हिंदी बाजार नहीं ,हिंदी से है बाजार
हिंदी में बढ़ती बहुराष्ट्रीय कंपनियों की व्यवसायिक रुचि, निजी व सरकारी क्षेत्र में किए जा रहे प्रयासों तथा विश्व हिंदी सम्मेलन के मंच से कही गईं बातों पर हिंदी के जानकारों की राय काफी महत्वपूर्ण रही। इसका निचोड़ रहा कि हिंदी को बाजार के रूप में पेश करना ठीक नहीं
भोपाल। हिंदी में बढ़ती बहुराष्ट्रीय कंपनियों की व्यवसायिक रुचि, निजी व सरकारी क्षेत्र में किए जा रहे प्रयासों तथा विश्व हिंदी सम्मेलन के मंच से कही गईं बातों पर हिंदी के जानकारों की राय काफी महत्वपूर्ण रही। इसका निचोड़ रहा कि हिंदी को बाजार के रूप में पेश करना ठीक नहीं है, अपितु इसे गरिमामय ढंग से दुनिया के बाजार के सामने पेश किया जाना चाहिए। दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी की प्रोफेसर कुमुद शर्मा ने कहा कि पीएम का आशय यह रहा कि पूरा विश्व एक बाजार की तरह है और उसमें हिंदी अपनी संभावनाओं के स्तर पर नहीं पिछड़े।
दरअसल वैश्वीकरण के दौर में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व से शुरूआती समय में हिंदी के पिछड़ने का खतरा महसूस होने लगा था, लेकिन अब सामने है कि हिंदी भी अपने पैर जमा चुकी है और यह काम खुद बाजार ने किया। प्रो.शर्मा का कहना है कि हिंदी को स्वाभिमान की भाषा बनाना चाहिए, इस सम्मेलन में कुछ ऐसा हो कि अंग्रेजी का आतंक टूटे। राज्य हिंदी संस्थान लखनऊ की पूर्व संयुक्त संचालक विद्या बिंदु सिंह का मानना है कि हिंदी को बाजार की जरूरत हो सकती है,लेकिन हिंदी खुद कोई बाजार कदापि नहीं है, हम कभी नहीं चाहेंगे कि ऐसा हो। उनका कहना है कि यह संस्कृति की तलाश की भाषा है और पूरी गरिमा के साथ इसकी दुनियाभर में स्थापना होनी चाहिए।
देवनागरी के प्रचार में जुटे दिल्ली के डॉ. परमानंद पांचाल ने कहा कि हिंदी के दुश्मन वे लोग और संस्थान हैं जो हिंदी के स्थान पर गैरजरूरी रूप से अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग कर रहे हैं। इससे युवा गुमराह होने लगे हैं। पांचाल के मुताबिक मोदी का कहना काफी हद तक तो ठीक है,लेकिन दूसरी भाषाओं के इतने ज्यादा शब्दों को भी आत्मसात नहीं किया जाए कि हिंदी का मूल स्वरूप ही नष्ट होने लगे।