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मनुष्य को प्रकृति से बहुत कुछ सीखना होगा, सामंजस्य बनाकर चलने की जरूरत

प्रत्येक जीव अपनी परंपरा से बंधे हैं जो उनके पूर्वज करते रहे हैं बस वे भी वही कर रहे हैं। उसी से उनकी पहचान है लेकिन मनुष्य बस परिवर्तन दर परिवर्तन कर रहा है। इससे उसकी पहचान कहीं खो-सी गई है।

By Manish PandeyEdited By: Published: Tue, 19 Jan 2021 10:56 AM (IST)Updated: Tue, 19 Jan 2021 10:56 AM (IST)
मनुष्य को प्रकृति से बहुत कुछ सीखना होगा, सामंजस्य बनाकर चलने की जरूरत
काश हम प्रकृति के साथ चले होते, जैसे हमारे ऋषियों-मुनियों की दुनिया थी! किसी पड़ाव पर तो शांति मिलती।

नई दिल्ली, जेएनएन। अपने आसपास से इतर आखिर दुनिया क्या है? हमारी सोच से परे आखिर दुनिया की सोच क्या है? मनुष्यों की दुनिया कमोबेश एक जैसी है, वही सत्ता का संघर्ष, वही अहंकार का वजूद! दुनिया के हर कोने के मनुष्य का यही फलसफा है, बस अधिकार और अधिकार। मनुष्य को अभी बहुत कुछ सीखना है। प्रकृति में सामंजस्य है, जागरूकता भी है। अपने परिवार की रक्षा कैसे करनी है, प्रकृति में मौजूद दूसरे जीव जानते हैं। प्रणय से लेकर नई पीढ़ी के पंख आने तक कैसी साधना करनी है, वे जानते हैं। उनकी साधना का प्रकार बदलता नहीं है, छोटे से जीवन में भी पीढ़ी दर पीढ़ी एक ही साधना चली आ रही है। उनके जीवन में कुछ बदलता नहीं। एक नर पक्षी तिनकों से झोपड़ी बनाता है। जब सबकुछ सज जाता है, तब प्रणय निवेदन के लिए पुकारता है। फिर मादा पक्षी आती है, प्रणय निवेदन स्वीकार करती है और कुटिया में परिवार का डेरा सज जाता है। इतना सुंदर दृश्य देख मन कहीं खो-सा जाता है। एक पक्षी का सौंदर्य बोध सीधे दिल में उतर जाता है।

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अपने परिवार को अपनी नजर में रखना, हमें प्रकृति सिखाती है, लेकिन मनुष्य यह भूल गया है। परिवार को छोड़ देता है, समाज को छोड़ देता है और देश को भी छोड़ देता है। बस अकेला ही दुनिया को जीतने निकल पड़ता है! लगता ऐसा है कि वह प्रकृति को जान ही नहीं पाया है! प्रत्येक जीव अपनी परंपरा से बंधे हैं, जो उनके पूर्वज करते रहे हैं, बस वे भी वही कर रहे हैं। उसी से उनकी पहचान है, लेकिन मनुष्य बस परिवर्तन दर परिवर्तन कर रहा है। इससे उसकी पहचान कहीं खो-सी गई है। वह अपने युगल के साथ भी ढंग से व्यवहार नहीं कर पा रहा है। जब युगल से ही व्यवहार का पता नहीं है, तब अन्य प्राणियों के साथ सामंजस्य कैसे रख सकेगा?

मनुष्य को प्रकृति से बहुत कुछ सीखना होगा, सामंजस्य बनाकर चलना होगा। जो उसके मूल गुण-सूत्र हैं, उन्हीं पर कायम रहना होगा। अपने सौंदर्य बोध को जिंदा रखना होगा। बहुत उन्नति कर ली है मनुष्य ने, लेकिन उस छोटे से पक्षी जैसा सौंदर्य बोध शायद खो दिया है। वह प्रणय निवेदन करना भी भूल गया है। अपने अधिकार को जगा लिया है। इसके तहत वह सब कुछ छीनकर प्राप्त करना चाहता है। शायद प्रकृति का सौंदर्य बोध उससे दूर होता जा रहा है! उसके पास सब कुछ कृत्रिम-सा है! प्रकृतिस्थ कुछ भी नहीं! काश हम प्रकृति के साथ चले होते, जैसे हमारे ऋषियों-मुनियों की दुनिया थी! किसी पड़ाव पर तो शांति मिलती! जीवन के अंतिम पड़ाव पर खोज रहे हैं कि कहां बसेरा हो, लेकिन कृत्रिम दुनिया के मकड़जाल में ऐसे फंसकर रह गए हैं कि कहीं मार्ग दिखता नहीं। फूलों को एकत्र करने की चाहत भी जैसे इस कृत्रिमता के नीचे दब गई है। काश हम भी उसी पक्षी की तरह बन पाते, जो अपनी चोंच के सहारे ही इतना सुंदर घर बना लेता है!

(अजित गुप्ता का कोना ब्लॉग से साभार)


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