नई दिल्ली, एस.के.सिंह। आजादी के समय भारत में उद्योग-धंधे की स्थिति क्या थी, इसका अंदाजा पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) की इन पंक्तियों से लग जाता है, 1948-49 में कुल राष्ट्रीय आय में फैक्ट्रियों का हिस्सा सिर्फ 6.6% था। उन फैक्ट्रियों में 24 लाख लोग काम करते थे जो देश की कुल कामकाजी आबादी का 1.8% थे। मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री के लिए 1952 में एक सर्वे भी हुआ था, जिसके मुताबिक देश में छोटी-बड़ी सिर्फ 28,872 रजिस्टर्ड फैक्ट्रियां थीं। विकास और रोजगार के लिए उद्योगों की जरूरत को महसूस करते हुए आजादी के बाद इस दिशा में कदम उठाए गए। उद्योग को बढ़ावा देने वाली नीतियों का ही परिणाम है कि आज भारत मैन्युफैक्चरिंग के लिए दूसरा सबसे आकर्षक देश बन गया है। यहां 1400 से ज्यादा बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने ग्लोबल कैपेबिलिटी सेंटर स्थापित किए हैं जिनमें 13 लाख लोग काम कर रहे हैं।

2019-20 के एनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्रीज के अनुसार देश में रजिस्टर्ड फैक्ट्रियों की संख्या करीब ढाई लाख हो गई है। वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की 2020 की रिपोर्ट में भारत को दुनिया का छठा सबसे बड़ा मैन्युफैक्चरर बताया गया है। आज भारत न सिर्फ सबसे बड़ा मोटरसाइकल उत्पादक है, बल्कि कार उत्पादन में यह तीसरे और सभी तरह के फोर-व्हीलर बनाने में चौथे स्थान पर है। भारत की स्टील और टेक्सटाइल इंडस्ट्री चीन के बाद दुनिया में दूसरी सबसे बड़ी है। टीवी-फ्रिज जैसे कंज्यूमर ड्यूरेबल और साबुन-टूथपेस्ट जैसे एफएमसीजी सेक्टर की दुनिया की ज्यादातर बड़ी कंपनियां भारत में उत्पादन कर रही हैं। इंडस्ट्री की इसी तरक्की का नतीजा है कि ग्रॉस वैल्यू ऐडेड (जीवीए) में इंडस्ट्री का योगदान सात दशकों में 53 गुना बढ़ गया है। इस दौरान निर्यात भी 300 गुना से ज्यादा बढ़ा है।

ऐसा नहीं कि भारत में उद्योग आजादी के बाद ही फला-फूला। अंग्रेजों के आने से पहले दुनिया का एक चौथाई औद्योगिक उत्पादन भारत में ही होता था। हैंडीक्राफ्ट, टेक्सटाइल, हीरे-जवाहरात जैसे क्षेत्र में भारत का बड़ा नाम था। लेकिन अंग्रेजी शासन के दौरान भारत कच्चे माल का सप्लायर और तैयार माल का खरीदार बनकर रह गया। अमेरिका की हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के प्रो. जेफ्री विलियम्सन और केस वेस्टर्न रिजर्व यूनिवर्सिटी के प्रो. डेविड क्लिंगिंगस्मिथ ने एक शोधपत्र में लिखा है, “18वीं सदी की शुरुआत में विश्व टेक्सटाइल निर्यात बाजार में भारत प्रमुख खिलाड़ी था, लेकिन 19वीं सदी के मध्य तक इसने निर्यात के साथ घरेलू बाजार भी खो दिया। वर्ष 1750 में विश्व का 25% औद्योगिक उत्पादन अकेले भारत करता था, जो 1900 में घटकर सिर्फ 2% रह गया।”

