पढ़ोगे लिखोगे तो होगे 'नवाब', खेलोगे कूदोगे तो बनोगे और 'बड़े नवाब'
ओलिंपिक्स एवं वर्ल्ड चैंपियनशिप्स में उम्दा प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों को अच्छी-खासी इनामी राशि एवं अन्य सुविधाएं मिल रही हैं। राज्य सरकारें एवं सरकारी कंपनियां भी खिलाड़ियों को पर्याप्त अवसर दे रही हैं। इससे अभिभावकों की मानसिकता में बदलाव आया है।
[अंशु सिंह] आज का नया मुहावरा है 'पढ़ोगे लिखोगे तो होगे नवाब, खेलोगो कूदोगे तो बनोगे और बड़े नवाब'। इसे बच्चे ही नहीं अभिभावक भी अच्छी तरह समझ गए हैं। तभी तो वे खुद भी उत्साह के साथ बच्चों को खेलों के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। पिछले दिनों टोक्यो ओलिंपिक एवं पैरालिंपिक में भारतीय युवाओं के अच्छे प्रदर्शन से इसे और बल मिला है। आज बच्चे-किशोर क्रिकेट से इतर खो-खो, कबड्डी, फुटबाल, शतरंज, जैवलिन, बाक्सिंग, जूडो, तैराकी, हाकी आदि खेलों में खूब रुचि ले रहे हैं...
‘ स्पोर्ट्स तुम्हारे लिए नहीं है।‘ बचपन से इस ताने को सुनते हुए बड़ी हुईं पंजाब के जालंधर की पलक कोहली। लेकिन २०१७ में एक कोच की पारखी नजर इन पर पड़ी। उन्होंने हौसला दिया कि दिव्यांगता किसी को भी खेलने से नहीं रोक सकती है। उस दिन के बाद पलक की जिंदगी बदल गई। बताती हैं पलक, ‘जन्म के समय से ही मेरा एक हाथ विकसित नहीं था। मुझे देखते ही लोग खैरियत पूछने की जगह सवाल करते थे कि ये क्या हुआ? गौरव सर पहले वह शख्स थे जिन्होंने दया दिखाने के बजाय पूछा कि क्या तुमने पैरा बैडमिंटन के बारे में सुना है? तुम्हें वह ट्राई करना चाहिए। लेकिन मुझे खुद पर भरोसा नहीं था। एक गेंद तक नहीं फेंका था कभी। स्कूल में भी खेलने के लिए प्रोत्साहिन नहीं किया गया।‘ हालांकि इन्हें अपने माता-पिता का पूरा सहयोग मिला। वे बेटी को लेकर लखनऊ गौरव सर के पास गए। वहां उनकी ट्रेनिंग शुरू हुई। दो महीने लगे। अभ्यास एवं कड़ी मेहनत के बाद पलक ने पेशेवर रूप से खेलना शुरू कर दिया। १६ वर्ष की आयु में नेशनल बैडमिंटन चैंपियनशिप में खेलने का अवसर मिला, जिसमें उन्होंने चार पदक जीते। आज पलक राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय स्पर्धाओं में देश का प्रतिनिधित्व कर चुकी हैं।
सर्फिंग में बनायी खास पहचान
मेंगलुरु की सर्फर अनीशा नायक कहती हैं, ‘ जब हम कुछ नया करते हैं, तो विरोध होता है। तब खुद का निश्चय पक्का होना चाहिए। जैसे मुझे पता था कि मैं क्या करना चाहती हूं और इसमें मां ने पूरा साथ दिया। हर मोड़ पर मेरा हौसला बढ़ाया। मैंने शहर के निकट मुल्की स्थित क्लब से बकायदा सर्फिंग का प्रशिक्षण लिया।‘ देश-विदेश की सर्फिंग प्रतियोगिता में भाग ले चुकीं अनीशा आगे कहती हैं, 'सर्फिंग से मैंने धैर्य रखना सीखा है। मुझे लगता है कि जितनी अधिक लड़कियां अपनी खुशी और जुनून के साथ इस स्पोर्ट्स में आएंगी, उससे अन्य को भी प्रेरणा मिलेगी। सर्फिंग स्पोर्ट्स ही ऐसा है जो मन को सुकून देता है।' आज दक्षिण भारत के तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक जैसे राज्यों में बहुत से क्लब्स, स्कूल्स खुल गए हैं, जो लड़के-लड़कियों को सर्फिंग का प्रशिक्षण दे रहे हैं। जहां तक इससे संबंधित प्रतियोगिता का सवाल है, तो इस समय देश में नेशनल और ओपन, दो श्रेणियों में सर्फिंग की प्रतियोगिता होती है। ओपन कैटेगरी में देश-विदेश के सर्फर्स हिस्सा लेते हैं। लड़कियों को इससे अच्छा एक्सपोजर मिलता है। कई जुनूनी लड़कियों ने तो इसे करियर के रूप में भी लेना शुरू कर दिया है।
