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hindi Diwas 2019: आजादी की लड़ाई के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों सहित कवियों ने हिंदी को दिलाया उचित स्थान

महात्मा गांधी ने शुरुआत से ही हिंदी को स्वतंत्रता संग्राम की भाषा बनाने के लिए काफी परिश्रम किया था। उन्होंने नेताओं को भी इसके लिए प्रेरित किया था।

By Ayushi TyagiEdited By: Published: Sat, 14 Sep 2019 09:48 AM (IST)Updated: Sat, 14 Sep 2019 09:48 AM (IST)
hindi Diwas 2019: आजादी की लड़ाई के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों सहित कवियों ने हिंदी को दिलाया उचित स्थान
hindi Diwas 2019: आजादी की लड़ाई के दौरान स्वतंत्रता सेनानियों सहित कवियों ने हिंदी को दिलाया उचित स्थान

नई दिल्ली,शशि कुमार (शशिकांत)।  स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है‘ नारा देनेवाले बाल गंगाधर तिलक का विचार था कि हिंदी ही एक मात्र भाषा है जो राष्ट्रभाषा हो सकती है। महात्मा गांधी भाषा के प्रश्न को राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के प्रश्नों में सबसे अधिक महत्वपूर्ण मानते थे। उन्होंने प्रारंभ से हिंदी को स्वतंत्रता संग्राम की भाषा बनाने के लिए अथक परिश्रम किया। गांधी जी ने विभिन्न राज्यों में हिंदी-प्रचार करने के लिए नेताओं को जहां प्रेरित किया वहीं लोगों के अलग-अलग जत्थे को राज्यों में भेजा।

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गांधीजी के प्रयत्नों से तमिलनाडु में हिंदी के प्रति ऐसा उत्साह प्रवाहित हुआ कि प्रांत के सभी प्रभावशाली नेता हिंदी का समर्थन करने लगे। यह वह समय था जब चक्रवर्ती राजगोपालाचारी जैसे नेता हिंदी के प्रचार को अपना भरपूर सहयोग दे रहे थे। पंजाब में हिंदी के प्रचार का पूरा श्रेय लाला लाजपत राय को जाता है।

 

डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने दिलाया हिंदी को उचित स्थान

राजर्षि पुरुषोत्तम दास टण्डन की हिंदी सेवा भी अप्रतिम है। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के कर्ताधर्ता थे और उनसे हिंदी प्रचार के कार्य को बड़ी गति मिली। भारतीय संविधान सभा के अध्यक्ष के रुप में हिंदी को उचित स्थान दिलाने का श्रेय डॉ राजेन्द्र प्रसाद को ही है। उन्होंने ही भारतीय संविधान की भारतीय भाषाओं में परिभाषिक कोश तैयार करवाने का महत्वपूर्ण कार्य किया। 'यदि भारत में प्रजा का राज चलाना है, तो वह जनता की भाषा में चलाना होगा। इन शब्दों में जनता की भाषा की वकालत करने वाले काका कालेलकर का नाम हिंदी भाषा के प्रचार-प्रसार और विकास में अतुलनीय योगदान देने वालों में आदर के साथ लिया जाता है।

दक्षिण भारत में हिंदी प्रचार के वे कर्णधार रहे और गुजरात में रहकर हिंदी प्रचार के कार्य को आगे बढ़ाया। 1942 में वर्धा में जब हिन्दुस्तानी प्रचार सभा की स्थापना हुई तो काका साहब ने 'हिन्दुस्तानी' के प्रचार के लिए पूरे देश का भ्रमण किया। इसलिए 'छायावाद का ऐतिहासिक घोषणापत्र' होने के साथ-साथ 'पल्लव' की भूमिका का राजनीतिक महत्व भी था क्योंकि इसमें राष्ट्रभाषा हिंदी को लेकर स्वाधीनता सेनानियों और नेताओं के बीच चल रही बहस के मुद्दे को जोरदार तरीके से उठाया गया था। 

 

आधुनिक हिंदी कविता में छायावाद की स्थापना जयशंकर प्रसाद ने की 
अन्य छायावादी कवियों में भी राष्ट्रीय जागरण की यह काव्यात्मक अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से दिखाई देती है खासकर जयशंकर प्रसाद और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला के यहां जबकि महादेवी वर्मा के यहां इसका स्वरूप बदल जाता है। आधुनिक हिंदी कविता में छायावाद की स्थापना और खड़ी बोली के काव्य में कमनीय माधुर्य की रससिद्ध धारा प्रवाहित करने का श्रेय जयशंकर प्रसाद को है।

