नई दिल्ली, एस.के. सिंह। आजादी के बाद भारत के सामने चुनौतियां तो अनेक आईं लेकिन उन्हें पीछे छोड़ते हुए इसने दुनिया में अपना जो श्रेष्ठ स्थान बनाया है, उसकी मिसाल कम ही मिलती है। देश आजाद हुआ तब देशवासियों के सामने खाने-पीने-पहनने का संकट था, क्योंकि तब हम इन सबके लिए आयात पर निर्भर थे। लेकिन 75 वर्षों के बाद आज हम दुनिया की जरूरतें पूरी कर रहे हैं। साढ़े सात दशक में देश ने कई युद्ध लड़े, मंदी का साया कई बार गहराया, लेकिन भारत की अर्थव्यवस्था अटल रही। आज भी जब अमेरिका और यूरोप के फिर मंदी में जाने की चर्चा हो रही है, दुनिया के तमाम एक्सपर्ट यही कह रहे हैं कि भारत सबसे तेज बढ़ने वाली इकोनॉमी रहेगा। अंग्रेजी शासन से तुलना करें तो आजादी से पहले 50 वर्षों तक भारत की औसत विकास दर सिर्फ 0.75% थी।

देश की कुछ उपलब्धियां देखिए। एग्रीकल्चर स्टैटिस्टिक्स एट ए ग्लांस के अनुसार 1950-51 से 2020-21 तक प्रति व्यक्ति आय 7114 रुपये से (स्थिर मूल्यों पर) 12 गुना बढ़कर 85110 रुपये हो गई। अनाज उत्पादन 508 लाख टन से छह गुना बढ़कर 3086 लाख टन पहुंच गया। तब बिजली उत्पादन 5 अरब किलोवाट का होता था, यह 275 गुना बढ़कर 1373 किलोवाट हो गया है। निर्यात में 3562 गुना की वृद्धि हुई है। 1950-51 में सिर्फ 608 करोड़ रुपये का निर्यात हुआ था, जबकि 2020-21 में 29.16 लाख करोड़ रुपये का निर्यात हुआ है। इस दौरान देश की आबादी भी 36 करोड़ से बढ़कर 140 करोड़ हुई है।

भारत नॉमिनल जीडीपी के हिसाब से दुनिया की छठी और परचेजिंग पावर पैरिटी के हिसाब से तीसरी सबसे बड़ी इकोनॉमी है। यहां का 47 लाख करोड़ रुपये का रिटेल मार्केट दुनिया में पांचवां सबसे बड़ा है। कारों की बिक्री के मामले में चीन, अमेरिका और जापान के बाद भारत चौथे नंबर पर है। हम दुनिया के छठे सबसे बड़े मैन्युफैक्चर भी हैं। हम न सिर्फ दुनिया के सबसे बड़े जेनेरिक ड्रग उत्पादक हैं, बल्कि सबसे बड़े वैक्सीन निर्माता भी हैं। इसलिए भारत को दुनिया की फार्मेसी भी कहा जाता है। यूजर संख्या के लिहाज से यहां की टेलीकॉम इंडस्ट्री दुनिया में दूसरे नंबर पर पहुंच गई है। इंजीनियरिंग, जेम्स एंड ज्वैलरी, पेट्रोलियम, गारमेंट, आईटी जैसे सेक्टर में भारत बड़ा निर्यातक भी बन गया है। भारत ग्लोबल आईटी इंडस्ट्री का आधार तो है ही, आज देश में 100 से ज्यादा यूनिकॉर्न हैं और इस मामले में यह तीसरे नंबर पर है।

