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छत्‍तीसगढ़: तीन दशक से मरवाही के 100 आदिवासी परिवार ठोढ़ी का पानी पीकर काट रहे जीवन

मरवाही के अंतर्गत आने वाले ग्राम करहनिया में बूंद-बूंद पानी के लिए ग्रामीण तरस रहे हैं। यहां 100 आदिवासी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी निवास करते आ रहे हैं।

By Arun Kumar SinghEdited By: Published: Sat, 18 May 2019 10:49 AM (IST)Updated: Sat, 18 May 2019 10:49 AM (IST)
छत्‍तीसगढ़: तीन दशक से मरवाही के 100 आदिवासी परिवार ठोढ़ी का पानी पीकर काट रहे जीवन
छत्‍तीसगढ़: तीन दशक से मरवाही के 100 आदिवासी परिवार ठोढ़ी का पानी पीकर काट रहे जीवन

बिलासपुर, राज्‍य ब्‍यूरो। जकांछ सुप्रीमो और पूर्व मुख्यमंत्री अजीत जोगी का विधानसभा क्षेत्र मरवाही के अंतर्गत आने वाले ग्राम करहनिया में बूंद-बूंद पानी के लिए ग्रामीण तरस रहे हैं। यहां 100 आदिवासी परिवार पीढ़ी-दर-पीढ़ी निवास करते आ रहे हैं। दुर्भाग्यजनक बात ये है कि इनके लिए शासन स्तर पर पीने के पानी की आजतक व्यवस्था नहीं हो पाई है। 30 वर्षों से ये ठोढ़ी का पानी पीकर जीवन गुजार रहे हैं।

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गांव में पहाड़ के नीचे प्राकृतिक जलस्रोत है। इससे बूंद-बूंद पानी रिसते रहता है। बीते तीन दशक से आदिवासयिों की प्यास बुझा रहे इस जलस्रोत को ग्रामीणों ने सहेज कर रखा है। मवेशियों या फिर अनजान लोगों द्वारा किसी तरह नुकसान न पहुंचे इसके लिए लिए स्रोत के आसपास की जगह को ईंट की दीवार से सुरक्षित रखा है। यहीं से निकलने वाले पानी का उपयोग पीने और निस्तारी दोनों के लिए कर रहे हैं।

गर्मियों में होती है ज्‍यादा परेशानी 

आदिवासियों की यह तीसरी पीढ़ी है जो इसी जलस्रोत के भरोसे अपना जीवन काट रही है। मरवाही ब्लॉक मुख्यालय से यह गांव महज दस किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। इसके बाद भी स्थानीय प्रशासन द्वारा पानी की समस्या का निराकरण नहीं किया गया है। बारिश के दिनों में तालाब में व नालों में पानी भरा रहता है। इसका उपयोग आदिवासी नहाने व मवेशियों को नहलाने व पानी पिलाने के रूप में करते हैं।

बारिश के दिनों में भी पीने के पानी के लिए यही जलस्रोत आदिवासियों के लिए एकमात्र सहारा है। गर्मी के दिनों में जब तालाब व नालों का पानी सूख जाता है तब ज्यादा परेशानी होती है। आलम ये कि आदिवासी अपने बच्चों को पानी इकठ्ठा करने के काम में लगा देते हैं। बच्चे सुबह से लेकर शाम तक पहाड़ के नीचे बूंद-बूंद रिस रहे जलस्रोत के नीचे बर्तन लगाए दिख जाते हैं। बच्चे बर्तन में पानी इकठ्ठा करते हैं। जब पानी बर्तन में भर जाता है तब ग्रामीण लेने के लिए आते हैं। यह सिलसिला वर्षों से दिन और रात चल रहा है।

तालाब और नालों में ज्‍यादा दिन नहीं ठहरता है पानी

गर्मी की छृट्टी होने के कारण आदिवासी बच्चों का पूरा समय पानी इकठ्ठा करने और पानी लाने में ही बीत रहा है। आठवीं कक्षा में पढ़ने वाली पार्वती बताती है कि सुबह उठने के बाद उनका एकमात्र काम ठोढ़ी के पास जाना और बर्तन में पानी इकठ्ठा करना रहता है। जब बर्तन पानी से भर जाता है तो उसे घर लाकर दूसरे बर्तन में उड़ेल देती है और फिर खाली बर्तन लेकर ठोढ़ी की तरफ जाती है।

ग्राम करहनिया की भौगोलिक स्थित यहां के आदिवासियों के लिए अभिशाप बन गया है। करहनिया पहाड़ की तलहटी पर स्थित है। इसके लिए जलस्रोत का ठहराव नहीं हो पाता है। यही कारण है कि इस गांव में भूजल में भी पर्याप्त मात्रा में पानी नहीं मिल पा रहा है। बारिश के दिनों में तालाब या नालों में ज्यादा दिनों तक पानी ठहर नहीं पाता ।

पूरा इलाका सूखा है

स्थानीय प्रशासन ने करहनिया सहित आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों में बीते दो वर्षों के दौरान बोरवेल खनन कराया था। सभी बोर फेल हो गए हैं। किसी भी बोर में पानी नहीं निकल पाया है। आलम ये कि 350 फीट में भी पानी नहीं है। भूजल में पानी न होने के कारण बोरवेल लगातार फेल होते जा रहे हंै।

आदिवासियों के लिए ठोढ़ी का पानी गंगा के समान

गर्मी के दिनों में जब आसपास के गांवों में लगे हैंडपंप का हलक सूख जाता है तो आधा दर्जन से अधिक गांव के लिए यही ठोढ़ी जीवनदायिनी साबित होती है। इस स्रोत को आदिवासी गंगा मैया के नाम से पुकारते हैं। गंगा मैया रुठ न जाए इसलिए पर्व में इसकी पूजा भी करते हैं।

350 फीट नीचे गिरा वाटर लेबल

पीएचई की रिपोर्ट पर भरोसा करें तो करहनिया और आसपास के आदिवासी गांवों में इस गर्मी में भूजल स्तर में तेजी के साथ गिरावट दर्ज की जा रही है। 350 फीट से नीचे चला गया है वाटर लेबल । हैंडपंपों का हलक सूख गया है।

ग्राम करहनिया की भौगोलिक स्थिति ही ऐसी कि जलस्रोत नहीं मिल पा रहा है। बोरवेल खनन के बाद भी 350 फीट में पानी नहीं निकल रहा है। इसके चलते संकट की स्थिति बनी हुई है।

यूएस पवार-एसडीओ आरईएस  

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