लेकिन, प्रकृति चित्रण या प्रकृति प्रेम छायावादी काव्यान्दोलन की यदि एक मुख्य विशेषता थी तो यह आग्रह पर्वत प्रदेश के कवि सुमित्रानंदन पंत का ही था, जो शायद पश्चिम के 'रोमांटिसिज्म' का प्रभाव था। स्वयं पंत जी ने छायावाद को पाश्चात्य साहित्य के ‘रोमांटिसिज्म‘ से प्रभावित माना है। 

'रमांटिसिज्म' या स्वच्छंदतावाद अठारहवीं- उन्नीसवीं सदी में यूरोप में कला और साहित्य के क्षेत्र में एक ऐसा आंदोलन था जिसने वहां के साहित्य, कला के साथ-साथ दर्शन, राजनीति और संगीत को भी प्रभावित किया था। इससे प्रभावित रचनाकार अमूर्त के ऊपर मूर्त, सीमित के ऊपर असीमित, भौतिक और स्पष्ट के ऊपर आध्यात्मिक और रहस्य्मय, वस्तुनिष्ठता के ऊपर आत्मनिष्ठता, बंधन के ऊपर स्वतंत्रता के साथ-साथ संस्कृति के ऊपर प्रकृति को तरजीह देते थे।

कहते हैं कि फ़्रांसीसी क्रांति का युगप्रवर्तक नारा 'समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व' लंबे समय तक स्वच्छंदतावादियों का प्रेरणा स्रोत बना रहा। अंग्रेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ, कॉलरिज, बायरन, शैली, कीट्स आदि कवियों पर स्वच्छंदतावाद का प्रभाव था। आधुनिक हिंदी कविता खासकर छायावादी हिंदी कविता पर स्वच्छंदतावाद के प्रभाव को पंत जी सहित कई अन्य विद्वानों ने भी स्वीकार किया है।

पंत जी सहित लगभग सभी छायावादी कवियों की कविताओं में प्रकृति-प्रेम, मानवीय दृष्टिकोण, आत्माभिव्यंजना, रहस्य भावना, वैयक्तिक प्रेमानुभूति, प्राचीन संस्कृति के प्रति व्यामोह, प्रतीक-योजना, निराशा, पलायन, अहं के प्रति जो उदात्त भाव दिखाई देता है वह पश्चिम के 'रोमांटिसिज्म' यानि 'स्वच्छंदतावाद और छायावाद के बीच की समानता को दर्शाता है। पंत जी के 'पल्लव' संग्रह की कविताओं पर विचार करते हुए इंद्रनाथ मदान लिखते हैं,'पल्लव में कवि की प्रतिभा का प्रौढ़ विकास है। 

महादेवी ने कुछ इस तरह किया वर्णन

'पल्लव' में कीट्स, वर्ड्सवर्थ और टेनिसन जैसे कवियों की लाक्षणिकता, सांकेतिकता और प्रतीकात्मकता स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ती है। इसमें प्रकृति और सौंदर्य की भावना का चरम विकास है, जो कला के आवरण में और भी खिल उठा है और इनकी भाषा चित्रात्मकता, लाक्षणिकता, सांकेतिकता के साथ-साथ अन्य गुणों से युक्त है जो इसे उत्कृष्ट बनाता है। 'सुमित्रानंदन पंत सहित छायावादी काव्यान्दोलन से जुड़े अन्य कवियों ने कविता में प्रकृति चित्रण के महत्व को रेखांकित किया है।

 

दरअसल, महादेवी वर्मा के मुताबिक 'छायावाद का मूल दर्शन सर्वात्मवाद है और प्रकृति उसका साधन। महादेवी के अनुसार छायावाद की कविता हमारा प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कर हमारे ह्रृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्म भाव संबंध जोड़ लेते हैं। लेकिन सुमित्रानंदन पंत के वैयक्तिक जीवन की विडंबना देखिए! कल्पना कीजिये कि किसी नवजात शिशु के जन्म के महज़ छह-सात घंटे बाद ही उसकी जननी इस लोक को छोड़कर परलोकवासी हो जाए तो थोड़े बड़े होने पर उस बालक के लिए प्रकृति की शरण में जाने के सिवा और क्या कोई विकल्प होगा? मातृविहीन बालक के मनोविज्ञान को समझते हुए जब हम पंत जी के मातृविहीन बाल-जीवन को देखते हैं तब कविता में प्रकृति प्रेम के प्रति उनके लगाव की अनुभूति को भलीभांति समझ पाते हैं-

"स्तब्ध ज्योत्स्ना में जब संसार,
 चकित रहता शिशु-सा नादान
 विश्व के पलकों पर सुकुमार,
विचरते हैं जब स्वप्न अजान
न जाने, नक्षत्रों से कौन,
नमन्त्रण देता मुझको मौन!"