भारतीय अर्थव्यवस्था का अतीत भी स्वर्णिम रहा है। वर्ष 1700 के आसपास विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा एक चौथाई था और यह समूचे यूरोप के बराबर था। ग्लोबल मैन्युफैक्चरिंग में भी भारत लगभग इतना ही योगदान करता था। लेकिन ब्रिटिश शासन के दौरान उद्योग बंद होने से वर्ष 1900 में भारत का औद्योगिक उत्पादन दुनिया का सिर्फ दो फीसदी रह गया। आजादी के समय दुनिया की जीडीपी में भारत का हिस्सा सिर्फ चार फीसदी था। हालांकि अब भी यह 3.2% है, लेकिन अब विश्व अर्थव्यवस्था काफी बड़ी हो गई है। आर्थिक सुधारों से पहले 1991 में वह समय भी आया जब भारत की इकोनॉमी 17वें स्थान पर पहुंच गई थी। तब विदेशी मुद्रा भंडार सिर्फ 5.8 अरब डॉलर का रह गया था, अब 573 अरब डॉलर का है।

भारत की विकास दर 1950 के दशक में ही आजादी से पहले की तुलना में पांच गुना हो गई थी। इसका एक कारण यह था कि पहले हमारे देश की बचत बाहर चली जाती थी और यहां निवेश नहीं हो पाता था। आजादी के बाद देश में ही निवेश होने लगा। संसाधन कम थे, सो उनका बेहतर इस्तेमाल करना जरूरी था। इसलिए योजना आयोग बना, उद्योग और कृषि नीति बनी।

मिक्स्ड इकोनॉमी का मॉडल

भारत ने मिक्स्ड इकोनॉमी का मॉडल अपनाया जिसमें पब्लिक और प्राइवेट सेक्टर दोनों की भूमिका थी। इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा करने की जिम्मेदारी पब्लिक सेक्टर को दी गई। जेआरडी टाटा और जीडी बिड़ला जैसे बड़े उद्योगपतियों ने भी मजबूत पब्लिक सेक्टर का समर्थन किया था। जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मैल्कम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर अरुण कुमार कहते हैं, “हमारी अर्थव्यवस्था 75 साल में जो बढ़ी, उसका ढांचा 50 के दशक में तैयार हुआ था।”

पहली पंचवर्षीय योजना (1951-56) में कृषि पर जोर था क्योंकि तब 70% से अधिक कामकाजी लोग खेती से ही जुड़े थे। लेकिन दूसरी पंचवर्षीय योजना (1956-61) में रणनीति बदलते हुए औद्योगिक विकास को तवज्जो दी गई। जाने-माने स्टैटिस्टिशियन और योजना आयोग के सदस्य रहे प्रशांत चंद्र महालनोबिस ने दूसरी योजना में विकास का जो मॉडल तैयार किया था, उसमें हैवी इंडस्ट्रीज और कैपिटल गुड्स को प्राथमिकता दी गई थी।

हैवी इंडस्ट्रीज कैपिटल इंटेंसिव होती हैं, उनमें ज्यादा रोजगार पैदा नहीं हो सकता था। इसलिए इस नीति से असहमति जताते हुए जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ में विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा कहते हैं, “कृषि प्रधान देश होने के नाते उस पर फोकस कम करने के बजाय उत्पादकता बढ़ाना था। यूरोप और उत्तरी अमेरिका के विकसित देशों ने भी शुरू में यही नीति अपनाई थी। आम आदमी कृषि से जुड़ा था और उसकी आमदनी नहीं बढ़ी। इसलिए औद्योगिक उत्पादों की लिए मांग जितनी बढ़ सकती थी वह नहीं बढ़ी।” आज भी ग्रॉस वैल्यू एडेड (जीवीए) में कृषि का योगदान तो 20% है लेकिन उसमें काम करने वाले 44% हैं।