रिजर्व बैंक ने भी जून 2022 में अपनी एक बुलेटिन में लिखा, पहली और दूसरी औद्योगिक क्रांति के समय भारत में अंग्रेजी शासन था। पश्चिम में टेक्नोलॉजी का विकास हो रहा था लेकिन भारत में उस दौरान उद्योग-धंधे खत्म होते गए। भारत मूलतः इंग्लैंड की फैक्ट्रियों के लिए कच्चे माल का सप्लायर बन कर रह गया था। नतीजा यह हुआ कि वर्ष 1700 में विश्व आमदनी में भारत की जो हिस्सेदारी 25% थी, वह 1950 में घटकर 3% रह गई।

भारत में उद्योगों की स्थिति को बयां करते हुए फेडरेशन ऑफ इंडियन माइक्रो, स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज (फिस्मे) के महासचिव अनिल भारद्वाज कहते हैं, “जब देश आजाद हुआ, तब मैन्युफैक्चरिंग के नाम पर चंद टेक्सटाइल और स्टील मिलें तथा कुछ इंजीनियरिंग फर्में थीं। सुई से लेकर लालटेन तक, घड़ी से लेकर ऑटोमोबाइल तक सब कुछ यूरोप से आता था। अंग्रेजी सरकार की नीतियों ने कच्चे माल के बाजार और घरेलू सप्लाई चेन को ध्वस्त कर दिया था। लेकिन आजादी के बाद भारत ने योजनाबद्ध तरीके से आगे बढ़ते हुए विशाल औद्योगिक ढांचा खड़ा किया है।”

टाटा, बिड़ला, ब्रिटानिया, गोदरेज, आईटीसी, अरविंद, सिप्ला, महिंद्रा जैसे इंडस्ट्री ग्रुप आजादी से पहले अस्तित्व में आ चुके थे। देश के प्रमुख उद्योगपतियों ने 1944-45 में ‘बॉम्बे प्लान’ नाम से एक योजना तैयार की थी, जिसे आधार बनाकर 1948 में पहला इंडस्ट्रियल पॉलिसी रिजॉल्यूशन लाया गया था। लेकिन उद्योगों पर फोकस मार्च 1950 में योजना आयोग के गठन के बाद ही बढ़ा।

भारत में इंडस्ट्री के विकास को तीन चरणों में देखा जा सकता है। पहला, 1970 के दशक तक जब इंडस्ट्री पूरी तरह सरकार के नियंत्रण में थी। दूसरा, 1980 का दशक जब सीमित उदारीकरण किया गया और तीसरा, 1991 में उदारीकरण के बाद का समय। भारत ने शुरू से ही मिक्स्ड इकोनॉमी का मॉडल अपनाया। लेकिन शुरुआती दिनों में निजी क्षेत्र पर भी सरकार का नियंत्रण रहता था। सरकार ही तय करती थी कि कोई कंपनी कहां निवेश करेगी, कितना उत्पादन करेगी और कौन सी टेक्नोलॉजी का इस्तेमाल करेगी।

1938 में जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में नेशनल प्लानिंग कमेटी बनी थी, जिसने सभी प्रमुख उद्योगों पर सरकार के नियंत्रण की सिफारिश की थी। शायद यही वजह है कि नेहरू के प्रधानमंत्री बनने के बाद उद्योगों पर सरकार के नियंत्रण की नीति अपनाई गई। लेकिन ऐसे माहौल में उद्योगों की एफिशिएंसी नहीं बढ़ी और उन्हें बचाने के लिए संरक्षणवादी आयात नीति अपनानी पड़ी।

दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) में उद्योगीकरण को प्राथमिकता मिली। पी.सी. महालनोबिस के मॉडल में हैवी और कैपिटल गुड्स इंडस्ट्री पर फोकस किया गया ताकि औद्योगिक विकास का मजबूत आधार तैयार किया जा सके। आयरन एंड स्टील, कोयला, हैवी इंजीनियरिंग, केमिकल, सीमेंट जैसे उद्योगों में काफी निवेश किया गया। यह नीति तीसरी पंचवर्षीय योजना में भी जारी रही।

