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कभी जाट आंदोलन तो कभी कोई दूसरा प्रदर्शन, हर बार निशाने पर होती है सरकारी संपत्ति

अफसोसजनक ही है कि जिस देश में जनता की सहूलियत और आधारभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए जैसे-तैसे बुनियादी ढांचा खड़ा हो पाया है।

By Kamal VermaEdited By: Published: Wed, 04 Apr 2018 11:20 AM (IST)Updated: Wed, 04 Apr 2018 11:42 AM (IST)
कभी जाट आंदोलन तो कभी कोई दूसरा प्रदर्शन, हर बार निशाने पर होती है सरकारी संपत्ति
कभी जाट आंदोलन तो कभी कोई दूसरा प्रदर्शन, हर बार निशाने पर होती है सरकारी संपत्ति

नई दिल्ली [डॉ. मोनिका शर्मा]। एससी एसटी एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के विरोध में बुलाए गए भारत बंद में बड़े पैमाने पर नुकसान हुआ। ऐसे में यह विचारणीय है कि बंद के नाम पर हो रहे बवाल में धरना-प्रदर्शन करने वालों की क्या कोई जवाबदेही नहीं है? जो संपत्ति जनता की मेहनत से बनती है उसे यूं ही आग के हवाले करने का हक किसी भी आंदोलन, संगठन या दल के लोगों को नहीं है। कैसी विडंबना है कि भीड़ की उग्रता और आक्रामकता हर बार इन आंदोलनों के नाम पर समाज और देश को सालों पीछे लेकर जाती है। आखिर कैसा देश बनाना चाहते हैं हम? क्यों निर्माण की जगह विध्वंस करने में लगे हैं? अपनी बात रखने का यह कैसा तरीका है कि आम जनता का जीवन ही मुश्किल कर दिया जाए। हालिया समय में हुए लगभग सभी आंदोलनों के दौरान भयंकर आगजनी, हिंसा और यहां तक की लूटपाट तक की घटनाएं सामने आई हैं। जो देश और समाज को बड़ी क्षति पहुंचाने वाली है।

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एसोचैम के मुताबिक कुछ अरसा पहले हरियाणा में हुए जाट आंदोलन के कारण सार्वजनिक व निजी संपत्ति को नुकसान पहुंचाए जाने से राज्य को लगभग 18,000 से 20,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ था। बीते कुछ वर्षो में राजस्थान में गुर्जर, हरियाणा में जाट, गुजरात में पाटीदार व कश्मीर में पत्थरबाजों ने आंदोलन के नाम पर सार्वजनिक और निजी संपत्ति को भारी नुकसान पहुंचाया है। अफसोस की बात है कि उपद्रवी तत्वों की अराजकता की पीड़ा भी आम लोगों को ही भोगनी पड़ती है और इस नुकसान की भरपाई भी जनता की जेब से ही होती है। यही वजह है कि ऐसे हिंसक उत्पात को आमतौर पर जनता का समर्थन नहीं मिलता है। जैसा कि दलित बंद को लेकर भी हो रहा है। जनता इस आक्रामकता को लेकर त्रस्त भी है और नाराज भी। आम लोग भी यह समझते हैं कि अपनी मांगों को पूरा करवाने के नाम पर उन्हें बंधक बनाने का हक किसी को नहीं।

आमतौर पर देखने में आता है कि भीड़ जुटाकर बंद बुलाने या आंदोलन करने वाले ऐसे उन्मादी लोग सार्वजनिक संपत्ति को क्षति पहुंचाने और आम जनता के जीवन को खतरे में डालने के माध्यम से अपनी लड़ाई लड़ने की राह तलाशते हैं। कई संगठन और सियासी दल बरसों से यह अराजकता फैलाकर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंकते आ रहे हैं। यह सोचने का वक्त किसी के पास नहीं कि भारत जैसे विकासशील देश में जहां आज भी लोग बुनियादी सुविधाओं के लिए तरस रहे हैं वहां यूं चंद घंटों में करोड़ों रुपये की राष्ट्रीय संपत्ति को स्वाहा कर देने से क्या हासिल होगा? इतना ही नहीं ऐसी अराजक और हिंसात्मक गतिविधियां वैश्विक स्तर पर भी देश की छवि बिगाड़ती हैं। सवाल यह है कि विरोध जताने का आखिर यह कौनसा तरीका है? ये क्यों नहीं समझते कि अपने देश की व्यवस्था और संपत्ति-सुविधाओं पर आघात करके देश को निर्बल ही किया जा सकता है।

अफसोसजनक ही है कि जिस देश में जनता की सहूलियत और आधारभूत जरूरतों को पूरा करने के लिए जैसे-तैसे बुनियादी ढांचा खड़ा हो पाया है। उसे यूं ही चंद घंटों में फूंक दिया जाता है। हर बार समाज और आमजन की बेहतरी के नाम पर किए जाने वाले ऐसे उग्र बंद और प्रदर्शन वषों के प्रयासों और जद्दोजहद से जुटाई गई बुनियादी सेवाओं को क्षति पहुंचाते हैं। ऐसे में आक्रोश और वहशत से भरे आंदोलन करने वाली भीड़ संभवत: यह सोच ही नहीं पाती कि उसके द्वारा किया गया यह उत्पात पूरे देश को प्रभावित करता है। सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले कृत्य अब सिर्फ धरनों- प्रदर्शनों या बंद तक ही सीमित नहीं हैं। नक्सलियों द्वारा भी आए दिन सरकारी वाहनों, पुलों या सड़कों को उड़ाने की खबरें आती रहती हैं। सरकारी संपत्ति को वैचारिक विरोध की भेंट चढ़ाने वाली इन घटनाओं के बाद देश और समाज को इस नुकसान से उबरने में सालों लग जाते हैं। इतना ही नहीं इस आक्रामक वातावरण में होने वाली मानवीय क्षति की भरपाई तो संभव ही नहीं है


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