युद्ध और खाद्य संकट के बाद हरित क्रांति

1960 के दशक में देश के सामने कई चुनौतियां आईं। 1962 में चीन के साथ और 1965 में पाकिस्तान के साथ युद्ध हुआ। फिर, 1965-67 में लगातार दो साल सूखा पड़ने से खाद्य संकट पैदा हो गया। हमें 1966-67 में दो करोड़ टन खाद्यान्न का आयात करना पड़ा, जिसका अमेरिका ने बेजा फायदा उठाने की कोशिश की। भारत को अपनी करेंसी की कीमत गिरानी पड़ी। प्रो. कुमार कहते हैं, “खाद्य पदार्थों का रणनीतिक महत्व भी है। अगर आपके पास खाने-पीने की चीजों की कमी है तो बाहरी ताकतें आपको दबा देती हैं।” संकट के उस दौर में ही पहले हरित क्रांति और फिर श्वेत क्रांति हुई। नतीजा यह हुआ कि अनाज के मामले में हम न सिर्फ आत्मनिर्भर हुए बल्कि गेहूं, चावल और चीनी समेत कई कृषि उत्पादों का निर्यात भी करने लगे।

युद्ध से कमजोर हुई अर्थव्यवस्था को गति देने के लिए बड़े निवेश की जरूरत थी। कृषि और इंडस्ट्री को कर्ज देने के लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने जुलाई 1969 में 14 निजी बैंकों के राष्ट्रीयकरण का फैसला किया। उससे पहे 1956 में जीवन बीमा बिजनेस का राष्ट्रीयकरण किया गया था।

1975-77 के दौरान 21 महीने की इमरजेंसी के बाद जनता पार्टी की सरकार आई तो प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई ने कालेधन पर अंकुश लगाने के लिए 1000, 5000 और 10000 रुपये के नोट बंद कर दिए। फॉरेन एक्सचेंज रेगुलेशन एक्ट (फेरा) में प्रावधान किया गया कि विदेशी निवेशक भारतीय कंपनी में 40% से ज्यादा हिस्सेदारी नहीं रख सकेंगे। इसके विरोध में आईबीएम और कोकाकोला जैसी कंपनियां भारत छोड़कर चली गईं।

1980 में इंदिरा गांधी फिर प्रधानमंत्री बनीं तो उन्होंने समाजवादी रुख छोड़कर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) से कर्ज लेने के लिए आर्थिक सुधारों को अपनाया। छठी पंचवर्षीय योजना (1980-85) में मूल्य नियंत्रण हटाने, पब्लिक सेक्टर में बदलाव, आयात शुल्क में कटौती, लाइसेंस की अनिवार्यता कम करने जैसे कदम उठाए गए।

कंज्यूमरिज्म के दौर की शुरुआत

प्रो. कुमार कहते हैं, तब तक भारत इस नीति पर चल रहा था कि हमें अपने संसाधन बचाकर गरीबी हटानी है और विकास करना है। लेकिन 1979-80 में ग्लोबल कारणों से महंगाई काफी बढ़ गई और भुगतान संतुलन की समस्या खड़ी हो गई। मदद के लिए आईएमएफ ने अर्थव्यवस्था को खोलने की शर्त रखी। वह उदारीकरण की शुरुआत थी। इस तरह देश में कंज्यूमरिज्म का दौर शुरू हुआ। अगले ही साल मारुति ने आम आदमी की कार मारुति 800 लांच की। मध्य वर्ग ने फ्रिज, कलर टीवी, वाशिंग मशीन जैसे व्हाइट गुड्स को हाथों-हाथ लिया।

लेकिन ऐसी ज्यादातर चीजें आयात हो रही थीं। तब नीति निर्माताओं का मानना था कि हम आयात ज्यादा करेंगे तो निर्यात भी बढ़ेगा। लेकिन ऐसा हुआ नहीं और विदेशी कर्ज 10 अरब डॉलर से बढ़कर 90 अरब डॉलर हो गया। 1989-90 में इराक-ईरान युद्ध शुरू हुआ और कच्चे तेल के दाम बढ़े, तो हमारे पास आयात के भुगतान के लिए विदेशी मुद्रा की कमी हो गई। उस समय देश में सिर्फ तीन हफ्ते के आयात लायक विदेशी मुद्रा बची थी। विदेशी मुद्रा की जरूरत पूरी करने के लिए सोना गिरवी रखना पड़ा। हम फिर आईएमएफ और वर्ल्ड बैंक की शरण में गए जिन्होंने अर्थव्यवस्था को और खोलने की शर्त रखी।

