सके।

(मैनेजमेंट गुरु तथा वित्तीय एवं समग्र विकास के विशेषज्ञ)


Jagran.com अब whatsapp चैनल पर भी उपलब्ध है। आज ही फॉलो करें और पाएं महत्वपूर्ण खबरेंWhatsApp चैनल से जुड़ें
This website uses cookies or similar technologies to enhance your browsing experience and provide personalized recommendations. By continuing to use our website, you agree to our Privacy Policy and Cookie Policy.