जन्मदिन विशेष : फिल्म 'दीवार' देखकर दुष्यंत कुमार ने अमिताभ को पत्र में क्या लिखा जानें
70 का दौर कुछ ऐसा था कि शासन, सत्ता के खिलाफ गुस्सा हर तरफ जाहिर हो रहा था। अगर फिल्मों में अमिताभ बच्चन उभर कर आए तो कविताओं में दुष्यंत कुमार थे।
नई दिल्ली, जागरण स्पेशल। एक सितंबर का दिन कई मायनों में खास है। आज ही के दिन 1933 में एक ऐसे कवि का जन्म हुआ था जिसकी लेखनी आज भी युवाओं के दिलों में गूंजती है और बुजुर्गों की जबानों पर बसती है। हम दुष्यंत कुमार की बात कर रहे हैं जिन्होंने कहा था, 'तू किसी रेल सी गुज़रती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूं...'। दुष्यंत कुमार ने कविता, गीत, गजल, काव्य नाटक, कथा, हिंदी की सभी विधाओं में लेखन किया लेकिन उनकी गजलें उनके लेखन की दूसरी विधाओं पर भारी पड़ गईं।
उत्तर प्रदेश के बिजनौर जनपद की तहसील नजीबाबाद के ग्राम राजपुर नवादा के रहने वाले हिन्दी के जाने माने कवि और गजलकार दुष्यंत कुमार त्यागी का जन्म 1933 में हुआ था और वह 30 दिसंबर, 1975 को भोपाल में दुनिया से अलविदा कह गए थे।
उन्होंने भोपाल में आकाशवाणी में बतौर असिस्टेंट प्रोड्यूसर काम किया। इलाहाबाद में उन्होंने अपनी पढ़ाई-लिखाई की। इस दौरान उनकी कथाकार कमलेश्वर से गहरी दोस्ती हुआ करती थी। दुष्यंत ने महज 42 साल की छोटी सी उम्र में ही जिंदगी को अलविदा कह दिया लेकिन अपने शब्दों से लोगों के मन पर वो छाप छोड़ी, जो साल दर साल और गाढ़ी होती जा रही है।
70 का दौर कुछ ऐसा था कि शासन, सत्ता के खिलाफ गुस्सा हर तरफ जाहिर हो रहा था। अगर फिल्मों में अमिताभ बच्चन उभर कर आए तो कविताओं में दुष्यंत कुमार ही थे जिन्होंने आपातकाल में कहा था- 'मत कहो आकाश में कुहरा घना है, यह किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।' निदा फाजली के मुताबिक, 'दुष्यंत की नजर उनके युग की नई पीढ़ी के गुस्से और नाराजगी से सजी-बनी है। यह गुस्सा और नाराजगी उस अन्याय के खिलाफ नए तेवरों की आवाज थी, जो समाज में मध्यवर्गीय झूठेपन की जगह पिछड़े वर्ग की मेहनत और दया की नुमानंदगी करती है।'
अमिताभ बच्चन के थे प्रशंसक
दुष्यंत कुमार ने बॉलीवुड महानायक अमिताभ बच्चन को उनकी फिल्म ‘दीवार’ देखने के बाद पत्र लिखकर उनके अभिनय की तारीफ की और कहा कि- 'वह उनके ‘फैन’ हो गए हैं।' ‘दीवार’ फिल्म में उन्होंने अमिताभ की तुलना तब के सुपर स्टार्स शशि कपूर और शत्रुघ्न सिन्हा से भी की थी। यह दुर्लभ पत्र उनकी पत्नी राजेश्वरी त्यागी ने उन्हीं के नाम से स्थापित संग्रहालय को सौंपा था। दुष्यंत कुमार और अमिताभ के पिता डॉ. हरिवंशराय बच्चन में गहरा प्रेम था।
दुष्यंत कुमार ने अमिताभ को लिखे इस पत्र में कहा, ‘किसी फिल्म आर्टिस्ट को पहली बार खत लिख रहा हूं। वह भी ‘दीवार’ जैसी फिल्म देखकर, जो मानवीय करुणा और मनुष्य की सहज भावुकता का अंधाधुंध शोषण करती है।’ कवि और शायर ने अमिताभ को याद दिलाया, ‘तुम्हें याद नहीं होगा। इस नाम (दुष्यंत कुमार) का एक नौजवान इलाहाबाद में अक्सर बच्चन साहब के पास आया करता था, तब तुम बहुत छोटे थे। उसके बाद दिल्ली के विलिंगटन क्रेसेंट वाले मकान में आना-जाना लगा रहा। लेकिन तुम लोगों से संपर्क नहीं रहा। दरअसल, कभी ज़रूरत भी महसूस नहीं हुई। मैं तो बच्चनजी की रचनाओं को ही उनकी संतान माने हुए था।’ दुष्यंत कुमार ने लिखा, ‘मुझे क्या पता था कि उनकी एक संतान का कद इतना बड़ा हो जाएगा कि मैं उसे खत लिखूंगा और उसका प्रशंसक हो जाउंगा।