प्रकृति के मानवीकरण का यह प्रयास पंत जी के प्रकृति से असीम लगाव को प्रदर्शित करता है। प्रकृति की शरण में भटकते, विचरते कवि की निगाह खेतों में लगी फसलों को कितनी पैनी निगाह से देखती है, इसका वर्णन देखिये-

 "रोमांचित सी लगती वसुधा,
आई जौ, गेंहूं में बाली
अरहर सनी की सोने की,
किंकिनियां है शोभाशाली
उड़ती भीनी तैलाक्त गंध,
फूली सरसों पीली-पीली
लो हरित धरा से झांक रही,
नीलम की कलि तीसी नीली"

दरअसल पंत जी की कविता में प्रकृति सौंदर्य का सजीव वर्णन मिलता है। पंत जी की ही तरह छायावाद का हर कवि अपनी कविता में प्रकृति के सौंदर्य चित्रण को लेकर मुग्ध है। लेकिन व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखें तो उनकी यह ‘मुग्धता‘ महादेवी वर्मा के शब्दों में, ‘प्रकृति के साथ रागात्मक संबंध स्थापित कर हमारे ह्रृदय में व्यापक भावानुभूति उत्पन्न करती है और हम समस्त विश्व के उपकरणों से एकात्म भाव संबंध जोड़ लेते हैं।‘

शायद इसीलिए पंत जी और अन्य छायावादी कवि जब प्रकृति को चेतन के रूप में प्रस्तुत करते हैं तो वह सप्राण लगने लगती है-

"अब रजत स्वर्ण मंजरियों से,
लड़ गयी आम तरू की डाली
झर रहे ढाक, पीपल के दल,
हो उठी कोकिला मतवाली
महके कटहल, मुकुलित जामुन,
जंगल में झरबेरी झूली
फूले आड़ू, निम्बू, दाड़िम,
आलू, गोभी, बैंगन, मूली"

स्पष्ट है, पंत जी का कवि-मन यहां सांसारिक जीवन की समस्त भावनाओं और अनुभूतियों को प्रकृति के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। अन्य छायावादी कवियों की भांति पंत जी की समस्त कविताओं में तत्सम शब्दों का आधिक्य है जैसे द्रुम, इंद्रधनुष, लोचन, स्वप्न, जननी, रश्मि, श्वास, सृष्टि, पुलक, निराकार, साकार आदि। पंत जी ने अपनी कविताओं में चित्रभाषा व लाक्षणिकता का अतिशय प्रयोग किया है। 'पल्लव' की भूमिका में पंत जी ने खुद स्वीकार किया है कि ङ्क्त "कविता के लिए चित्रभाषा की आवश्यकता पड़ती है, उसके शब्द सस्वर होने चाहिए, जो बोलते हों, सेब की तरह जिनके रस की मधुर लालिमा हो, ज्।।जो झंकार में चित्र, चित्र में झंकार हो। 

'रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है, 'चित्रयमयी लाक्षणिक भाषा तथा रूपक आदि का भी बहुत सफल प्रयोग इस रचना (पल्लव) के भीतर हुआ है। 'कुल मिलकर हम कह सकते हैं कि सुमित्रानंदन पंत आधुनिक हिंदी कविता के उन कवियों में हैं जिन्होंने बीसवीं सदी की हिंदी कविता के सबसे बड़े काव्यान्दोलनछायावाद को खड़ा करने में न केवल महत्वपूर्ण योगदान दिया बल्कि छायावादी कविता की अनुभूति एवं अभिव्यक्ति को सशक्त बनाने में उल्लेखनीय भूमिका निभाई।

उन्होंने हिंदी कविता को द्विवेदीयुगीन सीमाओं से बाहर निकाला। अवधी और ब्रजभाषा को दरकिनार कर खड़ी बोली हिंदी को आधुनिक कविता की अभिव्यक्ति का भाषिक माध्यम बनाने का ऐतिहासिक कार्य किया। शायद यही वजह है कि सुप्रसिद्ध आलोचक रामस्वरूप चतुर्वेदी को कहना पड़ा, 'छायावाद की पहली पहचान बनाने वाले कवि सुमित्रानंदन पंत हैं।

लेखक शशि कुमार (शशिकांत) मोतीलाल नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं। 

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