उदारीकरण की नई आर्थिक नीतियां

1991 में प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिंह राव और वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के नेतृत्व में नई आर्थिक नीतियां लागू हुईं। सरकार बनने के 10 दिन बाद ही रिजर्व बैंक ने रुपये की कीमत 9% और फिर दो दिन बाद 11% घटा दी। पब्लिक सेक्टर की अग्रणी भूमिका खत्म कर प्राइवेट सेक्टर को बढ़ावा दिया जाने लगा। रिजर्व बैंक ने जनवरी 1993 में नए निजी बैंकों के आने का रास्ता खोला। डायरेक्ट टैक्स और कस्टम ड्यूटी में भी कटौती की गई। हर चीज में बाजार को महत्व दिया जाने लगा।

1 जनवरी 1995 को विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) अस्तित्व में आया। इसका सदस्य होने के नाते भारत को हर सेक्टर को विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों के लिए खोलना पड़ा। माना गया था कि उदारीकरण से विकास दर बढ़ जाएगी, लेकिन वह बढ़ी नहीं। 1990 के दशक में औसत विकास दर वही थी जो 1980 के दशक में थी।

अर्थव्यवस्था में तेजी 2003 से आई। प्रो. कुमार के अनुसार इसका कारण यह था कि उन दिनों बचत दर काफी बढ़ गई, इससे निवेश दर भी बढ़ी। डायरेक्ट टैक्स कलेक्शन बढ़ा और विकास दर में भी तेजी आई। लेकिन उस दौरान गैर-बराबरी भी काफी बढ़ी।

प्रो. मेहरोत्रा बताते हैं, “बचत दर 1950 में जीडीपी का सिर्फ 6-7% थी, यह 2002 में 22% हो गई। निवेश दर भी बढ़कर 23% हो गई थी। उसके बाद पांच-छह वर्षों तक इनमें तेज वृद्धि हुई। 2008 में बचत दर 37% और निवेश दर 38% हो गई। यही कारण है कि 2013-14 तक विकास दर 8% से ऊपर रही। उसम समय रोजगार भी तेजी से पैदा हो रहे थे।”

वैश्विक आर्थिक संकट का असर

अर्थव्यवस्था में 2007-08 तक तेजी रही। उसके बाद अमेरिका में उपजी फाइनेंशियल क्राइसिस ने पूरी दुनिया को चपेट में ले लिया। हालांकि भारत में मंदी तो नहीं आई, लेकिन विकास की रफ्तार जरूर धीमी पड़ गई। अर्थव्यवस्था को सहारा देने के लिए अमेरिका ने करीब पांच वर्षों तक ब्याज दर को शून्य के आसपास बनाए रखा। उसके बाद 2013 में जब उसने लिक्विडिटी कम करने के कदम उठाए तो भारत समेत विकासशील देशों से विदेशी मुद्रा बाहर जाने लगी। 2013 में भारत की विकास दर घटकर 6.4% रह गई। उसके बाद फिर इसमें वृद्धि हुई और 2016 में 8.2% तक पहुंच गई। उसके बाद ग्रोथ रेट घटने लगी और 2020-21 में कोविड-19 महामारी के कारण यह निगेटिव (-6.6%) हो गई।