कुछ अर्थशास्त्रियों का मानना है कि तीसरी योजना तक कैपिटल गुड्स सेक्टर पर फोकस दिए जाने से कंज्यूमर गुड्स सेक्टर की अनदेखी हो गई जिसका असर ग्रोथ रेट पर भी हुआ। पी.आर. ब्रह्मानंद जैसे कुछ अर्थशास्त्री 1960 के दशक में खाद्य पदार्थों की भीषण कमी के लिए महालनोबिस मॉडल को भी जिम्मेदार ठहराते हैं, क्योंकि उसमें कृषि को दरकिनार कर दिया गया था।

आखिरकार ब्रह्मानंद मॉडल को अपनाते हुए कृषि का आधुनिकीकरण किया गया और हरित क्रांति हुई, लेकिन तब तक औद्योगिक विकास दर में गिरावट दिखने लगी। तीसरी पंचवर्षीय योजना में यह 9% थी जो 1966-67 में सिर्फ 0.6% रह गई थी। यह गिरावट चौथी और पांचवीं पंचवर्षीय योजना तक जारी रही। पांचवीं योजना के अंत में औद्योगिक विकास दर -1.6% हो गई थी।

जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ में विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा के अनुसार, दूसरी पंचवर्षीय योजना में गैर-कृषि क्षेत्र में रोजगार पैदा करने के लिए लघु उद्योगों को बढ़ावा देने की बात कही गई थी। उनके लिए कुछ उत्पाद रिजर्व कर दिए गए, जिन्हें बड़ी कंपनियां तैयार नहीं कर सकती थीं। सोच यह थी कि जैसे-जैसे इनका बिजनेस बड़ा होगा, इनमें रोजगार भी बढ़ता जाएगा। लेकिन बिजनेस बढ़ने पर सरकारी मदद खत्म हो जाती। इसका असर यह हुआ कि रजिस्टर्ड छोटी इकाइयां बड़ी नहीं हो सकीं। वे अपने से छोटी, माइक्रो इकाइयों से कच्चा माल खरीदती थीं, जो असंगठित क्षेत्र में थीं। वे कहते हैं, “आज असंगठित क्षेत्र इतना बड़ा है तो इसका एक कारण यह सोच थी। इन इकाइयों में पुरानी टेक्नोलॉजी इस्तेमाल होती थी, जिससे उनकी उत्पादकता नहीं बढ़ी। उत्पादकता नहीं बढ़ने से उनकी आमदनी भी नहीं बढ़ सकी।”

1970 के दशक तक संरक्षणवादी नीतियों के कारण भारतीय उद्योगों के सामने कोई प्रतिस्पर्धा नहीं थी। उससे अक्षमता बढ़ी। लाइसेंस राज भी एक बाधा थी। 1980 के बाद उदारीकरण की शुरुआत हुई तो लाइसेंसिंग नीति को उदार बनाते हुए उद्योगों को अधिक आजादी दी गई। हालांकि विदेशी निवेश पर तब भी अंकुश था। फिर भी उत्पादकता बढ़ाने, उत्पादन लागत कम करने और क्वालिटी सुधारने पर फोकस किया गया। विदेशी निवेश के नियम लचीले बनाए गए, विज्ञान और टेक्नोलॉजी को भी बढ़ावा दिया गया जिससे दूरसंचार उद्योग का विस्तार हुआ। उसी समय इन्फॉर्मेशन टेक्नोलॉजी सेक्टर का भी उदय हुआ।

1991 में उदारीकरण की नीति अपनाते हुए औद्योगिक लाइसेंसिंग खत्म कर दी गई, बिजनेस शुरू करने के नियम आसान बनाए गए, सार्वजनिक क्षेत्र के लिए रिजर्व उद्योगों की सूची छोटी की गई, भारतीय कंपनियों में विदेशी निवेशकों को पैसा लगाने की अनुमति मिली, कस्टम और एक्साइज ड्यूटी घटाई गई, इनकम और कॉरपोरेट टैक्स भी कम किए गए।

