...तो इस तरह से ड्रेगन को घुटनों पर लाना होगा आसान, निकल जाएगी चीन की सारी हेकड़ी
गलवन में किए गए चीन के दुस्साहस का जवाब वैश्विक स्तर पर उसके खिलाफ छेड़े गए ट्रेड वार से दिया जा सकता है। ये ट्रेड वार अमेरिका ने शुरू किया है।
प्रो पुष्पेश पंत। पिछले पंद्रह बीस साल में चीन ने अपना जाल इस तरह बिछाया है कि उससे निकलना भारत के लिए बहुत आसान नहीं। चीन के साथ भारत के व्यापार का आंकड़ा कई गुना बढ़ गया है। तराज़ू के पलड़े बुरी तरह असंतुलित हैं। जितना समान भारत आयात करता है उससे कहीं कम निर्यात करता है। अर्थात यह कहना आसान है कि चीन के सामान का भारत को बहिष्कार करना चाहिए। संकट की इस घड़ी में भी कुछ भारतीय उद्यमी यह तर्क दे रहे हैं कि यदि हमने ऐसा किया तो हमारी आर्थिक विकास दर और भी मंद हो जाएगी।
देश पहले से ही कोरोना की मार से पीड़ित है बेरोजगारी, महंगाई, तंगहाली से छुटकारा पाने के लिए उत्पादक इकाइयों को यथासंभव प्रोत्साहित करने की अनिवार्यता सरकार स्वीकार करती है परंतु कोई भी देश की एकता और अखंडता तथा अपनी संप्रभुता को ही सर्वोच्च प्राथमिकता देता है। मोटरगाडियों के कलपुर्जे हों, दूरसंचार उपकरण या फिर प्राणरक्षक दवाइयों के उत्पादन के लिए आवश्यक प्राथमिक रसायन, इन सबके लिए आज भारत चीन पर निर्भर है।
आत्मनिर्भरता का संकल्प लेने के बाद भी भारत को इस पर निर्भरता से मुक्त होने में कुछ समय लगेगा। मेरा मानना है कि हमें चीन के विरुद्ध अमेरिका द्वारा छेड़े वाणिज्य युद्ध में खुलकर शिरकत करनी चाहिए। न तो हम तेल-गैस का आयात चीन से करते हैं और न ही सामरिक महत्व की सैनिक सामग्री का। चीन का बड़ा बजार हमारे लिए कभी भी खुला नहीं रहा है। कुछ भारतीय कंपनियों ने भले ही बहुराष्ट्रीय कंपनियों की देखा देखी चीन के विशेष आर्थिक क्षेत्र में अपनी इकाइयां स्थापित की हों इनके स्वार्थ भारत के राष्ट्रहित का पर्याय नहीं समझे जा सकते।
राष्ट्रपति ट्रंप के दबाव में यूरोपीय समुदाय के देश भी चीन के साथ अपने व्यापार को पूर्ववत अबाध नहीं रख सकते। ऑस्ट्रेलिया जैसे देशों के लिए या ऑसियान के सदस्यों के लिए दुविधा बनी रहेगी। अंतरराष्ट्रीय व्यापार में इनका प्रमुख साझीदार चीन ही है। तथापि यदि चुनना ही पड़े तब यह सभी अमेरिका और पश्चिमी देशों के ही सहयोगी बनना पसंद करेंगे। भारत ने इस स्थिति का लाभ उठाने का यथासंभव प्रयास किया है। ऑस्ट्रेलिया के साथ पिछले महीनों में निकटता बढ़ी है।
पिछले छह साल में 18 बार मोदी और शी जिनपिंग की मुलाकातें हुईं। जब शी मेहमान थे या मेजबान उनके तेवर यही रहे कि एक अधिक ताकतवर देश के नेता हैं। इस बात का अहसास भारत को ‘ग्लोबल टाइम्स’ जैसे चीनी सरकार के मुखपत्र अभद्र भाषा में कराते रहे हैं कि भारत को अपनी ताकत का ग़ुरूर नहीं होना चाहिए। यदि उसने कोई ग़ुस्ताख हरकत की तो 1962 जैसा सबक फिर से सिखलाया जा सकता है। आज इस हिमालयी भूल का जिक्र निरर्थक है कि कैसे नेहरू ने सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता से मुंह चुराकर ताईवान फौरमोसा के बाद चीन को वहां प्रतिष्ठित करने की जमीन तैयार की थी या कैसे तिब्बत में चीन की प्रभुसत्ता को मान्यता दे कर उसे अपनी सीमा तक बुला भेजा था।
आज वह संयुक्त राष्ट्र की किसी पहल को वीटो से निरस्त कर सकता है। भारत की तुलना में कई क्षेत्रों में आज वह ज्यादा मजबूत और आत्मनिर्भर है। हम देर तक यह सोचते निश्चिंत नहीं बैठे रह सकते कि चीन की आबादी बुढ़ा रही है या हांगकांग में जनतांत्रिक आंदोलन के कारण शी जिनपिंग की स्थिति संकटग्रस्त होने वाली है। चीन सदियों से अधिनायकवादी शासित देश रहा है। हम यह ख़ुशफहमी न पालें कि चीन का भव्य भवन कोरोना ने जर्जर कर दिया है और वह हमारे साथ रक्तरंजित मुठभेड़ का दुस्साहस नहीं करेगा। लद्दाख की घटनाओं की पुनरावृत्ति निकट भविष्य में देखने को मिल सकती है। सीमा युद्ध का विस्फोट भले ही न हो यह लड़ाई कई मोर्चों पर लड़ने के लिए भारत को कमर कसनी होगी।
(लेखक जेएनयू के स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज में प्रोफेसर हैं)