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वनों की कटाई पर पूर्ण पाबंदी के कुछ देशों के वादे को निभाना उनके लिए आसान नहीं होगा

COP26 ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में अमेरिका सहित 100 से अधिक देशों के नेताओं ने साल 2030 तक वनों की कटाई पर पूर्ण प्रतिबंध का जो संकल्प लिया है। यह समझौता व्यावहारिक धरातल पर शायद ही कभी खरा उतरे।

By Sanjay PokhriyalEdited By: Published: Sat, 06 Nov 2021 09:04 AM (IST)Updated: Sat, 06 Nov 2021 09:05 AM (IST)
वनों की कटाई पर पूर्ण पाबंदी के कुछ देशों के वादे को निभाना उनके लिए आसान नहीं होगा
28 देशों ने वनों की कटाई से जुड़ी चीजों के आयात को भी प्रतिबंधित करने की बात कही है।

लोकमित्र। ग्लासगो जलवायु सम्मेलन में अमेरिका सहित 100 से अधिक देशों ने 2030 तक वनों की कटाई पर पूर्ण पाबंदी का जो संकल्प लिया है, वह व्यावहारिक रूप में कितना अमल में लाया जाएगा यह तो आने वाला वक्त ही बताएगा। बहरहाल इस संकल्प के तहत छह सूत्री एजेंडा रखा गया है, जिसे वन संरक्षण की दिशा में सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की भागीदारी (पीपीपी) से पाने का प्रयास करना है।

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इस समझौते में शामिल देशों की सरकारों का संकल्प है कि अगले पांच साल में वन हानि को कम करने और फिर इसे पूर्णत: रोकने के लिए एक सार्वजनिक कोष बनाया जाएगा जिसमें 12 अरब डालर यानी करीब 89 हजार करोड़ रुपये का सरकारों का योगदान होगा, जबकि करीब 37 हजार करोड़ रुपये देने का एलान कारपोरेट वल्र्ड ने किया है। इस तरह करीब 1.26 लाख करोड़ रुपए हो जायेंगे। इस फैसले को कामयाब बनाने के लिए 30 से ज्यादा वित्तीय संस्थानों ने वायदा किया है कि वे उन कंपनियों में निवेश नहीं करेंगे, जो जंगलों की कटाई में किसी भी रूप में जुड़ी हुई हैं। इसी क्रम में 28 देशों ने वनों की कटाई से जुड़ी चीजों के आयात को भी प्रतिबंधित करने की बात कही है।

इस समझौते के तहत वनों का विनाश और उसकी सप्लाई चेन को खत्म करने के लिए नई गाइडलाइन भी बनाई जाएगी। घोषणा के मुताबिक इस संकल्प पर अमल से वन और भूमि उपयोग पर 1.3 करोड़ वर्ग मील से अधिक के जंगलों को बचाया जा सकेगा। दूसरी तरफ, वल्र्ड रिसोर्स इंस्टीट्यूट के फ्रांसिस सीमोर कहते हैं, ‘वित्तीय उपायों के एलान का स्वागत है, पर वनों को बचाने के लिए यह बहुत मामूली है।’ कई दूसरे पर्यावरणविदों ने भी चेतावनी दी है कि ऐसे वादों से वनों की कटाई नहीं रुकने वाली। क्योंकि अगर ऐसे समझौतों से वनों का विनाश रुक सकता तो साल 2014 में न्यूयार्क में ऐसा ही जो एक करार हुआ था, वह सफल हुआ होता। मगर ऐसा नहीं हुआ जबकि इसमें भी 2020 तक वनों की कटाई आधी और 2030 तक पूर्णत: रोकी जानी थी। इस समझौते में भी 40 देशों ने हस्ताक्षर किए थे।