आर्थिक सुधार लागू होने के तत्काल बाद औद्योगिक दर में गिरावट आई, लेकिन इसका एक कारण विदेशी प्रतिस्पर्धा थी। भारतीय कंपनियां इतनी मजबूत नहीं थीं कि निर्यात में प्रतिस्पर्धा कर सकें। उस समय इंफ्रास्ट्रक्चर भी कमजोर था।

इकोनॉमी को जब विदेशी निवेश के लिए खोला गया तब एक रोचक बात सामने आई। ‘बॉम्बे क्लब’ नाम से मशहूर कुछ पुराने उद्योगपतियों के समूह ने पहले इसका विरोध किया और सरकार से संरक्षण मांगा। हालांकि बाद में भारतीय कंपनियों ने भी खुद को बदला और उन्होंने भी विदेशों में यूनिट स्थापित किए और अधिग्रहण किए। टाटा स्टील ने 2007 में इंग्लैंड की कोरस कंपनी को 13 अरब डॉलर में खरीदा। उसी साल आदित्य बिड़ला समूह की हिंडाल्को इंडस्ट्रीज ने अमेरिका की नोवेलिस को छह अरब डॉलर में खरीदा था। आगे चलकर यह सूची और बड़ी हुई।

लघु उद्योगों को बढ़ावा

आजादी के बाद छोटे उपक्रमों को कई इंसेंटिव दिए गए। हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि 1970 के दशक में जो 800 आइटम छोटे उद्योगों के लिए रिजर्व किए गए थे, उससे नुकसान हुआ। उनमें बहुत से आइटम का निर्यात बढ़ाने की गुंजाइश थी जो नहीं बढ़ सकी। इस सेक्टर का मैन्युफैक्चरिंग में योगदान लगभग 40% और निर्यात में 35% है। कृषि के बाद सबसे अधिक लोगों को रोजगार इसी सेक्टर में मिलता है। यह सेक्टर भारत की जीडीपी में लगभग 30% योगदान कर रहा है। टेक्सटाइल और गारमेंट, लेदर, जेम्स एंड ज्वैलरी जैसे पारंपरिक उत्पादों के अलावा ये इकाइयां ऑटोमोबाइल, इलेक्ट्रॉनिक्स, केमिकल, फार्मास्युटिकल्स और लाइट इंजीनियरिंग में भी उत्पादन कर रही हैं। आर्थिक सर्वेक्षण (2020-21) के अनुसार 2019-20 में मौजूदा मूल्यों पर जीवीए में एमएसएमई का हिस्सा 33% था।

छोटे उद्योगों को बढ़ावा देने की नीति पर फिस्मे के भारद्वाज कहते हैं, “एक तरफ डेवलपमेंट कमिश्नर (हैंडीक्राफ्ट एंड टेक्सटाइल्स) ऑफिस के माध्यम से पारंपरिक हस्तकला को पुनर्जीवित कर आगे बढ़ाया गया, तो दूसरी तरफ डेवलपमेंट कमिश्नर (एसएसआई) ऑफिस के जरिए लाखों छोटी इकाइयों को पनपने में मदद की गई। सरकार ने विभिन्न संस्थानों के माध्यम से जमीन दी, आसान शर्तों पर कर्ज उपलब्ध कराया, मार्केटिंग और टेक्निकल क्षेत्र में मदद की। सार्वजनिक कंपनियों के इर्द-गिर्द छोटे वेंडर खड़े हुए जो उन कंपनियों को सप्लाई करते थे।”

