अफगानिस्तान-तालिबान वार्ता में भारत को अलग-थलग करने पर इतरा रहा पाकिस्तान
अफगानिस्तान शांति प्रक्रिया में तवज्जो न मिलने से भारत परेशान है। 18 वर्षों से भारत यहां पर शांति बहाली के लिए काम कर रहा है।
नई दिल्ली [जागरण स्पेशल]। अफगानिस्तान-तालिबान वार्ता को लेकर भारत कहीं न कहीं पशोपेश में दिखाई दे रहा है। 18 वर्षों तक अफगानिस्तान में शांति लाने की चाह रखने और इसके लिए प्रयास करने वाले भारत को इस वार्ता से बाहर रखा गया है। इतना ही नहीं जिस पाकिस्तान ने तालिबान को पालने-पोसने का काम किया उसको इस वार्ता में बड़ी भूमिका मिली हुई है। अमेरिका की यह कूटनीति फिलहाल भारत के लिए दूर की कौड़ी साबित हो रही है। 18 वर्षों तक तालिबान से जारी जंग में अमेरिका ने एक ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा खर्च किया है। इसके बाद भी उसको यहां पर जीत हासिल नहीं हुई है। नतीजतन जिस तरह से कभी रूस यहां से खाली हाथ लौटा था ठीक ऐसे ही अमेरिका अपने लौटने की तैयारी कर रहा है।
लेकिन, अपनी इस वापसी में उसने पाकिस्तान को वजीर के मोहरे की जगह बैठा दिया है। इसकी वजह से पाकिस्तान खुद को बेहद जिम्मेदार दिखाने का नाटक कर भारत को बदनाम करने से भी बाज नहीं आ रहा है। आपको बता दें कि अफगान-तालिबान की इस वार्ता में भारत को दरकिनार किए जाने से वहां के पूर्व राष्ट्रपति भी इत्तफाक नहीं रखते हैं। हालही में अफगान शांति प्रक्रिया को लेकर चीन में वार्ता हुई थी, जिसमें अमेरिका,चीन, रूस और पाकिस्तान ने संयुक्त रूप से तालिबान से अनुरोध किया है कि वह तत्काल संघर्षविराम के लिये राजी हो और अफगानिस्तान सरकार से सीधे बातचीत करे जिससे देश में 18 साल से चली आ रही हिंसा खत्म हो सके।
चीन में 10-11 जुलाई को अफगान शांति प्रक्रिया पर हुई बैठक के समापन के बाद जारी संयुक्त बयान में इस बात पर फिर जोर दिया गया कि बातचीत अफगान के नेतृत्व और अफगानियों को लेकर होनी चाहिए। जितनी जल्दी हो सके यह वार्ता शांति का कार्यढांचा प्रदान करने के लिए होनी चाहिए। जहां तक इस वार्ता में अमेरिका की बात है तो वह चाहता है कि इस वर्ष सितंबर में अफगानिस्तान में होने वाले राष्ट्रपति चुनाव से पहले दोनों किसी नतीजे पर पहुंच जाएं। वहीं, अमेरिका में भी 2020 के नवंबर में राष्ट्रपति चुनाव होने हैं।
अफगानिस्तान में अमेरिकी राजदूत जॉन बास की मानें तो शांति प्रकिया के किसी समझौते पर पहुंचने तक अफगानिस्तान में राष्ट्रपति चुनाव को टाला जा सकता है। हालांकि, भारत इससे सहमत नहीं है। पिछले दिनों भारत ने इस बाबत अपने विचार से अमेरिकी विदेश मंत्री माइक पोंपियो को अवगत करा दिया था दरअसल, भारत चाहता है कि शांति प्रक्रिया से चुनाव को स्थागित नहीं किया जाना चाहिए और तय समय पर यह संपन्न किए जाने चाहिए। भारत ने अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि जलमे खालिजाद और रूस, दोनों के सामने अफगानिस्तान में अंतरिम सरकार के गठन के प्रस्ताव का भी विरोध किया है। हालांकि यहां पर भारत के विचारों को तवज्जो नहीं दी गई।
जहां तक अफगान शांति प्रक्रिया में भारत के शामिल होने की बात है तो भारत में अफगानिस्तान के पूर्व राजदूत और राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार शाइदा अब्दाली ने एक अंग्रेजी अखबार से बातचीत में कहा था कि 18 वर्षों से चली आ रही भारतीय कोशिशों को असफल नहीं होने देना चाहिए। हालांकि वह मानते हैं कि जिस तरह से भारत को इस वार्ता से अलग-थलग रखा गया है उसका दीर्घकालीन असर जरूर दिखाई देगा। बहरहाल, इन सभी के बीच यहां पर इस मुद्दे का एक दिलचस्प पहलू ये भी है कि भारत अफगान जनता के दिलों पर आज भी राज करता है। अफगानिस्तान से जुड़े मामलों के जानकार मानते हैं कि इस मुद्दे पर भारत को ज्यादा प्रोऐक्टिव होना चाहिए। भारत को चाहिए कि वे राष्ट्रवादी अफगानों में अपनी पैठ बढ़ाते हुए उन्हें एकजुट करे। अमेरिका की ही बदौलत इस मुद्दे पर रूस और चीन एकसाथ आए हैं। पाकिस्तान इस प्रक्रिया में पहले से शामिल है और वार्ता की मेज पर अहम भूमिका में है। अफागान शांति प्रक्रिया को लेकर इससे पहले बैठक दोहा में हुई थी।