2014 में मोदी सरकार आई तो उसने सबसे पहले योजना आयोग को भंग कर नीति आयोग का गठन किया और पंचवर्षीय योजना की परंपरा भी खत्म कर दी। 8 नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी ने खास कर असंगठित क्षेत्र को काफी प्रभावित किया। आठ महीने बाद 1 जुलाई 2017 को 17 अप्रत्यक्ष करों को मिलाकर जीएसटी लागू किया गया। यह इनडायरेक्ट टैक्स में अब तक का सबसे बड़ा सुधार है। हालांकि इससे एमएसएमई को कुछ परेशानी भी हुई। उस दौर में ग्रोथ रेट में गिरावट के लिए इन दोनों कदमों को भी जिम्मेदार माना जाता है। प्रो. कुमार कहते हैं, “2011-13 के दौरान यूपीए सरकार के समय पॉलिसी पैरालिसिस का संकट था, एनडीए सरकार में वह पॉलिसी इंड्यूस्ड संकट हो गया।”

India@100: दूसरी बड़ी इकोनॉमी होगा भारत

विभिन्न संस्थाओं ने अगले एक दशक तक भारत की विकास दर कम से कम 7% रहने का अनुमान जताया है। आईएमएफ का अनुमान है कि 2026-27 में भारत 5 लाख करोड़ डॉलर की इकोनॉमी बन सकता है। पीडब्लूसी का आकलन है कि 2050 में भारत की अर्थव्यवस्था परचेजिंग पावर पैरिटी के हिसाब से चीन के बाद दूसरे नंबर पर होगी। यानी आजादी के 100 साल बाद भारत अमेरिका को पीछे छोड़ने की स्थिति में होगा। इसमें टेक्नोलॉजी का बड़ा रोल होगा। मेटा के संस्थापक और सीईओ मार्क जकरबर्ग ने पिछले साल ही कहा था कि मेटावर्स को तैयार करने में भारत बड़ी भूमिका निभाएगा।

लेकिन भारत को भी कुछ तैयारियां भी करनी पड़ेंगी। अगले साल भारत की आबादी चीन से अधिक हो जाने की उम्मीद है। अभी 62% भारतीय 15 से 59 साल के हैं। दो दशक बाद कामकाजी आबादी की संख्या 100 करोड़ को पार कर जाने की उम्मीद है। दुनिया की इस सबसे बड़ी लेबर फोर्स के लिए कौशल विकास अहम होगा। अभी एक तिहाई आबादी शहरों में रहती है। अनुमान है कि अगले 25 वर्षों के बाद 50% आबादी शहरों में होगी। इसलिए इन्फ्रास्ट्रक्चर बढ़ाना पड़ेगा। यूएनडीपी के ग्लोबल नॉलेज इंडेक्स 2021 में 154 देशों में भारत 97वें स्थान पर है। इसमें सुधार कर भारत ‘नॉलेज इकोनॉमी’ बन सकता है। इसके लिए रिसर्च और इनोवेशन पर ध्यान देना होगा।

प्रमुख चुनौतियां और उनका समाधान

चुनौती 1: मंदी का डर

निकट भविष्य में सबसे बड़ा संकट अमेरिका और यूरोप में मंदी का डर है। इसका असर भारत पर भी होगा। निर्यात सेक्टर से जुड़े लोगों के लिए तंगी ज्यादा होगी। नौकरियों के अवसर भी कम होंगे। विदेश में भी नौकरी की संभावना कम होगी।

समाधान: घरेलू खपत बढ़ाने के प्रयास होने चाहिए। एक्सिस बैंक के एक्जीक्यूटिव वाइस प्रेसिडेंट और मुख्य अर्थशास्त्री सौगत भट्टाचार्य के मुताबिक, “हमें एक अनिश्चित वातावरण के लिए तैयार रहना चाहिए। लोग देखें कि उनके पास पर्याप्त बचत रहे। बचत का ज्यादा हिस्सा बैंक में जमा के तौर पर रखना चाहिए। वे सुरक्षित होते हैं और बाजार में उतार-चढ़ाव से बचाते हैं।”