हालांकि कुछ विशेषज्ञों का मानना है कि 2016 में नोटबंदी तथा 2017 में जीएसटी लागू होने से छोटी इकाइयों को नुकसान हुआ है। कोरोना काल में तो अनेक इकाइयों के बंद होने की भी खबरें आईं। हालांकि इसका कोई आधिकारिक आंकड़ा अभी तक सामने नहीं आया है।

उद्योगों से रोजगार और आमदनी में वृद्धि

1952 में मैन्युफैक्चरिंग इंडस्ट्री का जो सर्वे किया गया था, उसके मुताबिक 28,872 रजिस्टर्ड फैक्ट्रियों में 28.36 लाख लोग काम करते थे। प्रति कर्मचारी रोजाना औसतन 4.81 रुपये और साल भर में 1,019 रुपये कमाते थे। एनुअल सर्वे ऑफ इंडस्ट्रीज 2019-20 के अनुसार रजिस्टर्ड फैक्ट्रियों की संख्या 2,46,504 हो गई थी जिनमें 1.65 करोड़ लोग काम करते थे। प्रति कर्मचारी औसतन 2.96 लाख रुपये के औसत से साल भर में उन्हें 4.91 लाख करोड़ रुपये मिले।

अप्रैल 2022 में श्रम एवं रोजगार मंत्रालय की तरफ से जारी तिमाही रोजगार सर्वेक्षण के आंकड़ों के अनुसार अक्टूबर-दिसंबर 2021 में नौ प्रमुख सेक्टर में 3.14 करोड़ लोग काम कर रहे थे। ये सेक्टर हैं मैन्युफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन, ट्रेड, ट्रांसपोर्ट, शिक्षा, स्वास्थ्य, होटल-रेस्तरां, आईटी-बीपीओ और वित्तीय सेवा। 10 से अधिक कर्मचारी वाली इकाइयों में 85% रोजगार इन्हीं 9 सेक्टर में होता है।

निर्यात 300 गुना बढ़ा

नेशनल ब्यूरो ऑफ इकोनॉमिक रिसर्च के लिए एक लेख में जाने-माने अर्थशास्त्री प्रो. जगदीश एन. भगवती और टी.एन. श्रीनिवासन ने बताया कि भारत से 1948 में 1.363 अरब डॉलर का निर्यात हुआ था और तब विश्व निर्यात में भारत का हिस्सा 2.6% था। 1970 में निर्यात 2 अरब डॉलर का आंकड़ा पार गया, लेकिन विश्व निर्यात में हिस्सा घटकर 0.72% रह गया। वाणिज्य मंत्रालय के नए आंकड़ों के अनुसार 2021-22 में भारत से फैक्टरी में बनी वस्तुओं का 422 अरब डॉलर का निर्यात किया गया। निर्यात बढ़ने पर मैन्युफैक्चरिंग में भी ग्रोथ होती है। 2019-20 में कुल मैन्युफैक्चरिंग उत्पादन में 20.7% हिस्सा निर्यात का ही था।

India@100: भारत को विकसित देश बनाने का लक्ष्य

इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास और युवा आबादी के कारण आने वाले दिनों में उद्योगों के तेजी से आगे बढ़ने की संभावना है। कुशमैन एंड वेकफील्ड ने पिछले साल मैन्युफैक्चरिंग में सबसे आकर्षक 47 देशों की सूची में भारत को दूसरे स्थान पर रखा है। वाणिज्य और उद्योग मंत्री पीयूष गोयल ने 23 अगस्त 2022 को कहा कि 2030 तक निर्यात दो लाख करोड़ डॉलर तक पहुंचाने और 2047 तक भारत को विकसित देश बनाने का लक्ष्य है।