फुटबाल ने गढ़ा व्यक्तित्व
शुभम सारंगी पढ़ाई में तो अच्छे थे ही। खेलों में भी काफी रुचि रखते थी। चौथी कक्षा से ही स्कूल में फुटबाल खेला करते थे। वहीं से धीरे-धीरे आगे बढ़े। शुरू में कोई औपचारिक प्रशिक्षण नहीं लिया। जो मैच खेलते,उससे ही प्रैक्टिस होती। आठवीं में पहुंचे,तो नोएडा के आर्मी पब्लिक स्कूल की ओर से कैप्टन विजयन थापर टूर्नामेंट में खेलने का मौका मिला। वहीं स्टेट टीम के लिए चयन हो रहा था। शुभम का दिल्ली टीम में चयन हो गया। वह 2017 से 2019 तक ‘दिल्ली डायनोमोज’ की ओर से खेले। इसके अलावा, वह भारत की अंडर-17 वर्ल्ड कप टीम का भी हिस्सा रहे हैं। इस समय वह ‘ओडिशा एफसी’ टीम की ओर से खेलते हैं। मिड फील्डर के रूप में खेलने वाले शुभम बताते हैं, ‘मुझे स्पोर्ट्स से गहरा लगाव रहा है। पैरेंट्स ने भी कभी खेलने से रोका नहीं, बल्कि हमेशा मेरा हौसला बढ़ाया। मैंने टेनिस, बैडमिंटन, क्रिकेट, बास्केटबाल, वालीबाल सब खेला है। फुटबाल का आकर्षण सबसे अधिक था। इसने मुझे फोकस रहना सिखाया है। मेरे व्यक्तित्व को गढ़ा है। जीवन में अनुशासन आया है। मैं समय की कीमत पहचान सका हूं।‘ शुभम के अनुसार, टीम में हर पृष्ठभूमि के खिलाड़ी हैं। सबको समान रूप से देखा जाता है। वे सभी से कुछ न कुछ सीखते हैं। इससे आपस का बांडिंग अच्छी होती है।
सीनियर खिलाड़ियों से प्रेरणा
हाकी के लिए प्रसिद्ध हरियाणा के शाहाबाद से ताल्लुक रखते हैं युवा खिलाड़ी दीपक, जो आठ वर्ष की आयु से हाकी खेल रहे हैं। 2019 में इन्होंने जूनियर नेशनल टूर्नामेंट में सिल्वर मेडल जीता था। इन दिनों वह अक्टूबर में होने जा रही नेशनल चैंपियनशिप की तैयारियों में जुटे हैं। बताते हैं दीपक, ‘मैं बचपन से ही घर के आसपास ग्राउंड में लड़के-लड़कियों को खेलते देखा करता था। उनके अलावा सरदारा सिंह, सुरेंद्र कौर, रितू रानी दीदी जैसी खिलाड़ियों से भी खेलने की प्रेरणा मिली। आज उनके क्लब से जुड़कर न सिर्फ अपने खेल को तराश रहा हूं, बल्कि साथ-साथ पढ़ाई भी कर रहा हूं। रोजाना सुबह पांच से सात बजे एवं शाम को चार से सात बजे मैदान पर कोच हर्ष शर्मा की निगरानी में अभ्यास करता हूं। कोच से खेल की बारीकियां एवं तकनीकी जानकारियां सीखने को मिलती हैं।‘ दीपक के अलावा उनकी बहन भी हाकी की खिलाड़ी हैं। खेलो इंडिया यूथ गेम्स के पहले एवं दूसरे सीजन में हरियाणा के लिए गोल्ड मेडल जीत चुकी हैं। हालांकि भाई-बहनों की इस सफलता के पीछे न सिर्फ उनकी अपनी मेहनत, बल्कि मां की बड़ी भूमिका रही। कहते हैं दीपक,‘पिता जी राइस मिल में काम करते हैं। वे चाहते थे कि बच्चे खेल से अधिक पढ़ाई पर ध्यान दें। इसलिए शुरुआत में थोड़ी दिक्कतें आईं। लेकिन मां ने सब संभाल लिया, क्योंकि वह समझती हैं कि कैसे अब खेल में भी भविष्य को चमकदार बनाया जा सकता है।‘
कबड्डी में है स्वर्णिम भविष्य