हालिया समझौते के साथ सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि वनों से समृद्ध चीन, रूस और भारत जैसे देश इसमें शामिल नहीं हैं। इसलिए जिन वजहों से पुराना करार 2019 में नाकाम हो गया था, उन्हीं वजहों से इस करार के भी सफल होने की संभावनाएं बहुत कम है। व्यावहारिक दिक्कत यह है कि इंडोनेशिया दुनिया का सबसे बड़ा पाम तेल निर्यातक देश है। इस तेल का इस्तेमाल शैंपू से लेकर बिस्कुट तक हर चीज में होता है। पाम के उत्पादन से वनों के कटाई का सीधा रिश्ता है। अगर इंडोनेशिया इस संबंध को मान लें और वह वनों की कटाई को बंद कर दे तो न सिर्फ उसकी अर्थव्यवस्था चरमरा जाएगी, बल्कि करोड़ों लोगों के लिए रोजी-रोटी के संकट खड़े हो जाएंगे। अमेजन के जंगल दुनिया के सबसे विशाल वर्षा वन हैं। पिछले 12 वर्षो से इनकी बड़े पैमाने पर कटाई हो रही है और कटाई का सीधे सीधे रिश्ता जीवन और रोजगार से है।

दरअसल विकसित देशों में विकास के लिए जरूरी आधारभूत ढांचा वर्षो पहले तैयार हो चुका है। इसलिए उनके यहां वनों की कटाई पर पूर्णत: प्रतिबंध संभव है। यही नहीं, वे वनों को विस्तार देने के लिए बहुत आसानी से नए वन क्षेत्र भी विकसित कर सकते हैं। लेकिन विकासशील देशों में अभी मानवीय विकास के लिए पूरी तरह से बुनियादी ढांचा तैयार नहीं हुआ। इसलिए अभी इन देशों में सड़क और रेल नेटवर्क बन और बिछ रहे हैं। इनकी जनसंख्या के अनुपात में उत्पादन का भी संकट है इसलिए तमाम वन क्षेत्रों को कृषि भूमि में बदला जा रहा है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि इन देशों को वनों की कटाई के संबंध में अंधाधुंध छूट है और ये छूट हमेशा बनी रहेगी। अंतत: धरती के बिगड़ते पर्यावरण का खामियाजा सब देशों को उठाना पड़ेगा। चाहे वे अमीर देश हो या गरीब। इसलिए अंतत: वनों की कटाई को रोकने और वनों के क्षेत्रफल में वृद्धि की जिम्मेदारी आज नहीं तो कल इन देशों को भी उठानी पड़ेगी। तभी धरती को ग्लोबल वार्मिग के कहर से बचाया जा सकता है। लेकिन इसके लिए अमीर देशों को कम से कम गरीब देशों को इस लायक तो मदद करनी ही पड़ेगी कि ये देश अंतत: इस जिम्मेदारी को उठाने के लायक हो जाएं।

जब तक यह स्थिति नहीं बनती, तब तक कोई कठिन फैसला जो भले कितना ही आदर्श से परिपूर्ण क्यों न हो उसे अमलीजामा पहनाना संभव नहीं है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि पिछली कुछ सदियों में इंसान ने मानव निर्मित दौलत इतनी ज्यादा बना ली है कि प्राकृतिक दौलत से भी वह कई गुना ज्यादा हो चुकी है। दूसरी तरफ पिछली तीन सदियों में इंसान ने इस कदर प्राकृतिक संसाधनों का दोहन किया है कि आज मानव निर्मित दौलत के सामने प्रकृति के संसाधनों की कीमत आधी भी नहीं रह गई। लेकिन विडंबना यह है कि मानव निर्मित दौलत दुनिया के महज नौ देशों में बड़े पैमाने पर और करीब 21 देशों में पूरी तरह से सिमट गई है। जबकि दुनिया के 170 से ज्यादा देशों की हालत बहुत खराब है। भारत समेत दुनिया के अनेक देशों में आज भी जीवन जीने के लिए बहुत सी चीजों का अभाव है।

लब्बोलुआब यह कि विकास के नाम पर ही नहीं, जीवन रक्षा के नाम पर भी ज्यादातर देश वनों के कटाई के पूर्णत: प्रतिबंध को लागू नहीं कर सकते, क्योंकि वनों के तमाम उपज और पेड़ों की लकड़ी से ही इन लोगों के घरों का चूल्हा जलता है। पूरी दुनिया में 80 करोड़ से ज्यादा लोग किसी न किसी रूप से जंगल के विभिन्न उत्पादों पर आश्रित हैं। ऐसे में उन लोगों की जिंदगी के बारे में सोचे बिना वनों की पूर्णत: कटाई को रोकने का यह विचार कितना भी क्रांतिकारी हो, कितना ही अच्छा लगने वाला हो, लेकिन इसे व्यावहारिक रूप से अपनाया जाना कम से कम अभी तो संभव नहीं है। (ईआरसी)


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