आज शिमला है, तो कल आपका शहर भी पानी को तरसेगा! संभल जाओ अब भी वक्त है
शिमला में पानी की किल्लत सिर्फ एक बानगी है उस भयावह तस्वीर की, जिसे अगले कुछ वर्षों या दशकों में हमारी पीढ़ियां देखने और झेलने को अभिशप्त होंगी।
नई दिल्ली। शिमला में पानी की किल्लत सिर्फ एक बानगी है उस भयावह तस्वीर की, जिसे अगले कुछ वर्षों या दशकों में हमारी पीढ़ियां देखने और झेलने को अभिशप्त होंगी। देश के कई शहर जीरो डे की कगार पर हैं। मुख्यत: भूजल पर आश्रित इन शहरों में भूजल स्तर अभी से पाताल छूने लगा है। प्रभावी कदम नहीं उठे तो दक्षिण अफ्रीका के केपटाउन और हमारे शिमला की सूची में दिल्ली, बेंगलुरु सहित दर्जनों शहर शामिल हो जाएंगे। इन शहरों ने अपने भूजल का जमकर दोहन किया। धरती की कोख भरने के कोई उपक्रम ही नहीं किए गए। शहरों में बढ़ते कंक्रीटीकरण ने धरती की कोख में होने वाली जल भरण की स्वत: स्फूर्त प्रक्रिया को बंद कर दिया। रही-सही कसर जोहड़ो, ताल, तलैयों और पोखरों के खात्मे ने पूरी कर दी। समस्या गंभीर हो चली है। पानी के लिए रतजगा करना पड़ रहा है।
ऐसे काम नहीं चलेगा
ऐसे काम नहीं चलेगा, अगर गला तर करना है तो धरती की खाली हुई कोख में पानी उड़ेलना ही होगा। जल संरक्षण दैनिक जागरण के सात सरोकारों में से एक है। लिहाजा वह इस अनमोल प्राकृतिक संसाधन को संरक्षित और संवर्धित करने के लिए हमेशा से राज-काज और समाज को जागरूक करता आ रहा है। इसी क्रम में 10 जून यानी आज से एक महीना लगातार चलने वाला जलदान अभियान का आगाज हो रहा है। इसके तहत लोगों और सरकारों को इस बात के लिए प्रेरित किया जाएगा कि धरती से जितना पानी हम लेते हैं उतना ही बारिश का पानी धरती की कोख में पहुंचाना होगा। इसके लिए वाटर हार्वेस्टिंग सिस्टम लगाने से लेकर ताल-तलैयों जैसे जलस्रोतों को बचाने का उपक्रम किया जाएगा
आज भी खरे हैं तालाब
देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जो समाज और देश के लिए पानी को बचाने के प्रयास बड़े स्तर पर कर रहे हैं। ऐसी ही कुछ खास शख्सियतों पर एक नजर :
आबिद सूर्ती
अयप्पा मसागी
राजेंद्र सिंह
शिरीष आप्टे
अमला रुइया
करें जलदान बने वरदान
मानसून के दौरान चार महीने होने वाली बारिश का पानी ताल-तलैयों जैसे जलस्रोतों में जमा होता है। इससे भूजल स्तर दुरुस्त रहता है। जमीन की नमी बरकरार रहती है। धरती के बढ़ते तापमान पर नियंत्रण रहता है। तालाब स्थानीय समाज का सामाजिक, सांस्कृतिक केंद्र होते हैं। लोगों के जुटान से सामुदायिकता पुष्पित-पल्लवित होती है। लोगों के रोजगार के भी ये बड़े स्नोत होते हैं।
कहां गए जीवनदाता
तब: 1947 में देश में कुल चौबीस लाख तालाब थे। तब देश की आबादी आज की आबादी की चौथाई थी। अब: वैसे तो देश में तालाब जैसे प्राकृतिक जल स्नोतों का कोई समग्र आंकड़ा मौजूद नहीं है लेकिन 2000-01 की गिनती के अनुसार देश में तालाबों, बावड़ियों और पोखरों की संख्या 5.5 लाख थी। हालांकि इसमें से 15 फीसद बेकार पड़े थे, लेकिन 4 लाख 70 हजार जलाशयों का इस्तेमाल किसी न किसी रूप में हो रहा था।
अजब तथ्य
1944 में गठित अकाल जांच आयोग ने अपनी सिफारिश में कहा था कि आने वाले वर्षों में पेयजल की बड़ी समस्या खड़ी हो सकती है। इस संकट से जूझने के लिए तालाब ही कारगर होंगे। जहां इनकी बेकद्री ज्यादा होगी, वहां जल समस्या हाहाकारी रूप लेगी। आज बुंदेलखंड, तेलंगाना और कालाहांड़ी जैसे क्षेत्र पानी संकट के पर्याय के रूप में जाने जाते हैं, कुछ दशक पहले अपने प्रचुर और लबालब तालाबों के रूप में इनकी पहचान थी।
खात्मे की वजह
समाज और सरकार समान रूप से जिम्मेदार है। कुछ मामलों में इन्हें गैर जरूरी मानते हुए इनकी जमीन का दूसरे मदों में इस्तेमाल किया जा रहा है। दरअसल तालाबों पर अवैध कब्जा इसलिए भी आसान है क्योंकि देश भर के तालाबों की जिम्मेदारी अलग-अलग महकमों के पास है। कोई एक स्वतंत्र महकमा अकेले इनके रखरखाव-देखभाल के लिए जिम्मेदार नहीं है।