चुनौती 2: बेरोजगारी की ऊंची दर

बेरोजगारी दशकों से चुनौती बनी हुई है। जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और यूनिवर्सिटी ऑफ बाथ में विजिटिंग प्रोफेसर संतोष मेहरोत्रा के अनुसार 2013 के बाद रोजगार में कमी आने लगी और कोविड-19 से पहले 2019 तक सालाना रोजगार की संख्या घटकर 29 लाख रह गई थी। 2017-18 में बेरोजगारी दर 45 साल के रिकॉर्ड पर पहुंच गई थी। सीएमआईई के अनुसार जुलाई 2022 में बेरोजगारी दर शहरों में 8.21% और गांवों में 6.14% थी।

समाधान: प्रो. मेहरोत्रा के मुताबिक मैन्युफैक्चरिंग का 50% रोजगार पांच सेक्टर में है- टेक्सटाइल, गारमेंट, अपैरल, लेदर एंड फुटवियर, वुड फर्नीचर और फूड प्रोसेसिंग। इसलिए लेबर इंटेंसिव मैन्युफैक्चरिंग पर जोर दिया जाना चाहिए। भारत में लगभग 5500 क्लस्टर हैं जहां असंगठित इकाइयां बहुत हैं। सरकार उन्हें कर्ज, तकनीक, मार्केट डेवलपमेंट, स्किल डेवलपमेंट में मदद करे तो इन इकाइयों को काफी लाभ होगा। असंगठित क्षेत्र निर्यात में 40%, जीडीपी में 32% और रोजगार में 90% से अधिक योगदान करता है। इसलिए इस पर ध्यान देना भी जरूरी है।

चुनौती 3: असमानता और भ्रष्टाचार

अर्थव्यवस्था में काले धन की भूमिका और विभिन्न वर्ग को लोगों में असमानता बढ़ना चुनौती है, जिससे इकोनॉमी को नुकसान होता है। 1964 में संथानम कमेटी और 1971 में वांचू कमेटी समेत कई रिपोर्ट में कहा गया कि भ्रष्टाचार लगातार बढ़ने से पब्लिक पॉलिसी विफल होती गई।

समाधान: जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर और इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज में मैल्कम आदिशेषैया चेयर प्रोफेसर अरुण कुमार का सुझाव है, “विकास बराबरी वाला हो और बड़ी संख्या में रोजगार पैदा हों। इसके लिए प्राथमिकताएं बदलनी होंगी। शिक्षा का स्तर भी सुधारना पड़ेगा। जब तक युवा शिक्षित नहीं होंगे तब तक वे अच्छी क्वालिटी का काम नहीं कर सकेंगे। अच्छी शिक्षा होने पर ही उनकी आमदनी बढ़ेगी और गैर-बराबरी कम होगी।”

चुनौती 4: कृषि की समस्या

जलवायु परिवर्तन और रूस-यूक्रेन युद्ध पूरी दुनिया में कृषि के लिए चुनौती हैं। भारत में खेती की जमीन का आकार घटना बड़ी समस्या बनती जा रही है। इससे किसानों की लागत बढ़ती है, उनके लिए मुनाफा मुश्किल हो गया है। मार्केट इंटीग्रेशन न होने से बाजार तक किसानों की पहुंच नहीं हो पाती है तो कीमत भी अच्छी नहीं मिलती। आज भी 44-45% कामकाजी लोग कृषि पर निर्भर हैं, इसे कम करना चुनौती।

समाधान: नेशनल अकादमी ऑफ एग्रीकल्चरल साइंसेज के सचिव और इंटरनेशनल फूड पॉलिसी रिसर्च इंस्टीट्यूट (आईएफपीआरआई) के पूर्व निदेशक पी.के. जोशी के अनुसार जमीन का कंसोलिडेशन एक उपाय है। वह संभव न हो तो अगर किसान मार्केटिंग साथ करें तो इससे उन्हें बहुत फायदा मिल सकता है। कृषि नीतियों को ज्यादा निर्यातोन्मुखी बनाने से इसमें भी रोजगार निकलेंगे।