पेश हैं उनकी कुछ गजलें
पहली गजल
हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए
आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए
हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए
मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए
दूसरी गजल
ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो
दर्द ए दिल वक़्त पे पैगाम भी पहुंचाएगा
इस कबूतर को जरा प्यार से पालो यारो
लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफिल में बुला लो यारो
आज सीवन को उधेड़ो तो जरा देखेंगे
आज संदूक से वो खत तो निकालो यारो
रहनुमाओं की अदाओं पे फिदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को संभालो यारो
कैसे आसमान में सुराख हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो
लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सजा लो यारो
तीसरी गजल
मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं
वो गजल आप को सुनाता हूँ
एक जंगल है तेरी आंखों में
मैं जहां राह भूल जाता हूँ
तू किसी रेल सी गुजरती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं
हर तरफ़ एतराज होता है
मैं अगर रोशनी में आता हूं
एक बाजू उखड़ गया जब से
और ज्यादा वजन उठाता हूं
मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने करीब पाता हूं
कौन ये फासला निभाएगा
मैं फरिश्ता हूं सच बताता हूं
चौथी गजल
कहां तो तय था चरागां हर एक घर के लिये, कहां चराग मयस्सर नहीं शहर के लिये।
यहां दरख्तों के साये में धूप लगती है, चलो यहां से चलें उम्र भर के लिये।
न हो कमीज तो घुटनों से पेट ढ़क लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिये।
खुदा नहीं न सही आदमी का ख्वाब सही, कोई हसीन नजारा तो है नजर के लिये।
वो मुतमइन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता, मैं बेकरार हूं आवाज में असर के लिये।
जिएं तो अपने बगीचे में गुलमोहर के तले, मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिये।
पांचवी गजल
(अपनी मौत से चंद महीने पहले दुष्यंत कुमार द्वारा लिखी इन पंक्तियों में आप उस वक्त के हिंदुस्तान का मर्म समझ सकते हैं।)
एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर ये तमाशा देख कर हैरान है।
खास सड़कें बंद हैं तब से मरम्मत के लिए, यह हमारे वक्त की सबसे सही पहचान है।
एक बूढा आदमी है मुल्क में या यों कहो, इस अँधेरी कोठारी में एक रोशनदान है।
मस्लहत-आमेज़ होते हैं सियासत के कदम, तू न समझेगा सियासत, तू अभी नादान है।
इस कदर पाबंदी-ए-मजहब की सदके आपके जब से आजादी मिली है, मुल्क में रमजान है।
कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।
मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूं हर गजल अब सल्तनत के नाम एक बयान है।
उनकी कुछ और अन्य मशहूर गजलें हैं...
'कहां तो तय था', 'कैसे मंजर', 'खंडहर बचे हुए हैं', 'जो शहतीर है', 'जिंदगानी का कोई', 'मकसद', 'मुक्तक', 'आज सड़कों पर लिखे हैं', 'मत कहो, आकाश में', 'धूप के पांव', 'गुच्छे भर', 'अमलतास', 'सूर्य का स्वागत', 'आवाजों के घेरे', 'जलते हुए वन का वसन्त', 'आज सड़कों पर', 'आग जलती रहे', 'एक आशीर्वाद', 'आग जलनी चाहिए', 'मापदण्ड बदलो', 'कहीं पे धूप की चादर', 'बाढ़ की संभावनाएँ', 'इस नदी की धार में', 'हो गई है पीर पर्वत-सी'।