लगातार चुनाव होते रहने में खूबियां हैं तो खामियां भी
पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त एसवाई कुरैशी का कहना है कि यदि लगातार चुनाव होता रहे तो राजनेताओं की जवाबदेही बनी रहती है।
(एसवाई कुरैशी)। वर्ष 1999 में विधि आयोग ने अपनी 170वीं रिपोर्ट में एक देश एक चुनाव की सिफारिश की। 2015 को संसदीय स्थायी समिति ने इस मसले को व्यावहारिकता के पैमाने पर कसा और मामले को चुनाव आयोग के पास आगे बढ़ाया। सैद्धांतिक रूप से दोनों इसके समर्थन में थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार इस मसले को आगे बढ़ाते रहे हैं। पिछले साल एक साक्षात्कार में उन्होंने कहा था कि इस व्यवस्था से धन बचेगा, संसाधन और मानव शक्ति बचेगी। ऐसे में यह कदम उठाना और अहम हो जाता है जब हर साल करीब 200 दिनों तक चलने वाले चुनावों में देश की बड़ी संख्या में सुरक्षा एजेंसियां, नौकरशाही और राजनीतिक मशीनरी व्यस्त रहती हैं।
अप्रैल, 2018 में विधि आयोग ने एक कार्यकारी मसौदा पत्र तैयार किया। इसमें कहा गया कि वर्तमान संवैधानिक नियमों-कानूनों के दायरे में इसे लागू किया जाना संभव नहीं है। इसे लागू करने के लिए जनप्रतिनिधित्व कानून 1951, रूल्स ऑफ प्रोसीजर ऑफ लोकसभा और राज्यसभा, अनुच्छेद 83, अनुच्छेद 172, 174 और 356 के साथ दसवीं अनुसूची में संशोधन की जरूरत पड़ेगी। इसके अतिरिक्त लोकसभा और विधानसभाओं के कार्यकाल को समय से पहले खत्म करने वाले अविश्वास प्रस्ताव के साथ वैकल्पिक सरकार में विश्वास प्रस्ताव को लागू किया जा सकता है।
सैद्धांतिक रूप से एक देश एक चुनाव बहुत आकर्षक विचार है। कहा जा रहा है कि इससे चुनाव खर्च में कमी आएगी। लंबे समय तक चलने वाले चुनावों के चलते सरकार और नागरिकों का जीवन दोनों को परेशानी होती है। ऐसा इसलिए क्योंकि चुनावों की घोषणा होते ही आचार संहिता अमल में आ जाती है। ऐसे में सरकार नई नीतियों, योजनाओं की घोषणा नहीं कर सकती है। इससे नीतिगत पंगुता की स्थिति बनती है। इस दौरान ज्यादातर मानव संसाधन चुनावों को संपन्न कराने में जुटे होते हैं। लगातार चलने वाले चुनावों की एक खामी और है जिसपर ध्यान नहीं दिया जाता है।
इस दौरान राजनीतिक संवादों का स्तर बहुत गिर जाता है। हालिया संपन्न हुए लोकसभा के चुनावों में यह बात देखी गई। जाति, संप्रदाय से जुड़ी टिप्पणियों, नफरत से भरे भाषणों ने विभिन्न समूहों के बीच वैमनस्य फैलाने का ही काम किया। चुनावों के दौरान भ्रष्टाचार तो एक पहलू है ही।
चुनाव आयोग के लिए एक साथ सभी चुनाव सुविधाजनक हैं। खास करके जब मतदाता, सुरक्षाकर्मी, मतदान कर्मचारी और पोलिंग बूथ सब एक हैं। लिहाजा यह विचार तार्किक लगता है।
हालांकि सुविधा के चलते संवैधानिक और राजनीतिक बाध्यता को खारिज नहीं किया जा सकता है। अब तक यही नहीं स्पष्ट हो सका है कि यदि लोकसभा या विधानसभा समय से पहले भंग हो जाती है तो क्या किया जाएगा। क्या सभी राज्य विधानसभाएं फिर से चुनाव में जाएंगी? क्या यह व्यावहारिक है या फिर लोकतांत्रिक मूल्यों के अनुरूप है? नीतिगत पंगुता वाली दलील में बहुत दम नहीं दिखता है। आचार संहिता लगने के बाद केवल नई घोषणाओं पर पाबंदी है। इस दौरान सभी योजनाओं सामान्य रूप से चलती रहती है और अगर जनहित में आवश्यक रूप से कोई कदम उठाना भी पड़े तो आयोग से अनुमति लेकर किया जा सकता है। अक्सर होने वाले चुनावों की भी कुछ खूबियां हैं।
वे जवाबदेही सुनिश्चित करते हैं क्योंकि उस दौरान राजनेताओं को मतदाता की चौखट पर माथा टेकने जाना ही पड़ता है। स्थानीय, प्रांतीय और केंद्र के अलग से चुनावों से राष्ट्रीय और स्थानीय मुद्दे मिश्रित नहीं होते हैं जो कि किसी लोकतांत्रिक देश की अनिवार्य जरूरत है। इससे क्षेत्रीय दलों को उनकी विशिष्ट राजनीतिक पहचान मिलती है। इससे रोजगार सृजित होते हैं।
इससे पहले कि इस मसले पर कोई ठोस राय बने, क्या हम किसी वैकल्पिक रास्ते की तलाश नहीं कर सकते। चुनावों की लागत कम करने के लिए राजनीतिक दलों के खर्च की सीमा तय कर दी जाए। निजी तौर पर धन एकत्र करने पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया जाए और इसकी जगह स्टेट फंडिंग या राजनीतिक दलों द्वारा फंडिंग की व्यवस्था की जाए।
लंबे समय तक अवरुद्ध विकास की समस्या को दूर करने के लिए हमें चुनाव के 2-3 महीने लंबे समय को 33-35 दिनों में सीमित करना होगा। इसके लिए ज्यादा संख्या में केंद्रीय सशस्त्र बलों की जरूरत होगी। यदि पर्याप्त संख्या में ये सुरक्षा बल उपलब्ध हों तो चुनाव आयोग सभी चुनावों को एक दिन में भी करा सकने में सक्षम होगा। इससे अतिरिक्त रोजगार सृजन में भी मदद मिलेगी। (पूर्व मुख्य चुनाव आयुक्त)
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