आने वाले दिनों में इंडस्ट्री कैसी होगी, इस पर रिजर्व बैंक का कहना है, “इंडस्ट्री 4.0 में मैन्युफैक्चरिंग स्मार्ट होगी। आईओटी, क्लाउड कंप्यूटिंग, एनालिटिक्स, आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और मशीन लर्निंग जैसी नई टेक्नोलॉजी का इंटीग्रेशन होगा। देश को अनुभवी आईटी प्रोफेशनल होने का फायदा मिलेगा।” जिस तरह अमेरिका ने वेब 1.0 और चीन ने वेब 2.0 का नेतृत्व किया, उसी तरह भारत वेब 3.0 का नेतृत्व कर सकता है। मैन्युफैक्चरिंग को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने अलग-अलग सेक्टर के लिए प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव की घोषणा की है। इसकी मदद से अगले 25 वर्षों में जीडीपी में मैन्युफैक्चरिंग की हिस्सेदारी 27% तक पहुंचने का अनुमान है जो अभी लगभग 16% है।

फिस्मे के भारद्वाज कहते हैं, “भारत 2047 में विकसित देश बन सकता है, लेकिन यह तभी संभव है अगर जीडीपी में इंड्स्ट्री का योगदान 35% (इसमें 25% मैन्युफैक्चरिंग), सर्विसेज का 55% और कृषि का 10% हो। जीडीपी ग्रोथ रेट 2047 तक 10% के आसपास रखनी होगी। इसके लिए मैन्युफैक्चरिंग और निर्यात बढ़ाना पड़ेगा।” भारद्वाज के अनुसार, यह देखना सुखद है कि निवेश आकर्षित करने के लिए राज्यों में प्रतिस्पर्धा हो रही है। बेहतर बिजनेस वातावरण, आंत्रप्रेन्योरशिप और डिजिटल क्रांति से इस लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है।

भारतीय उद्योग की चुनौतियां

तात्कालिक चुनौती तो मंदी की है। रूस-यूक्रेन युद्ध और महंगाई के कारण विशेषज्ञ जल्दी ही यूरोप में मंदी की आशंका जता रहे हैं। कुछ तो मान चुके हैं कि यूरोप और अमेरिका में मंदी आ चुकी है। क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डॉ. डी.के. जोशी के अनुसार दुनिया की बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में मंदी आती है तो शॉर्ट टर्म में इसका कोई समाधान नहीं है। वे कहते हैं, "सब कुछ इस बात से तय होगा कि मंदी कैसी है। अगर यह हल्की और थोड़े समय के लिए आई तो कोई दिक्कत नहीं, लंबे समय तक रही तो चिंताजनक होगी।"

डब्लूटीओ की चुनौतीः प्रोडक्शन लिंक्ड इन्सेंटिव योजना पर जेएनयू के स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज के प्रो. विश्वजीत धर कहते हैं, सरकार इंडस्ट्री को जो भी मदद देती है, डब्ल्यूटीओ की परिभाषा में वह सब्सिडी है। डब्ल्यूटीओ में इंडस्ट्री के लिए सब्सिडी की बिल्कुल मनाही है। अभी पीएलआई योजना के तहत प्रोडक्शन ज्यादा शुरू नहीं हुआ है। सरकार इस योजना के तहत स्थापित फैक्ट्रियों से निर्यात करने की भी बात कह रही है। जब इन इकाइयों में उत्पादन बड़े पैमाने पर शुरू होगा तब समस्या आएगी। विदेशी निर्माता देखेंगे कि भारत में उनका सामान नहीं बिक रहा है क्योंकि सरकार की सब्सिडी के कारण घरेलू निर्माताओं ने ही बाजार पर कब्जा कर रखा है तो वे डब्ल्यूटीओ में शिकायत करेंगे। इसलिए यह आने वाले दिनों में यह बड़ा मुद्दा बनने वाला है।