गुरुग्राम के युवा कबड्डी खिलाड़ी एवं २०१९ के नेशनल गेम्स में कांस्य पदक विजेता हरियाणा टीम के सदस्य रहे विपुल कहते हैं कि पहले स्पोर्ट्स में उतने अवसर नहीं थे। जाब सिक्योरिटी नहीं थी। इनाम जैसा कोई कांसेप्ट नहीं था। स्पांसर्स नहीं होते थे। अभिभावक डरते थे कि उनका बच्चा खेलने के कारण कहीं ज्यादा चोटिल न हो जाए या फिर खेलों की वजह उसका उसका करियर न खराब हो जाए। इसलिए वे खेल की बजाय पढ़ाई पर जोर देते थे। लेकिन आज हर सेक्टर में संभावनाएं हैं। राज्य सरकारें एवं सरकारी कंपनियां भी खिलाड़ियों को पर्याप्त अवसर दे रही हैं। इससे अभिभावकों की मानसिकता में बदलाव आया है। ओलिंपिक्स एवं वर्ल्ड चैंपियनशिप्स में उम्दा प्रदर्शन करने वाले या पदक विजेता खिलाड़ियों को अच्छी-खासी इनामी राशि एवं अन्य सुविधाएं मिल रही हैं। विगत सात वर्षों से कबड्डी खेल रहे विपुल इस समय मास्टर्स करने के साथ ही २०२२ में होने वाले एशियन गेम्स की तैयारी भी कर रहे हैं। कहते हैं, ‘मेरे पिता खुद एक कबड्डी खिलाड़ी रहे हैं। वह साथ में अभ्यास करने से लेकर खेल की छोटी-बड़ी बारीकियों से अवगत कराते रहते थे। उनके अलावा, स्कूल के शिक्षकों एवं साई-सेंटर फार एक्सीलेंस के प्रशिक्षकों से बहुत कुछ सीखने को मिला। उससे आत्मविश्वास आया। क्योंकि जब हम खेलना शुरू करते हैं, तो संघर्ष के साथ काफी मेहनत करनी पड़ती है। आखिर में वह हमारी सफलता का आधार बनता है।‘
हर तरफ बढ़ी जागरूकता
टोक्यो ओलिंपिक में भारतीय महिला हाकी खिलाड़ियों के शानदार प्रदर्शन के बाद से बच्चों के साथ-साथ अभिभावकों में भी नया जोश देखने को मिल रहा है। वे हाकी में संभावनाओं को देखते हुए बेटों के साथ बेटियों को भी खेलने के लिए प्रोत्साहित कर रहे हैं। दरअसल, पहले हाकी, कबड्डी, खो-खो जैसे खेलों का टीवी पर लाइव प्रसारण कम ही होता था। इससे अधिक लोग टूर्नामेंट्स नहीं देख पाते थे। आज टेलीविजन के अलावा इंटरनेट मीडिया पर तमाम खेलों की चर्चा हो रही है। बच्चे-युवा जागरूक हो रहे हैं। मैं मानती हूं कि किसी भी खिलाड़ी के आगे बढ़ने में सही प्रशिक्षण के साथ अभिभावकों का समर्थन बहुत अहम होता है। मुझे भाई ने हाकी से जोड़ा। आगे चलकर पति एवं सास का साथ मिला। दोनों खुद भी हाकी खिलाड़ी रहे हैं और आज कोच की भूमिका रहे हैं।
(रितु रानी, पूर्व कप्तान, भारतीय महिला हाकी टीम)
खो-खो में बढ़ रही रुचि
मेरा सपना था कि खेल से अपनी पहचान बनाऊं। सीनियर खिलाड़ियों को देखकर खो-खो के प्रति आकर्षित हुआ। क्लब टूर्नामेंट्स के बाद कोल्हापुर की ओर से नेशनल टूर्नामेंट्स खेले। छह बार सर्वश्रेष्ठ खिलाड़ी का खिताब मिला। 2016 के साउथ एशियन गेम्स में भारतीय टीम की कप्तानी करते हुए गोल्ड मेडल जीता। आज खेलों में अच्छा प्रदर्शन करने वाले खिलाड़ियों की सीधी नियुक्तियां हो रही हैं। इंटरनेट मीडिया से अलग-अलग खेलों की जानकारी मिलना आसान हो गया है। मैंने २००९ में रेलवे ज्वाइन किया। उसके बाद से सेंट्रल रेलवे की ओर से खेल रहा हूं। साथ-साथ बच्चों को प्रशिक्षित भी करता हूं। आज गांव से लड़के-लड़कियां खो-खो सीखने के लिए शहरों का रुख कर रहे हैं। बहुत मेहनत कर रहे हैं। प्रो-लीग के शुरू होने से भी युवा खिलाड़ियों को अधिक से अधिक खेलने का मौका मिल रहा।
(योगेश मोरे, पूर्व भारतीय कप्तान, खो-खो टीम)