बेटा नहीं जनने पर पति ने छोड़ा साथ, राजमिस्त्री बन दो बेटियों के पीले किए हाथ
कम उम्र में मेरे माता-पिता ने लातेहार जिले के मनिका के कैलाश ठाकुर के साथ मेरी शादी धूमधाम से कर दी। मां-पिता ने अपने सामर्थ्य के अनुसार कर्तव्यों का निर्वहन कर दिया।
जागरण संवाददाता, बालूमाथ, [लातेहार]। यह कहानी है झारखंड के अतिनक्सल प्रभावित बालूमाथ के मकैयाटांड़ की। बालूमाथ लातेहार जिले का एक प्रखंड है। यहां की एक निरक्षर और बेसहारा महिला धानो देवी ने विपरीत परिस्थितियों में अपनी दृढ़ इच्छाशक्ति से वह कर दिखाया जो इस तरह की पीड़ित अन्य महिलाओं के लिए प्रेरणादायक है। बेटा नहीं जनने पर पति व ससुराल वालों ने उसे घर से निकाल दिया। तीसरी बेटी होने पर बेटे की चाहत रखनेवाले परिवार ने यह कदम उठाया। अब इस निरक्षर महिला के सामने मुसीबतों का पहाड़ टूट पड़ा। खुद निरक्षर थी तो कोई और काम कर भी नहीं सकती थी। अपने साथ तीन बेटियों की परवरिश और भरण पोषण का जिम्मा था।
इस गांव में महिलाएं चूल्हा-चौका तक ही सीमित रहती हैं। इस कारण थक हारकर उसने मायके की शरण ली। यहां उसने मजदूरी करनी शुरू की। मजदूरी से उतने पैसे नहीं मिल पाते थे जिससे पूरे परिवार का भरण पोषण किया जा सके। आखिरकार उसने राजमिस्त्री बनने को ठानी। इसके बाद राजमिस्त्री के साथ काम करते-करते वह इस कार्य में निपुण हो गई। अब पैसे भी ठीक-ठाक आने लगे। अपनी कमाई से उसने दोनों बेटियों की शादी भी कर दी। अब वह अपनी तीसरी बेटी का बखूबी परवरिश कर रही हैं। धानो देवी ने यह सिद्ध कर दिया कि महिलाएं किसी भी क्षेत्र में पुरुषों से कमतर नहीं हैं।
बेटी बोझ नहीं, ठान लें तो पुरुषों को भी पछाड़ सकती हैं महिलाएं : धानो
निरक्षर धानो कहती हैं कि हमने यह साबित कर दिखाया है बेटियां बोझ नहीं होती हैं। गर ठान लें तो महिलाएं पुरुषों को भी पछाड़ सकती हैं। कम उम्र में मेरे माता-पिता ने लातेहार जिले के मनिका के कैलाश ठाकुर के साथ मेरी शादी धूमधाम से कर दी। मां-पिता ने अपने सामर्थ्य के अनुसार कर्तव्यों का निर्वहन कर दिया। उन्हें क्या पता था कि मेरी लाडो को आगे यह दिन भी देखना पड़ सकता है। शुरुआत बेहतर थी। शादीशुदा ज़िन्दगी शुरू में पटरी पर चली। सबसे पहले घर में लक्ष्मी के रूप में पुत्री रीता का जन्म हुआ। मां बनने की खुशी से मैं इठलाती रही। परिवारवाले भी खुश थे। दूसरी संतान के रूप में भी जब पुत्री सेवंती का जन्म हुआ तो परिवार वालों की भौंहे तन गईं। दोबारा पुत्री का जन्म होना पति और ससुरालवालों को रास नहीं आया। फिर भी पति व ससुरालवाले पुत्र की आस लगाए बैठे थे लेकिन जब तीसरी बच्ची के रूप में सीता का जन्म हुआ तो मेरे ऊपर दुखो का पहाड़ टूट पड़ा।
बेटी को बोझ समझने वाले पति ने बेटा नहीं जनने पर मुझे घर से निकाल दिया। अचानक आये इस तूफान की मैंने परिकल्पना भी नहीं की थी। शुरू में मैं टूट गई लेकिन तीनों बेटियों की परवरिश की जिम्मेदारी ने अंदर के संघर्ष के हौसले को एक नया आयाम स्थापित करने के लिए मुझे प्रेरित किया। इसी का परिणाम रहा कि आज मैं खुद स्वावलंबी बन गई हूं। मुझे किसी सहारे की जरूरत नहीं है। महीने में सात-आठ हजार रुपये अपने बूते कमा लेती हूं। काम कोई छोटा बड़ा नहीं होता। करने का जज्बा होना चाहिए।
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