एमएसएमई की परेशानियांः मौजूदा माहौल में एमएसएमई के लिए परेशानियां ज्यादा हैं। भारद्वाज के अनुसार 1991 में उदारीकरण और 1995 में डब्ल्यूटीओ से जुड़ने के बाद एमएसएमई को मिलने वाला संरक्षण समाप्त हो गया। उन्हें दूसरे देशों, खास कर चीन के प्रोडक्ट से कीमत और क्वालिटी दोनों मामले में मुकाबला करना पड़ता है। कम कीमत पर कच्चा माल मिलना बड़ी चुनौती बन गई है। ऊंचे आयात शुल्क, एंटी डंपिंग और सेफगार्ड ड्यूटी तथा नॉन-टैरिफ कदमों से स्टील, कॉपर, एल्युमिनियम, पॉलिमर, ग्लास जैसे कच्चे माल की कीमत भारत में अंतरराष्ट्रीय बाजार से ज्यादा होती है। इससे उनका इस्तेमाल करने वाली छोटी इकाइयों के उत्पाद प्रतिस्पर्धी नहीं रह जाते।

टेक्नोलॉजी की समस्याः टेक्नोलॉजी भी बड़ा मुद्दा है। पहले एमएसएमई को सरकारी संस्थानों और सार्वजनिक कंपनियों से टेक्नोलॉजी मिल जाती थी। लेकिन अब ये दोनों रास्ते बंद हो गए हैं। इस कमी को पूरा करने के लिए भारतीय एमएसएमई को विदेशी फर्मों के साथ साझीदारी करने की जरूरत है, लेकिन उनका आकार इसमें आड़े आ रहा है। 90% से ज्यादा एमएसएमई माइक्रो हैं। भारद्वाज के अनुसार 6.3 करोड़ उद्यमों में से मझोले उपक्रम 20,000 भी नहीं हैं। छोटे आकार के चलते उनके लिए टेक्नोलॉजी हासिल करना मुश्किल होता है।

पैसे की कमीः बड़ी संख्या में एमएसएमई अब भी बैंकिंग से दूर हैं। भारद्वाज के मुताबिक सिर्फ 10% को बैंकों से कर्ज मिल पाता है। कर्ज के लिए इन्हें अपनी कोई संपत्ति गिरवी रखनी पड़ती है और यह काफी महंगा पड़ता है। जहां तक कॉन्ट्रैक्ट लागू करने की बात है तो ईज ऑफ डुइंग बिजनेस इंडेक्स में भारत का स्थान निचले क्रम में आता है। आर्थिक विवाद खत्म होने में वर्षों निकल जाते हैं।

महंगा लॉजिस्टिक्सः भारत में लॉजिस्टिक्स का खर्च अधिक है। इससे यहां के प्रोडक्ट ग्लोबल मार्केट में महंगे हो जाते हैं। भारत में लॉजिस्टिक्स खर्च जीडीपी का लगभग 14% है, जिसे 5 वर्षों में 10% से नीचे लाने का लक्ष्य है। ग्लोबल औसत 8% के आसपास है। पीएम गतिशक्ति योजना इसे कम करने में मददगार हो सकती है।

आरएंडडी पर खर्चः भारत में आरएंडडी पर खर्च कम होता है। 2018 में जीडीपी का सिर्फ 0.7% आरएंडडी पर खर्च हुआ था, जबकि चीन में यह 2.1% और विकसित देशों का औसत 3% है। यही नहीं, 63% आरएंडडी सरकारी क्षेत्र में हुए। चीन और विकसित देशों में आरएंडडी पर 70% से ज्यादा खर्च निजी क्षेत्र करता है।

रोजगार पर असरः चौथी औद्योगिक क्रांति का असर श्रम बाजार पर भी पड़ेगा। 32 देशों में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक हर दूसरा जॉब ऑटोमेशन का शिकार हो सकता है। ट्रांसपोर्ट, स्टोरेज, मैन्युफैक्चरिंग और कंस्ट्रक्शन जैसे सेगमेंट में ऑटोमेशन अधिक होगा। भारत में खेती के आलावा जो कामकाजी लोग हैं, उनमें तीन-चौथाई से ज्यादा इन्हीं सेक्टर में काम करते हैं।