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ये होंगी उत्तराखंड के 8वें मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की प्रमुख चुनौतियां

मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने के साथ ही त्रिवेंद्र सिह रावत के सामने कई चुनौतियां भी हैं। मुख्यमंत्री को इन चुनौतियों से हर हाल में पार पाना होगा।

By Digpal SinghEdited By: Published: Sat, 18 Mar 2017 11:08 AM (IST)Updated: Sat, 18 Mar 2017 03:15 PM (IST)
ये होंगी उत्तराखंड के 8वें मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की प्रमुख चुनौतियां
ये होंगी उत्तराखंड के 8वें मुख्यमंत्री त्रिवेंद्र रावत की प्रमुख चुनौतियां

नई दिल्ली, ऑनलाइन डेस्क। वरिष्ठ भाजपा नेता त्रिवेंद्र सिंह रावत शनिवार को उत्तराखंड के आठवें मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ लेंगे। करीब 17 साल पहले बने इस पहाड़ी राज्य में वे भाजपा की ओर से मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले 5वें नेता हैं। उनसे पहले नित्यानंद स्वामी, भगत सिंह कोश्यारी, बीसी खंडूरी और रमेश पोखरियाल 'निशंक' मुख्यमंत्री रह चुके हैं।

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यही नहीं कांग्रेस की तरफ से मुख्यमंत्री रह चुके विजय बहुगुणा भी पार्टी से बगावत करने के बाद इन दिनों भाजपा में ही हैं। कांग्रेस से आए सतपाल महाराज, हरक सिंह रावत, कुंवर प्रणव चैंपियन जैसे अंदर हैवीवेट नेताओं को संभाले रखना भी उनके लिए किसी चुनौती से कम नहीं होगा।
मुख्यमंत्री बनने के साथ ही त्रिवेंद्र रावत को कुछ मुद्दे विरासत में मिल रहे हैं, जिनमें राजधानी गैरसैंण और नए जिलों के गठन के साथ ही पलायन और पहाड़ों में रोजगार के साधन जुटाना अहम होंगे।
नए जिलों के गठन का मुद्दा
उत्तराखंड में अभी कुल 13 जिले हैं। 4 से 5 जिले और बनाए जाने की मांगें समय-समय पर उठती रही हैं। कुछ जिलों के निर्माण के लिए पूर्व में बीसी खंडूरी की सरकार के अंतिम दिनों में पहल भी हुई, लेकिन आचार संहिता के चलते इस पर आगे नहीं बढ़ा जा सका। बाद में कांग्रेस सरकार के दौरान इस ओर कोई पहल नहीं हुई। अंतिम दिनों में हरीश रावत सरकार भी इस ओर सक्रिय तो दिखी, लेकिन फिर मामले को अगली सरकार के लिए टाल दिया गया। अब देखना होगा कि त्रिवेंद्र रावत की सरकार में नए जिलों के गठन की पुरानी मांग कब तक पूरी होती है।
पलायन और पहाड़ों में रोजगार
पृथक उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे प्रमुख कारणों में पहाड़ी क्षेत्रों में रोजगार के साधनों की कमी और इसके चलते बढ़ता पलायन भी था। लेकिन अलग राज्य बनने के बाद भी न तो पहाड़ों में रोजगार के साधनों में उल्लेखनीय वृद्धि हुई है और न ही पलायन पर रोक लग पायी। बल्कि अलग राज्य बनने के बाद पलायन और ज्यादा बढ़ने के संबंध में आंकड़े सामने आते रहे हैं। पहाड़ों में कई गांव तो बिल्कुल खाली हो चुके हैं। त्रिवेंद्र रावत की सरकार को पहाड़ों में रोजगार के साधन उपलब्ध कराने के साथ ही पलायन पर रोक लगाने के लिए काम करना होगा। 
राजधानी गैरसैंण का मुद्दा
राजधानी गैरसैंण का मुद्दा नया नहीं है। साल 1994 में जब उत्तराखंड आदोलन अपने चरम पर था, उसी दौरान कुमाऊं और गढ़वाल के बीच चमोली जिले में स्थित गैरसैंण को आंदोलनकारियों ने राजधानी घोषित कर दिया था। इसके पीछे तर्क यही था कि पहाड़ी राज्य की राजधानी पहाड़ में होगी तो इससे पहाड़ों के विकास में तेजी आएगी। लेकिन जब साल 2000 में उत्तराखंड राज्य बना तो उस समय देहरादून को अस्थायी राजधानी घोषित किया गया। इसके बाद भी गैरसैंण को राजधानी बनाए जाने के लिए तमाम बातें हुईं, लेकिन सरकारें देहरादून में अवस्थापना विकास करती रहीं. पिछले कुछ सालों में भराड़ीसैंण में विधानसभा भवन सहित कुछ सरकारी इमारतें बनने से एक बार फिर स्थायी राजधानी की उम्मीदें जगी हैं और अब सभी निगाहें त्रिवेंद्र की तरफ होंगी।
भाजपा का विजय डॉक्यूमेंट लागू कराना होगा
उत्तराखंड में चुनाव से पहले भारतीय जनता पार्टी ने मतदाताओं को लुभाने के लिए परंपरागत घोषणापत्र की बजाए कुछ हटकर दृष्टि पत्र, यानी विजन डाक्यूमेंट जारी किया था। विजन डाक्यूमेंट में शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग और आधारभूत ढांचे जैसे विषयों को जगह दी गई तो युवा और महिलाओं पर भी पूरा फोकस किया गया। अब त्रिवेंद्र रावत पर अगले पांच साल इस दृष्टि पत्र को पूरी तरह से लागू करना और उत्तराखंड के आम लोगों के जीवन में उल्लेखनीय परिवर्तन लाने की जिम्मेदारी होगी।

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